बोल कि लब़ आज़ाद हैं तेरे........

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Thursday, January 5, 2012

देवरिया

कस्बों और नगरों की वैचारिकी है पत्रकारिता। उनके छोटे-बड़े सुख-दुःख का बेतरतीब सा कोलाज। देवरिया रूपक है. इस बार इसके इस पहलू का भाष्य सुशील कृष्ण गोरे ने किया है.कस्बों को केन्द्र में रखकर इस वैचारिकी का एक सिरा subaltern अध्ययन से जुड़ता है जहां हाशिए की सक्रियता की पहचान और परख है तो दूसरा सिरा पत्रकारिता के अपने इतिहास से जहां कस्बों की इस लेखा–जोखी पर अभी उपेक्षा का भाव है. यह अपने आप में एक महान उद्देश्य और जिम्मेदारी के पतन की दयनीयता पर एक गाथा भी है॥ शोध की वैचारिक सघनता और भाषा की दमक यहाँ है. (अरुण देव)

पत्रकारिता की जमीन

बाबूराव विष्णुराव पराड़कर, भारतेन्दु हरिश्चंद्र, महावीर प्रसाद द्विवेदी आदि की कर्मभूमि बनारस ने परवर्ती समय में हिन्दी के जितने पत्रकार देश को नहीं दिए उससे कहीं ज्यादा अकेले देवरिया शहर ने पैदा किए होंगे. पता नहीं कौन सी सोच इस शहर पर तारी है कि यहाँ का बच्चा-बच्चा अपने जिले के डी.एम. और पुलिस कप्तान के नाम जानता हो या न जानता हो; लेकिन एसपी, बीएसपी, बीजेपी, कांग्रेस के जिलाध्यक्ष और नगरपालिका के भूतपूर्व चेयरमैन तक के नाम बाज़ाफ्ता याद रखता है. उसके भीतर किसी शार्टकट की बदौलत जिंदगी में जल्दी से सफलता हासिल करने की एक अनजानी-सी चाहत और अबुझ प्यास अपने घर के आँगन से ही पैदा हो जाती है. जुगाड़ या शार्टकट के प्रति अगाध विश्वास उसे परंपरा से प्राप्त है.

मैंने तो इस शहर में ऐसी माएँ देखी हैं जो अनपढ़ होकर भी इस जमाने के बदलते कायदे-कानूनों से तंग आकर अपने बच्चों को भगतसिंह या गांधी नहीं; योगी आदित्यनाथ या अमर सिंह बनने के लिए ललकारती हैं. उन्हें कभी-कभी इस बात का भी मलाल होता है कि उन्हें किसी ने प्रेरित नहीं किया वर्ना वे खुद भी किसी मायावती से कम न होतीं. उत्तर प्रदेश के बाहर यह कहानी सुनाई जाए तो वहाँ के लोग बड़ी हसरत से सुनते हैं क्योंकि सुनकर उन्हें लगता है कि इस प्रदेश में बड़ा दम है. देखो! कैसे यहाँ के बच्चों को सत्ता पर पहला प्रवचन खुद उनकी माएँ देती हैं. लेकिन क्या इस राजनीतिक संस्कृति से इस प्रदेश और पूर्वाञ्चल के इस अत्यन्त गरीब और बदहाल जनपद का कोई भला हो सकता है. उत्तर अधिकतर 'नहीं' ही होगा. इसकी भी एक वजह है.

पोस्ट एल.पी.जी. (लिबरलाइजेशन, प्राइवटाइजेशन, ग्लोबलाइजेशन) दौर में अब हमारा देश आंकड़ेबाजी के आधार पर ही सही लेकिन धीरे-धीरे 'पिछड़ा' और 'विकासशील' आदि विशेषणों के केंचुल से मुक्त हो रहा है. शेयर बाजारों के सूचकांक और जीडीपी का स्तर ऊँचा हो रहा है. ग्रोथ को एक पवित्र मंत्र में ढाला जा रहा है. मॉल, मल्टिप्लेक्स, आईटी हब, नॉलेज पार्क आदि के रूप में ग्रोथ के विराट प्रतीक गढ़े जा रहे हैं. आप यहाँ रुककर समतामूलक समाज, सामाजिक न्याय, सर्वसमावेशी विकास, गरीब-अमीर, पिछड़े-अगड़े-दलित के टकराव, शहरी-ग्रामीण के तनाव बिन्दुओं का समकालीन बहस छेड़ सकते हैं. आप अगर ज्यादा अतीतग्रस्त निकले तो भारत के गाँव और उसकी खेती की शश्य-श्यामल यादें आपको रुला भी सकती हैं.

लेकिन आज बाजार सर्वेसर्वा है. कार्पोरेट एक कल्चर है. मल्टीप्लेक्स एक मंदिर है. साहित्य, संगीत, सिनेमा, कला, पत्रकारिता बाजार के स्पेस में मिथकीय उत्पाद सदृश हैं. ईश्वर की उपस्थिति भी उपभोग के आनंदोत्सव से रेखांकित हो रही है. ऐसे दौर में मोटे दिमाग से काम नहीं चलेगा. सुबह उठकर केवल 'राम-राम' का जाप और उसके बाद दिया-बाती तक घर के भीतर और घर के बाहर अमर ज्योति चौराहे पर चाय-पान की दुकानों और जमुना गली की बर्तन, सर्राफा या गल्ले की दुकानों में सेठों के सानिध्य में बैठकर मोहन से लेकर मनमोहन सिंह तक पर लंबी तकरीरें करना और फलां यादव या फलां मिसिर के चरित्रों पर केंद्रित सिर्फ निंदा-रस प्रधान बतकुच्चन जीवन के लिए घातक सिद्ध होगा. अब तक चली आ रही जीने की यह शैली जीवन की नय्या मझधार में भी फँसा सकती है.

देवरिया एक ऐसा शहर है जो आज भी अपने भदेसपन पर गर्व करता है और उस पर कुहनी टिकाए बदलते भारत को अपलक निहार रहा है. इस शहर के संस्कार में है कि वह अपने बच्चे-बच्चियों को 'रामचरितमानस' से पहले 'ईदगाह' और 'गोदान' पढ़ने के लिए देता है. यहाँ के बच्चे जितना अज्ञेय और निर्मल वर्मा को जानते हैं उतना ही कीट्स और वर्ड्सवर्थ के बारे में भी जानते हैं. यह बात दीगर है कि उन्हें अपने अँग्रेजी अध्यापक की तरह अँग्रेजी बोलना नहीं आता है क्योंकि उनको तो कोर्स में शेक्सपियर और मिल्टन की कविताएँ भी हिन्दी में ही पढ़ाई गईं हैं. बेशक उन्हें अँग्रेजी कम आती है और वे अँग्रेजी के अखबार नहीं पढ़ते हैं. लेकिन ऐसा नहीं कि 'तीसरे पेज' की दिलकश खब़रों से उनका कोई वास्ता ही नहीं.

बगल के बैकुंठपुर, बैतालपुर और रामपुर कारखाना से रोजाना साइकिल पर बैठकर देवरिया में कानून या कृषि की पढ़ाई करने आने वाले पचासों छात्रों के खुरदरे चेहरे और शर्ट की ट्विस्टेड कॉलर पर मत जाइए. ऊपर से आपको वे रूखे और साहित्य-संगीत-कलाविहीन टाइप के लग सकते हैं. लेकिन उभारा जाए तो हरेक के भीतर गुरुदत्त की सौंदर्य-दृष्टि और बलराज साहनी की सिनेमैटिक रूमानियत के दर्शन हो जाएंगे.

अंग्रेजी में कमजोर होने के बावज़ूद यहाँ पराक्रमी पाठकों का एक महादेश बसता है. अपने समस्त अभावों और अपने ऊपर लगाए गए समस्त लांछनों के बावजूद अखबार और पत्रिकाएँ पढ़ने के मामले में हिन्दी हार्टलैंड या तथाकथित बीमारू राज्य या काउबेल्ट का भूगोल राष्ट्रीय स्तर पर सबसे आगे है. टाउन हाल और नागरी प्रचारिणी सभा के आर्यभाषा पुस्तकालय का फेरा लगाने वाले विद्यार्थी भी यहाँ हैं जिनकी भूखी निगाहें आई.ए.एस., पी.सी.एस. के लिए जनरल नॉलेज की तलाश करते-करते बालीवुड तो क्या, इंटरनेशनल पेज पर छपी हालीवुड की अर्द्धनग्न अदाकाराओं की नयनाभिराम तस्वीरों का भी सर्वेक्षण करती रहती हैं.

यह जेननेक्स्ट 'निग़ाहें मिलाने को जी चाहता है' के तरन्नुम में पामेला एंडरसन, शकीरा, ब्योएंस, मिली साइरस से लगाए एंजिलिना जोली और प्रियंका, कैटरीना, दीपिका और करीना जैसी अपनी ‘हार्ट्थ्राब्स’ के नाम एक सांस में गिना सकता है. एक प्रकार से यह कहा जा सकता है कि देवरिया के यंगिस्तान में सौन्दर्य और साहित्य का तो बोध है लेकिन इंस्टन्ट युगबोध नहीं. उनमें घर किया 'जुगाड़ का सिद्धांत' उन्हें समय की ऊर्जा से जुडने नहीं देता. वह दक्षिण और पश्चिम के राज्यों के स्किल, इंटरप्राइज और मैनेजमेंट के मंत्रों को अपने भीतर विकसित नहीं कर पाता. उसे नगर की स्काईलाइन पर सदियों से लटकी फंतासियों में जीने की जिद है.

ब्यूरो प्रमुख का अंडरवर्ल्ड और अख़बारों से टूटकर गिरी उत्तुंग प्रतिबद्धताएं

इस युवा को देवरिया में उजड़े-से अंधेरे-बंद कमरों में बने अखबारों के ब्यूरो कार्यालय सत्ता के केंद्र लगते हैं और वहाँ से टूटी-फूटी कुर्सी पर बीड़ी-सिगरेट के टुकड़ों के अंबार के बीच बैठकर डी.एम., एस.पी. और एम.पी., एम.एल.ए. से सीधे फोन पर शान से बात करता बी.ए. पास पत्रकार किसी नायक से कम नहीं लगता. वह पत्रकार की हैसियत को रोमैंटिसाइज़ करने लगता है और कचहरी रोड स्थित ब्यूरो कार्यालयों को लोकल सत्ता के ऐसे गलियारे मानने लगता है जहाँ से पार्षद से लगाय पार्लियामेंटेरियन तक की कुंडलियाँ बनाई और बिगाड़ी जाती हैं. वह देखता है कि चपरासी और ड्राइवर बनने की योग्यता जुटाने से अच्छा तो यही है कि देवरिया का पत्रकार बन जाओ.

यदि कोई बड़ा बैनर अपने किसी ब्लाक, तहसील या जिला मुख्यालय कार्यालय से अटैच न भी करे तो चार पेज का साप्ताहिक खुद निकालकर उसका प्रबंध संपादक बनने का अवसर भी हाथ से गया नहीं है. जिस कलेक्टर को कलेक्टर बनने में एड़ी से पसीने छूटे होंगे वह भी देवरिया में इन पत्रकारों के हुक्म को नज़रअंदाज नहीं कर सकता. उसे इनके बच्चों के जनेऊ, बर्थडे, शादी-ब्याह इत्यादि के कार्यक्रमों में अपनी नीली बत्ती वाली गाड़ी में ब्यूरो चीफ के घर पधारना ही पड़ता है; क्योंकि वह देवरिया में पोस्टिंग मिलते ही ताड़ लेता है कि इन तथाकथित वरिष्ठ पत्रकारों और ब्यूरो प्रमुखों के तार भूत, भविष्य और वर्तमान के सभी विधायक और सांसदों के साथ जुड़े हैं. पार्टी कोई भी हो उस पत्रकार की पहुँच उसके सुप्रीमो तक है. बराबर दूरी पर उसके रिश्ते सभी के साथ हैं. स्थानीय गुंडे, शहर के धन्नासेठ, जिला पंचायत अध्यक्ष, नगर पालिका चेयरमैन, तहसीलदार, ट्रैफिक पुलिस, रेलवे आरक्षण केंद्र का बाबू, शराब का ठेकेदार, मुर्गा-मछ्ली के विक्रेता और शहर के सभी स्कूल-कालेजों के प्रिन्सिपल सब इनके हुक्म के तावेदार होते हैं. इस प्रकार आप देखेंगे कि ब्यूरोक्रेसी की नाक में नकेल डालने वाले एक प्रभुवर्ग के रूप में पत्रकारों की एक नई शक्तिपीठ यानी journacracy का उभार देवरिया में बहुत पहले हो गया था. फिर ऐसे प्रोफेसन के प्रति यहाँ की नई पीढ़ी का दुर्निवार आकर्षण आखिर क्यों न हो?

यहाँ के पत्रकार शिरोमणियों को भारत सरकार के औद्योगिक विवाद अधिनियम, वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट, 1955, पालेकर वेज बोर्ड, बछावत आयोग, मणिसाना वेतन आयोग, आईएनएस, एटिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया, इंडियन प्रेस काउंसिल इत्यादि का ज्ञान भले ही न हो लेकिन वे लोकल दाँवपेंच से न केवल गोरखपुर, लखनऊ, बनारस, इलाहाबाद के अख़बारों के संवाददाता या ब्यूरो प्रमुख की हैसियत हथिया लेते हैं बल्कि कुछ तो प्रिंसीपली, बीमा कंपनियों की एजंटई आदि के अपने मूल पेशे के समानांतर दिल्ली तक के अख़बारों से स्ट्रिंगर का बिल्ला झटककर उसे हमेशा अपनी जेब में डालकर और उसके सम्यक परिचय का स्टिकर अपनी मोटर साइकिल और कार पर भी चिपकाकर जिला कलेक्ट्रेट, नगर पालिकाओं, जिला सूचना निदेशक के दफ्तर से लेकर नगर सेठों के प्रतिष्ठानों के चक्कर लगाते रहते हैं. चूँकि पूर्वी उत्तर प्रदेश के इस अंचल में रोजी-रोजगार, मिल-फैक्टरियों का आदिम अभाव है और बीपीओ, मॉल-मल्टीप्लेक्स के आगमन के केवल बेबीस्टेप्स ही दिखाई दे रहे हैं इसलिए समाचार पत्र-समूहों को सस्ते में पत्रकारों की एक पूरी पीढ़ी द्वारपूजा के लिए हमेशा तैयार खड़ी मिलती है.

ऐसे में पत्रकारिता यहाँ न तो कोई मिशन है और न ही धर्मसंस्थापनार्थाय: बल्कि वह सर्वाइवल के संकट से उबारने वाले ब्रह्मास्त्र का प्रतीक है. यह रोजी में बरकत का साधन सिद्ध करने वाली कलियुगी पत्रकारिता में रिड्युस होकर रह गई है. 'पेड न्यूज' देश के लिए भले ही एक नई सनसनी हो लेकिन देवरिया में इसका देहाती फार्मूला दशकों से चल रहा है. इसका आविर्भाव कुर्ता-पाजामा शुल्क से शुरू हुआ था जिसकी परंपरा यदि इन दिनों परवान चढ़कर राडियावाद के नए गुल खिला रही हो तो कोई आश्चर्य नहीं. लाइजनिंग या लॉबिइंग तो दिल्ली की इलिट और अंग्रेजी पत्रकारिता से नि:सृत शब्द हैं लेकिन ग़ौर से तहें उठाकर देखा जाए तो देवरिया की पत्रकारिता में भी पुरुष नीरा राडियाओं और दिल्ली-मुंबई के सेटेब्रिटी पत्रकारों जैसे न जाने कितने चरित नायक सक्रिय रहे हैं जो स्वाधीनता संघर्ष और सामाजिक-राजनीतिक बदलाव में काम आई पत्रकारिता की इस मशाल की आग में अपने न्यस्त स्वार्थों की रोटियाँ सेंकते रहे हैं. लोकतंत्र के इस चौथे स्तंभ को अपना पता बताकर सत्ता और कॉरपोरट के गलियारों से राज्यसभा का टिकट, आदर्श हाउसिंग सोसाइटी, डीडीए के फ्लैट का जुगाड़ करने, राजधानियों में पत्रकारपुरम बसाने, प्रेस क्लब चलाने के फायदे हासिल करने वाले धुरंधर खिलाड़ियों के नाम बेशुमार हैं.

20 साल पहले देवरिया की पत्रकारिता में फिर भी एक तेवर था जो आज लुंपेन एलीमेंट के हाथों में पड़कर जनमन से एकदम कट गई है. तब यहाँ से ग्राम स्वराज, आकाश मार्ग, पावानगर टाइम्स, दिल्ली देवरिया टाइम्स, युग वातायन, जनचक्षु जैसे अनेक साप्ताहिक और पाक्षिक निकल रहे थे जो अपनी तमाम सीमाओं के बावज़ूद जनभावनाओं के दर्पण थे. तह वह दौर था जब देवरिया की धरती पर अखबारों का इतना मशरूम ग्रोथ हुआ कि उसके आगे लखनऊ और दिल्ली का मुँह शर्मा जाए. लेकिन पेशे से प्राध्यापक टाइप के कुछ आदर्शवादी पत्रकारों के कारण देवरिया कि पत्रकारिता पर दाग नहीं लगने पाया. तब अखबारों के मालिक और संपादकों का प्रच्छन्न सरोकार व्यावसायिक होने के बावज़ूद निर्लज्ज ठेकेदारी नहीं थी. आप यह भी कह सकते हैं कि अखबार निकालने वाले धन्नासेठों के सामने व्यवसाय के इतने विराट अवसर उपलब्ध नहीं थे. अन्यथा उनमें किसी तिलक या किसी गोखले की राष्ट्रवादी चेतना अनुस्यूत नहीं थी. वे कोई उदंत मार्तण्ड तो नहीं निकाल रहे थे लेकिन फिर भी वे इस पिछड़े जनपद के परिदृश्य पर दैनिक अख़बारों का एक नया अध्याय तो लिख ही रहे थे.

उस ज़माने में अखबारों के बीच जो भी प्रतिस्पर्धा थी वह अखबारों की आइडियोलॉजी और उसमें छपे कंटेन्ट के आधार पर होती थी. विज्ञापन का बोझ पत्रकारों को नहीं उठाना पड़ता था. देवरिया शहर और जिले की इकॉनमी में व्यापार ज़िंदगी की निहायत जरूरी चीजों तक ही सीमित था. उस समय पाठक अखबार में समाचार के बाद देवरिया के नैना, विजय और अमर ज्योति टाकीजों में चल रही फिल्मों के नाम ढूँढ़ता था. यह अलग बात है कि उस समय के माँ-पिताओं को अपने लिए सत्यम-शिवम-सुंदरम, एक ही भूल या इंसाफ का तराजू या राम तेरी गंगा मैली अश्लील फिल्में नहीं लगती थीं; लेकिन बच्चों के लिए वे जय संतोषी माँ ही निर्धारित करते थे. सोचिए! उस दौर के जीवित माँ-पिताओं पर क्या बीतता होगा जब उनकी आँखों के सामने ही उनके नाती-पोते "मुन्नी बदनाम हुई" या "शीला की जवानी" सुनते-देखते बड़े हो रहे हैं.

तब उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल के कॉलेजों या बनारस, इलाहाबाद या गोरखपुर विश्वविद्यालयों से बी.ए./एम.ए. करके निकले ज्यादातर मूलत: प्राध्यापक पत्रकार लॉबिइस्ट नहीं थे. वे एक 'जस्ट लिबरेटेड' देश के शायद पहले तरुण थे. इसलिए उनमें स्वाधीनता आंदोलन के ज़ज्बे का तेवर था. लेकिन उनमें से ज्यादातर के ज़हन में आजादी की लड़ाई की धुँधली छवियाँ मात्र थीं अर्थात् उनकी वैचारिकी के निर्माण के साथ स्वाधीनता के संघर्ष के प्रत्यक्ष अनुभवों या उसमें उनकी किसी भूमिका का सीधा जुड़ाव नहीं था. लेकिन वह संयोग से आजादी के बाद की ढलान पर सबसे ताजा और अद्यतन पीढ़ी थी. आंदोलन का पहला तीव्र संस्कार उनमें जिस स्रोत से आया था वह जे.पी.मूवमेंट था. संपूर्ण क्रांति का पैशन पहली बार देवरिया के इन बुद्धिजीवी पत्रकारों में आपादमस्तक संचरित हुआ था. वे हर सरकारी दमन के प्रतिरोध और विद्यमान परिस्थितियों में मुकम्मल हस्तक्षेप के आदर्शीकृत रोलमॉडल बनते जा रहे थे. इमरजंसी या आपातकाल अगर देश के लिए एक दु:स्वप्न था तो यह देवरिया की पत्रकारिता के लिए भी किसी अग्निपरीक्षा से कम नहीं था. सरकारी मशीनरी ने 'मीसा' की जकड़न जितनी तेज की देवरिया के पत्रकार उसके खिलाफ़ कमांडो या मार्कोस की तरह उतनी ही तेज कार्रवाई करने के लिए जाने गए. मुझे थोड़ा-बहुत याद आता है कि इन पत्रकारों की लेखनी को तेजस्वी धार देने के लिए पर्दे के पीछे बाकायदा एक इंटेलिजेंसिया ग्रुप भी काम कर रहा था.

तुम मुझे पत्रकार दो और मैं तुम्हें.... यानी हर घर से एक पत्रकार

दैनिक जागरण के गोरखपुर संस्करण के आगमन के बाद इस क्षेत्र की पत्रकारिता में एक नया मोड़ भी आया और रफ्तार भी. समाचार का महत्व देवरिया के लोगों को सबसे पहले इसी अख़बार को पढ़कर समझ में आया. देवरिया से जिस प्राध्यापक को इसका पहला जिला संवाददाता नियुक्त किया गया था, मुझे याद उस व्यक्ति ने स्वयँ अपनी साइकिल पर लेई का डिब्बा टांगकर और "खुल गया"... "खुल गया…" टाइप के छोटे-छोटे पोस्टर लेकर रात के अंधेरों में शहर की दीवारों पर उन्हें चिपकाया था. इस अख़बार को जो शुरूआती लोकप्रियता हासिल हुई उसी की विरासत या यूँ भी कह सकते हैं कि उसके साथ एक बार पनपा मोह ही है जिसके बल पर आज भी यह अख़बार नंबर वन की पोजिशन में बना हुआ है.

इसका रहस्य समझने के लिए अगर ग़ौर से पीछे देखा जाए तो हम पाएंगे कि प्रारंभ में यह अख़बार लोगों के साथ सुख-दुख का एक रिश्ता कायम करने में सफल हो गया. वह शहर के प्रतिष्ठित घरों में होने वाली शादियों को समाचार बनाकर फोटो के साथ छापता था. किसी घर से किसी लड़के या लड़की ने 10वीं या 12वीं बोर्ड की परीक्षा में प्रथम श्रेणी मार ली तो उसका छोटा प्रोफाइल फोटो के साथ दैनिक जागरण में छपना तय था. किसी की दुकान या नए होटल या नए व्यावसायिक प्रतिष्ठान के खुलने पर जिला कलेक्टर या माननीय विधायक के कर-कमलों से फीता कटते फोटो के साथ समाचार लगाने में भी यह अव्वल निकला. बाकी छात्र संघों और तमाम राजनीतिक दलों के छोटे से छोटे और उभरते नेताओं की प्रेस-विज्ञप्तियों का भी यहाँ सम्मान था. मानना पड़ेगा इस अख़बार ने कइयों का पोलिटिकल रोडमैप तैयार किया. श्री कृष्ण श्रीवास्तव, महेश अश्क, डॉ.सदाशिव द्विवेदी के हाथों में इसका संपादकीय नेतृत्व और समाचार लेखन हुआ करता था.

जागरण की तर्ज़ पर आज, राष्ट्रीय सहारा और स्वतंत्र चेतना के गोरखपुर संस्करण भी रेस में शामिल थे. बिहार, नेपाल और उत्तर प्रदेश के त्रिकोण पर हर साल नारायणी नदी अपना कहर ढाती थी. पूरे क्षेत्र में जलप्रलय और गरीब ग्रामीण जनता की बेइंतहा मुसीबतें देवरिया से पत्रकारों के झुंड के लिए जिला सूचना अधिकारी के इंतजाम से गाड़ियों में बैठकर नेपाल की सीमा पर बाल्मिकी नगर तक की यात्रा का एक अवसर होती थीं. वे पानी से घिरे गांवों और गांववालों की त्रासदी नोट करते थे और दूसरे दिन की फ्रंट पेज खबरें बनाते थे. तब डी.एम. साहब भी पत्रकारों के साथ आग या बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों का दौरा करते थे.

देवरिया से निकलने वाले साप्ताहिकों के कई पत्रकार तो संपादक-प्रकाशक-लेखक-प्रूफरीडर-टाइपसेटर-हॉकर और अंत में स्वत्वाधिकारी सब कुछ को मिलाकर एक पैकेज पत्रकार के रूप में कार्य करते थे. इन ऑल-इन-वन टाइप पत्रकारों के लिए तो सरकारी गाड़ी से बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों का दौरा करने के बहाने लार-सलेमपुर या नेबुआ नौरंगिया जाना एक जबरदस्त आत्ममुग्धावस्था में पहुंचने के बराबर होता था. जिलाधीश उनके लिए किसी जिल्लेइलाही से कम नहीं होता था. यह पत्रकारिता में रोमांच की गुदगुदी का दौर था. अन्यथा क्यों एक ही आदमी ऑल-इन-वन बनकर चार पेज का ही सही लेकिन एक अखबार छापने के जुनून से भरा रहता; वही लिखता था, मिटाता था, संपादित करता था, प्रूफ पढ़ता था और अंत में बंडल बनाकर साइकिल के कैरियर में दबाकर बांस देवरिया, कचहरी चौराहा से लेकर राम गुलाम टोला तक में हॉकर की तरह अपना अख़बार बाँटता भी था. यानी हर कीमत पर एक पत्रकार.

देवरिया ऐसे पत्रकारों की नर्सरी था. ढेर सारे अख़बार थे. ढेरों पत्रकार थे. उनके बीच शहर में लॉयन, लियो, रोटरी और इंटरैक्ट क्लब थे. इन क्लबों के अधिवेशन थे. टाउन हॉल के पीछे या जिला परिषद के सभागार में होने वाले उनके पदग्रहण समारोह थे. उस जमाने में क्लब में आने वाली कुलीन घराने की सुंदर और सुरुचिसंपन्न औरतें थीं जिन्हें नजदीक से देखना हिंदी के पत्रकारों के लिए एक रचनात्मक थ्रिल हुआ करता था. चूंकि क्लबों के संपन्न और रसूख वाले दंपतियों को कलेक्टर और एस.पी. के साथ खड़ा होकर अपने चमकदार चेहरों को अखबार में प्रकाशित करवाने का शौक था इसलिए वे नगर के सभी छोटे-बड़े पत्रकारों को अपने कार्यक्रमों में बुलाते थे और उन्हें लजीज दावत भी खिलाते थे. इसी तरह के क्षणभंगुर सुखों की मृगमरीचिका से होकर देवरिया की साठोत्तरी पत्रकारिता का कारवां गुजरा है. उसका यथार्थ उसका पैशन था और उसकी तलाश में एक यूटोपिया. वह बंजारा मन की पत्रकारिता थी. उसमें एक मुद्दे पर ठहराव का धीरज नहीं था.

उसमें त्वरा थी. आवेग था. उसमें ज्यादा जोड़तोड़, गठबंधन या समझौतों की चालाकियां भी नहीं थीं. वह एक बनती हुई विधा थी. उसमें प्रोफेशनलिज्म का तड़का नहीं था. उन दिनों देवरिया के पत्रकार चुनी हुई चुप्पियां ओढ़ने की बज़ाय राजीव गांधी सरकार के मानहानि विधेयक और जिले के किसी भी पत्रकार के साथ किसी थानेदार द्वारा गलती से भी की गई किसी भी बदसुलूकी को गंभीरता से नोट करते थे और राजीव गांधी तथा थानेदार के खिलाफ़ संग्राम छेड़ने में कोई भेदभाव नहीं किया करते थे. वे जिला पत्रकार संघ, देवरिया प्रेस क्लब, जिला श्रमजीवी पत्रकार संघ इत्यादि का संयुक्त मोर्चा बनाकर शासन-प्रशासन से आरपार की लड़ाई लड़ने की मुद्रा में आ जाते थे. आज के अंतर्कलह, लंगीबाजी, टांग खिचौवल में माहिर, विघ्नसंतोषी और समीकरण बैठाने में उस्ताद ब्यूरो प्रमुखों को तो सिर्फ़ एक ही चिंता सताती रहती है कि कोई उनकी कुर्सी खिसकाने की साजिश तो नहीं रच रहा है. ये सभी अपने को किसी वेद प्रताप वैदिक, राम बहादुर राय, राहुल देव से कमतर नहीं समझते. इन दिनों जिस तामझाम से इन मठाधीश पत्रकारों की सवारी नगर के बीच से गुजरती है उसका प्रताप उनमें एक सत्ता-बोध और एक शक्ति-संस्था होने का आत्मदर्प भरता है...

आप इस नगर में कभी आएं तो कचहरी रोड या सिविल लाइन्स जरूर जाएं. वहां राजेन्दर पानवाले और तिवारी पानवाले की चार हाथ की दूरी पर अगल-बगल दुकानें हैं जिनके बीच फैले तनाव और आपसी जलन का कत्था-चूना बिखरा हुआ आपको अवश्य मिल जाएगा. हर पल एक खतरा उमड़ता रहता है - कब किस बात पर दोनों के बीच पानीपत खड़ा हो जाए कोई नहीं जानता. यहां आपको पान खाने वालों से ज्यादा पान की दुकानें और अख़बार से ज्यादा पत्रकार विचरण करते मिलेंगे. यह देवरिया का बहादुर शाह जफ़र मार्ग है. कुछ लोग पान और पत्रकारिता के इसी ओवरडोज के आधार पर नगर को डुप्लिकेट काशी भी कहते हैं.

Tuesday, November 30, 2010

विमर्श

How pious the knowledge is; if unmanufactured
Today, while reading an article on Firaq Sahib, I came to know of a very important advice given by this literary genius. Firaq Sahib used to say very often that "Books are not meant for to always stay engrossed to. The purpose of reading books is to come out of them to test and try the content derived from them in the real world. It means whatever you have read should be reflected through your quest in life. You have to let your knowledge be kissed by the real life experiences. It is sine qunon for us to brood much more over whatever you have read."


Knowledge is an open-ended process. Its stream should be kept flowing in so many directions as it may take during its course towards a better and graduated fulfilment. It shines in many splendours when feather-touched by empirical sweep of mind across the time and space while sailing its voyage through a life. By the way we have ushered into a knoledge city and information society. Through the world wide web we are networked to leverage a vast plethora of knowledge at a click away from each of us. This democracy of informatin is a new avatar to shape the human society to its ideally best form of culture and governance. Information capacitates us. It's a historic juncture in the civilizational progress of human society where possibilities are infinetly infinite and potential boundless. Let this informed society prosper and progress as per the wishes of Gurudev. His unforgettable famous lines are presented hereunder once again for a ready reference:
"Where The Mind Is Without Fear
Where the mind is without fear and the head is held high

Where knowledge is freeWhere the world has not been broken up into fragments

By narrow domestic walls

Where words come out from the depth of truth

Where tireless striving stretches its arms towards perfection

Where the clear stream of reason has not lost its way

Into the dreary desert sand of dead habit

Where the mind is led forward by thee

Into ever-widening thought and action

Into that heaven of freedom, my Father, let my country awake."