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Thursday, November 25, 2010

अनुवाद

अनुवाद का मैदान: दो पाठों का टकराव: इतिहास और संस्कृति

अभी हाल ही में मैं अपने तमाम मित्रों के साथ चेन्नै में आयोजित राजभाषा सम्मेलन में भाग लेकर वापस आ रहा था। फ्लाइट में समय काटने के लिए सामने की कुर्सी की पीठ पर लगे मनोरंजन के चौखटे से जुड़े हेडफोन को कानों में खोंसकर अपनी पसंद के फिल्मी गाने सुनता रहा। जब मन भर गया तो 'कार्तिक कालिंग कार्तिक' फिल्म शुरू किया। फिल्म पूरी नहीं हो पायी क्योंकि तब तक कैप्टन ने लैंडिंग के संकेत दे दिए थे। हिन्दी संवादों के अंग्रेजी सब टायटल्स (रनिंग अनुवाद) ने मेरे अंदर के अनुवादक को छेड़कर जगा दिया। अब तो हिन्दी में बोले जा रहे संवादों को मेरे कानों ने सुनना ही बंद कर दिया। मेरा दिमाग तो केवल स्क्रीन पर नीचे के भाग में तड़ातड़ अंग्रेजी में आ रहे सब टायटल्स (अनुवाद) को पढ़ने और समझने में ही डूबा रहा। मित्रों। मैं इस सहज घटना का ज़िक्र इसलिए आपसे कर रहा हूँ क्योंकि मेरा मानना हैं कि भाषाएं तो खुद ही बड़ी मायावी होती हैं। उनके साथ होना साँप की आँखों में देखना और फिर मोहाविष्ट हो जाना है। ऊपर से यदि दो भाषाएं एक साथ आपके सामने हों तो कल्पना करिए उनके इंटरप्ले से कितना बड़ा सम्मोहन पैदा होगा। और भाषाओं के परस्पर अभिसार और आलिंगन से यह सम्मोहन अनुवाद की धरती पर ही पैदा होता है। मैं चेन्नै जाते समय और वहां पहुंचकर तीन दिन चेक लेखक कारेल चापेक की कहानियों के हिन्दी अनुवाद पढ़ता रहा। कहानियां तो ख़ैर सुंदर हैं ही; लेकिन वे महासुंदर बन पड़ी हैं - हिन्दी में अनूदित होकर। अब आप जानना चाहेंगे कि वह अनुवादक कौन हो सकता है? सिर्फ़ और सिर्फ़ निर्मल वर्मा। निर्मल के बारे में बहुत प्रसिद्ध कथन है - वे गद्य में कविता लिखते हैं। कहीं से लगता ही नहीं है कि कहानियां अनुवाद हैं। इसका एक कारण तो यह कि निर्मल वर्मा ने सीधे चेक भाषा से इन कहानियों का हिंदी में अनुवाद किया है। दूसरे, वे 1959 से 1968 तक प्राग में ही रहे थे। वहां की पहाड़ी, ब्रिज, चर्च, रेस्तरां कहां हैं; किन-किन रास्तों से उन जगहों पर जाया जा सकता है - इन सबकी तफसील हैं निर्मल के उपन्यास और कहानियां। उनके लिए अनुवाद दो भाषाओं के बीच फैले जंगल में अकेले निर्लिप्त और सब खतरों से मुक्त घूमना है।

आखिर यह अनुवाद किस बला का नाम है। आप भी अपने कार्यालय में हिंदी अनुवाद के फेर में आए दिन पड़ते ही होंगे। लेकिन अनुवाद के साथ असली नूराकुश्ती तो फिर भी आपको नहीं करनी पड़ती है। उसके लिए बैंक ने हर कार्यालय में राजभाषा अधिकारी जो बिठा रखा है। नयी-नयी बैंकिंग अवधारणाओं की थाह लेना और तुर्रा यह कि अंग्रेजी भी पोस्ट-विक्टोरियन मिज़ाज की। लंबे-लंबे परिपत्र और भारी-भरकम रिपोर्टें देखकर दिमाग में सूनामी तरंगें उठने लगती हैं। वो क्या भीषण अंग्रेजी की रुह भी थर्रा जाए। लेकिन हम मैदान में उतरते हैं-निष्कवच और निर्भय। हम जानते हैं कि हमारे काम को लोग मौलिक नहीं मानेंगे। हमारी कृतियाँ हिंदी में हैं इसलिए दोयम दर्जे की हैं। इस दंश को हम दशकों से झेलते आए हैं। अंग्रेजी में की गयी नकल भी सहजता से मान्य हो जाती है। बल्कि जिसकी अंग्रेजी जितनी दुरुह उसकी उतनी पूछ। हिंदी अनुवाद को सहज-सरल बनाने की भरसक कोशिश की जाती है। लेकिन अंग्रेजी पाठ यदि भयंकर हो तो उसका हिंदी पाठ पंचतंत्र की कथा कभी नहीं हो सकता। अभी पूंजी पर्याप्तता का बासल-2 फ्रेमवर्क बैंकिंग के केंद्र में है। लेकिन उसकी अंग्रेजी देखिए। एक निपट सांध्य भाषा। यह अंग्रेजी पर कोई आरोप नहीं है। ख़ैर मेरे जैसे नाचीज की औकात ही क्या कि इतनी क्लासिकल और रूमानी भाषा पर गंदा आरोप लगाए। इसके पैरोकार तख्त और ताज से ताल्लुक रखते हैं। इसलिए अभिजन की भाषा की निंदा कैसे की जा सकती है। अभिजन जिधर जाते हैं वही पंथ बन जाता है। लेकिन भाषा हमेशा पंथों और ग्रंथों की विरोधी रही है। उसकी मिसाल उसके जनवादी तेवरों के लिए दी जाती है। भाषा जनमन के भीतर ही अपनी जिजीविषा से मिल पाती है। उसका स्पंदन लोकसंसार में धड़कता है। जो भाषा जितना आभिजात्य संस्कारों वाली रही है वह उतना ही प्रयोग से बाहर होती चली गयी है। हिंदी इसी जनमन की भाषा है।

आइए चलिए देखें - अपने कार्यालय के उस कक्ष में जहाँ राजभाषा अधिकारी अंग्रेजी में लिखे ढेर सारे कागजात, रिपोर्टों, परिपत्रों के बीच घिरा कुछ लिखता चला जा रहा है। जनाब! उसे कम मत समझिए - वह अनुवाद कर रहा है। बात-बात में भूमिका लंबी-चौड़ी होती जा रही है। अब सीधे अनुवाद रूपी कला और बला की नकेल पड़ते हैं।

अनुवाद का अपना हजारों साल पुराना इतिहास है। अरब खास तौर से इराक में इस विधा को एक पुख्ता जमीन मिली। पुरातत्वविदों को जिल्गामेश के महाकाव्य तथा हमूराबी की संहिता के कई भाषाओं में अनुवाद प्राप्त हुए हैं। पंद्रहवीं सदी तक आते-आते अरब देशों में अनुवाद की कला बाजाफ्ता एक लोकप्रिय और स्थापित विधा बन चुका था। उन्होंने अनुवाद की दो विधियाँ अपनायी। पहली विधि प्रथम अनुवादक इब्न नयमा अल-हिम्शी के नाम से जानी जाती है। यह शाब्दिक अनुवाद की धारा है। अनुवाद की दूसरी धारा के प्रवर्तक अपने जमाने के दो उम्दा अनुवादक अल-बतरीक तथा उसका बेटा याह्या थे जिन्होंने पाठ के अर्थ के अनुवाद को महत्वपूर्ण माना। पिता-पुत्र की इस जोड़ी ने यूनानी दर्शन और चिकित्सा पद्धति के महान ग्रंथों का अरबी में अनुवाद किया।

यदि इससे आगे बढ़कर देखा जाए तो अनुवाद की एक तीसरी धारा के लिए भी गुंजाइश बनती है। इस तीसरी धारा में खास बात उसकी रचनात्मक शक्ति है। इस अनुवाद में पाठ की वस्तु और उसके अर्थ दोनों का अनुवाद कलात्मक प्रतिभा के ऐसे सूक्ष्म स्तर पर किया जाता है जहाँ पाठ के सतह पर दिखने वाले रूप और अर्थ के पार का संज्ञान उभरकर सामने आ जाता है। इसका अधिवास संपूर्ण पाठ की शैली में कहीं खोजा जा सकता है। इसका एक आत्मीय संबंध लेखक की दृष्टि के साथ भी बनता है। यह एक प्रकार के रहस्य पर से पर्दा उठाने जैसा अनुभव है। इस प्रकार एक अनुवादक दो भाषाओं की भिड़ंत के बीच खतरे में खड़ा रहकर एक नयी रचना का शिलान्यास करता है। उसे मूल पाठ के प्रति ईमानदार रहते हुए एक सर्वथा नया पाठ गढ़ना पड़ता है। यह काम आसान नहीं होता। कुछ विद्वान तो मानते हैं कि अनुवाद इत्र के मानिंद होता है। यदि इत्र को एक शीशी से दूसरी शीशी में ऊड़ेला जाए तो उसकी कुछ खुशबू तो उड़ ही जाती है। इसी प्रकार अनुवाद के बाद पाठ की कुछ खुशबू और उसकी कुछ रुह तो फना हो ही जाती है। बेंजामिन जैसे भाषाविद् मानते हैं कि अनुवाद संस्कृतियों के बीच एक पुल बना देता है। वह सिर्फ लक्ष्य भाषा का साहित्य समृद्ध नहीं करता। वह भाषाओं और संस्कृतियों के मिलाप से विश्वायतन को समझने का एक सांस्कृतिक इंक्यूबेटर बन जाता है।

अनुवाद का इतिहास उतना ही पुराना है जितनी मानव सभ्यता। भाषा की शुरूआत के साथ-साथ अनुवाद का श्रीगणेश भी हो गया था। भारत में 1857 की क्रांति न सिर्फ स्वाधीनता संग्राम की दृष्टि से एक निर्णायक क्षण है बल्कि वह भारतीय मानस को बदल देने वाली एक अभूतपूर्व घटना रही है। इससे निकली चेतना नवजागरण की लिपि बनी। समूचे देश में नवजागरण हर स्तर पर प्रतिरोध और परिवर्तन के स्वर को मुखरित कर रहा था। साहित्य, कला, कविता, भाषा, चिंतन, पत्रकारिता सब कुछ एक प्रतिबद्धता और एक जज्बे से ओतप्रोत थे। वह जज्बा था - आत्मबोध का, भारतीयता की पहचान का। इसी भारतीयता के घनीभूत पुंज थे - भारतेंदु हरिश्चंद्र। वे हिंदी क्षेत्र में नवजागरण की इस चेतना के अग्रदूत थे। उन्होंने नवजागरण की चेतना को साहित्य-संस्कृति के माध्यम से जनजीवन में जगाया। जनजागरण के अपने इस अभियान में भारतेंदु बाबू जिन दो सशक्त साधनों का इस्तेमाल किया वे थे - पत्रकारिता और अनुवाद। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के संपादन में 1901 में सरस्वती पत्रिका निकली। यह मात्र पत्रिका नहीं; अपने समय का प्रामाणिक आख्यान थी। हिंदी में यह भारतीय मानस को पुनराविष्कृत करने वाली अदम्य और निर्भीक पत्रकारिता की शिखर उपलब्धि थी। सरस्वती में द्विवेदी जी ने इसमें मौलिक साहित्य के साथ-साथ अनुवाद को भी उदारता के साथ महत्व दिया था। दुनिया-भर के ज्ञान-विज्ञान से यह पत्रिका अनुवादों के माध्यम से हिंदी संसार को परिचित करा रही थी। दुनिया की जानकारी यहाँ जितनी लेखन से आती थी उससे कम अनुवादों के माध्यम से भी नहीं आती थी। नवजागरण का यह युग एक प्रकार से अनुवाद विधा के लिए भी वरदान साबित हुआ। भारतेंदु हरिश्चचंद्र ने ख़ुद संस्कृत, बांग्ला, अंग्रेजी आदि भाषाओं के कई नाटकों का हिंदी में अनुवाद किए थे। उन्होंने हर्ष के रत्नावली, विशाखदत्त के मुद्राराक्षस का बांग्ला से, कर्पूर मंजरी का प्राकृत से तथा शेक्सपियर के 'मर्चंट ऑफ वेनिस' का 'दुर्लभ बंधु' शीर्षक से हिन्दी अनुवाद किया था। अनुवाद की इस पुख्ता नींव पर आगे अनेक शीर्षस्थ लेखकों ने विश्व साहित्य की तमाम कृतियों के सुंदर अनुवाद प्रस्तुत किए। उस जमाने में आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने जोसफ एडिसन के लेख Pleasures of Imaginations का 'कल्पना का आनंद', हेकेल की पुस्तक The Riddle of the Universe का 'विश्व प्रपंच' तथा एडविन आर्नोल्ड के Light of Asia का अनुवाद 'बुद्धचरित' नाम से और श्रीधर पाठक ने ऑलिवर गोल्डस्मिथ की दो पुस्तकों The Hermit तथा Deserted Village का अनुवाद क्रमश: 'एकांत योगी' और 'ऊजड़ग्राम' नाम से किया था। महाप्राण निराला ने बांग्ला से 'आंनद मठ', 'दुर्गेशनंदिनी', राष्ट्रकवि दिनकर ने 'मेघदूत' तथा रवीन्द्र नाथ टैगोर की चुनिंदा कविताओं का हिन्दी अनुवाद किया। बाद में हिन्दी में विदेशी साहित्य के अनुवाद की एक समृद्ध परम्परा-सी बन गयी। अनुवाद विश्व साहित्य का वातायन बन गया। भीष्म साहनी ने तो बाकायदा 1957 से 1963 के बीच अपने रूस प्रवास के दौरान एक अनुवादक के रूप में कार्य करते हुए लगभग 25 रूसी किताबों का हिन्दी में अनुवाद किया था जिनमें टॉलस्टॉय का Resurrection भी शामिल है। कविवर बच्चन अपनी 'मधुशाला' और 'बसेरे से दूर' के कारण जितना प्रसिद्ध हैं उतना ही वे शेक्सपीयर के नाटकों के हिन्दी अनुवाद के लिए भी जाने जाते हैं। मोहन राकेश ने 'मृच्छकटिकम' तथा 'शाकुंतलम' का संस्कृत से हिन्दी में अनुवाद किया था। इसके अलावा रांघेय राघव, निर्मल वर्मा, कुँवर नारायण, राजेन्द्र यादव, विष्णु खरे, गंगा प्रसाद विमल जैसे बड़े लेखकों ने भी विश्व साहित्य की तमाम महत्वपूर्ण कृतियों के सुंदर अनुवाद से हिन्दी साहित्य को समृद्ध किया है। उदय प्रकाश द्वारा पाब्लो नेरुदा, लोर्का, लुइस बोर्गेस, पॉल एलुआर, एडम जेड्रेवस्की, रोजेविस, मिखाइल सात्रोव के एक नाटक का 'लाल घास पर नीले घोड़े', कन्नड़ लेखक प्रसन्ना के एक नाटक का राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, नई दिल्ली के अभिमंच के लिए 'एक पुरुष डेढ़ पुरुष' नाम से अनुवाद इस विधा को सशक्त बनाने वाले कार्य हैं। इसके अलावा अहलूवालिया,------, सूरज प्रकाश, प्रेमरंजन 'अनिमेष' आदि भी अनुवाद विधा में लगातार काम कर रहे हैं।

अंग्रेजी में लिखने वाले भारतीय लेखकों में से कई सिद्धहस्त अनुवादक भी रहे हैं। इनमें से शुरूआती दौर के लेखकों में श्री अरविन्दो तथा पी.लाल के नाम अग्रगण्य हैं। उनकी स्रोत भाषा मुख्यत: संस्कृत रही। बाद के आधुनिक तेवर वाले दिलीप चित्रे, ए.के.रामानुजन, आर.पार्थसारथी तथा अरुण कोलातकर जैसे द्विभाषिक कवियों की स्रोत भाषा उनकी मातृभाषा रही। इनके अनुवाद का विषय मुख्य रूप से मध्यकाल का भक्ति-साहित्य था। रवीन्द्र नाथ टैगोर द्वारा 'कबीर' तथा श्री अरविन्दो द्वारा 'विद्यापति' का अनुवाद इस प्रकार के अनुवाद के प्रारंभिक उदाहरण हैं। दरअसल उस दौर में अनुवाद इन कवि-लेखकों के लिए अपनी आत्मा उपनिवेशवादी चंगुल से मुक्त करने का एक सांस्कृतक औजार था।

1980 के दशक में अनुवाद को विश्व स्तर पर एक सुव्यवस्थित अनुशासन के रूप में प्रतिष्ठा मिली। 1970 का दशक इसको अपनी पहचान बनाने में बीत गया। 1990 को इलेक्ट्रॉनिक मीडिया क्रांति का दशक माना जाता है। इस दशक में संस्कृतियों की साझेदारी और उनके बीच आवाजाही के नए मार्ग खुल गए। यह सब कुछ इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से संभव हुआ। सरहदें नाकाफी हो गयीं। इस मीडिया की उड़ान के रास्ते में कोई सरहद बीच में नहीं आती। सूचना क्रांति ने वैश्वीकरण को संस्कृतियों के संदर्भ में समझने का अवसर दिया। लेकिन वैश्वीकरण का एक नकारात्मक पहलू भी है। सांस्कृतिक जड़ों को पुनर्परिभाषित करने और राष्ट्रों के बीच हितों के नए समीकरण और टकराव के क्षेत्रों में उभार भी इसी प्रक्रिया की विरासत है। ऐसे में अनुवाद तेजी से नस्ली और एथनिक दीवारों में बँटती जा रही इस उत्तर-वैश्वीकृत दुनिया को समझने का एक ताजादम अनुशासन बन रहा है।

इधर अनुवाद की महत्ता काफी बढ़ी है। विश्व के अनेक दूरस्थ भागों व भाषाओं का साहित्य अब अंतर्राष्ट्रीय पाठक-वर्ग को कहीं अधिक सुलभ है जो अनुवाद के ही माध्यम से संभव हुआ है। आयरलैंड के विद्वान माइकल क्रोनिन ने अनुवादक को एक ऐसा यात्री बताया है जिसकी यात्रा एक स्रोत से दूसरे स्रोत तक होती है। निश्चित रूप से 21वीं सदी न केवल देशों के बीच एक महत्वपूर्ण यात्रा की साक्षी बनेगी बल्कि समय का एक नया वृतांत भी बनेगी।

अनुवादों से मूल भाषा का कम ही बनता-बिगड़ता है पर लक्ष्य भाषा अर्थात् जिसमें अनुवाद होकर आये हैं, उस पर अनुवादों का कैसा और कितना प्रभाव पड़ता है, इस विषय पर अनुवाद शास्त्र के विद्वानों ने पिछले कुछ दशकों में काफि कुछ कहा है। इनमें से केवल दो मुख्य बिन्दुओं का संक्षिप्त संकेत यहां पर्याप्त है। पहली तो इजराइल के अनुवाद विशेषज्ञ इतमार ईवेन जोहार की सैद्धान्तिक स्थापना कि अनुवाद किसी भी भाषा व साहित्य की आंतरिक बहुआयामी प्रणाली में ही बदलाव लाते हैं, जिससे उस भाषा का ढाँचा और मुहावरा बदलता है। एक और सवाल हमेशा हमारे सामने खड़ा रहता है कि अनुवाद सुगम या घर-जैसा होना चाहिए (Domestication) या जान-बूझकर अटपटा और अपेक्षाकृत दुर्गम जिससे वह स्पष्टत: पराया लगे (foreignization)? इस गहन किन्तु असाध्य विषय पर जो बहसें हुई हैं उनके प्रथम प्रवर्तक थे फ्रीडरिख श्लायरमाखर और हमारे समय के अधिकारी विद्वान हैं लारेंस वेन्युटी।

इस प्रकार आप देखेंगे कि हमारी बिरादरी के मजबूत हाथों में साहित्य-संस्कृति का परचम भी लहराता है। अनुवाद एक सर्जना है - यदि आप मानें तो। हाल-फिलहाल अनुवाद को सत्ता-विमर्श से भी जोड़कर गंभीर अध्ययन चल रहा है। अनुवाद, इतिहास, संस्कृति नामक अपनी पुस्तक में आंद्रे लेफेवेरे कहते हैं कि अनुवाद का सीधा संबंध अथॉरिटी, लेजिटीमेसी और अंतत: सत्ता के साथ है। अनुवाद एक दूसरी दुनिया की तरफ खुलने वाली खिड़की मात्र नहीं है। A window opened on another new world. अनुवाद एक ऐसा चैनल भी है जिसके रास्ते बाहरी संस्कृति के प्रभाव स्थानीय संस्कृति पर पड़ते हैं। अनुवाद का इस चैनल के रूप में बहुधा इस्तेमाल किया जाता है। स्थानीय संस्कृति पर ऐसा अनुवाद आघात करता है। उसे कलुषित करता है। परायी वैचारिकी के रंग में रँगना शुरू कर देता है। विक्टर ह्युगो ने अनुवाद की इस छद्म ताकत को पकड़ा था। उन्होंने लिखा है कि जब आप किसी राष्ट्र को कोई अनुवाद पढ़ने के लिए देते हैं तो आप माने चाहे न माने राष्ट्र उसे अपनी अस्मिता पर एक हमले के रूप में लेता है (When you offer a translation to a nation, the nation will almost always look on the translation as an act of violence against itself)

राजभाषा अधिकारी इतने बड़े-बड़े प्रश्नों से तो नहीं जूझता है लेकिन अनुवाद की रणभूमि में जाने-अनजाने शब्द-चरितों और शब्द-संहिताओं की कठिन गुत्थियाँ सुलझाता-सुलझाता वह खुद एक चरित-नायक में ढलता जा रहा है। वह अपने प्रादुर्भाव की हीरक जयंती मना रहा है। वह एक ऐसी भाषा का ऑफिसियल चेहरा है जो हमारे देश की एकता और सांस्कृतिक अस्मिता की भाषा है। यानि हिंदी। हिंदी में सगुण हैं, निर्गुण हैं, राम हैं, कृष्ण हैं, नानक हैं, अल्लाह हैं। हिंदी समन्वय है। हिंदी विरुद्धों का सामंजस्य है।