सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यमों के विकास की जीवन-रेखा :
ऋण गारंटी योजना (सीजीएस) तथा ऋण गारंटी न्यास फंड (सीजीएफटी)
एमएसएमई आज भारत की अर्थव्यवस्था से जुड़ा एक बहुचर्चित शब्द बन गया है। दरअसल यह न तो शब्द है और न ही कोई संक्षेपाक्षर। यह समावेशी विकास का विजन है। आर्थिक रूप से मजबूत होते भारत की दूरदृष्टि है। आपको याद होगा कि लघु उद्योग और उनका विकास आजादी के बाद नए सिरे से विकसित और औद्योगिकीकृत होते भारत की प्रमुख प्राथमिकताओं में था। भारत सरकार ने 70 के दशक में पहली बार लघु उद्योग क्षेत्र के लिए अलग से नीति बनाने की घोषणा की थी। उसके बाद इस क्षेत्र का स्थान पंचवर्षीय योजनाओं और बजट के केंद्र में बना रहा। ठीक वैसे ही उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण (एलपीजी) के बाद बाजार आधारित अर्थव्यवस्था में एक रोल मॉडल की हैसियत रखने वाले भारत के लिए जरूरी हो गया कि बड़ी-बड़ी परियोजनाओं के पीछे सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों (एमएसएमई) की आवाजें गुम न हो जाएं। बल्कि यह कहा जा सकता है कि बड़े उद्योगों को कच्चे माल, प्राथमिक वस्तुओं, तैयार घटकों की आपूर्ति इन्हीं उद्यमों के द्वारा होती है। चूंकि सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम क्षेत्र रोजगार सृजन, निर्यात तथा देश की एक बहुत बड़ी आबादी को आर्थिक रूप से अपने पैरों पर खड़े होने में मदद करता है इसलिए इसे ‘सनराइज सेक्टर’ भी कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।
इस क्षेत्र में लगभग 2.6 करोड़ उद्यम काम कर रहे हैं। समूचे विनिर्मित उत्पादन में अकेले इसी क्षेत्र की भागीदारी 45 प्रतिशत और भारत के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 8 प्रतिशत है। देश से होने वाले संपूर्ण निर्यात का 40 प्रतिशत भाग एमएसएमई की बदौलत होता है। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि इस क्षेत्र ने तकरीबन 6 करोड़ हाथों को रोजगार दिया है। इसके अलावा सिर्फ खेती-बाड़ी ही एक क्षेत्र है जिसने इससे अधिक लोगों को रोजी-रोटी दी है। इसलिए एमएसएमई न केवल समावेशी विकास का वाहक है बल्कि वह देश के सम, संतुलित एवं स्थिर विकास का भी आधारस्तंभ है। भारतीय रिज़र्व बैंक के उप गवर्नर डॉ.के.सी.चक्रवर्ती ने अपने एक भाषण में कहा है कि कल के एमएसएमई आज के बड़े कार्पोरेट्स हैं और कल की बड़ी एमएनसी। The MSMEs of yesterday are the large corporates of today and could be MNCs of tomorrow.
यह तस्वीर केवल भारत की नहीं है बल्कि समूची दुनिया में एमएसएमई का एक दमदार व्यावसायिक संगठन के रूप में उभार देखा जा रहा है। ये तमाम ऐसे नए क्षेत्रों में घुसपैठ बना चुके हैं जहां बड़ी कंपनियों या बड़े औद्योगिक घरानों की नज़र नहीं पड़ी या फिर उन्हें वहां मुनाफे का भविष्य नहीं दिखा और उन्होंने उनकी उपेक्षा की। ग्राहकों के ऐसे छोटे-छोटे संभावनाशील समूहों की उम्मीदों और सपनों में अपना बाजार (Niche Markets) ढूँढ़ने वाले एमएसएमई दुनिया भर में फैले हैं। उनकी सफलताएं उनके देशों की दंतकथाएं बन गई हैं। आपको बता दें कि यूरोपीय संघ के 99 प्रतिशत और अमेरिका के 80 प्रतिशत उद्यम लघु उद्यम हैं। भारत में भी इसकी हिस्सेदारी 97 प्रतिशत है। पांचवी अर्थिक गणना (अनंतिम आंकड़ा – जून 2006) के अनुसार कृषि से इतर 421.2 लाख उद्यमों में से 5.8 लाख उद्यम कारखाना इकाइयों के रूप में हैं। भारत सरकार द्वारा जून 2006 में स्वीकृत एमएसएमई की नई परिभाषा के अनुसार इन 5.8 कारखाना इकाइयों में से लगभग 5 लाख लघु एवं मध्यम उद्यम इकाइयां हैं।
सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यम विकास अधिनियम, 2006 बनने के बाद एमएसएमई क्षेत्र सुपरिभाषित हो गया है। सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यम और उनमें निवेश की सीमाएं स्पष्ट कर दी गई हैं। अन्य देशों में जहां नियोजित कर्मचारियों तथा धारित पूंजी आदि के आधार पर एसएमई को परिभाषित किया जाता है वहीं भारत में इन उद्यमों को प्लांट एवं मशीनरी में निवेश की राशि के आधार पर परिभाषित किया जाता है। इस प्रकार मोटे तौर पर इन उद्यमों को दो श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया है:
(क) विनिर्माण
(ख) सेवाएं प्रदान करने में लगे उद्यम
उद्यमों के दोनों वर्गों को प्लांट एवं मशीनरी में उनके निवेश (विनिर्माण उद्योगों के लिए) या उपस्करों में उनके निवेश (सेवा प्रदान करने वाले उद्यमों के मामले में) के आधार पर सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यमों में वर्गीकृत किया जाता है। एमएसएमई क्षेत्र में निवेश की उच्चतम राशि बढ़ाकर 10 करोड़ रुपये तक किए जाने के बाद उम्मीद की जानी चाहिए कि इस क्षेत्र की प्रगति जोर पकड़ेगी। अब बहुत संभावना है कि प्रौद्योगिकी तथा आधुनिकीकरण की प्रक्रिया भी इस क्षेत्र में शुरू होगी जो न केवल उदारीकरण और वैश्वीकरण बल्कि विश्व व्यापार संगठन की शर्तों के नए संदर्भ में जारी प्रतिस्पर्धा में इस क्षेत्र के टिके रहने के लिए भी जरूरी है।
क्रेडिट की जरूरत
एमएसएमई देश की अर्थव्यवस्था के विकास के वाहक हैं। लेकिन उन्हें अपने व्यवसाय या उद्यम के लिए हमेशा फंड का टोटा रहता है। बैंक एवं वित्तीय संस्थाएं या तो कतराती रही हैं या बहुत बेमन से उनकी निधिगत जरूरतों को पूरा करती रही हैं। हालांकि सरकार तथा भारतीय रिज़र्व बैंक के फोकस में होने के नाते अब एमएसएमई के प्रति वित्तीय संस्थाओं और बैंकों का रुझान बढ़ा है। फिर भी एमएसएमई को जरूरत पड़ने और समय पर क्रेडिट हासिल करने में दिक्कतें उठानी पड़ती हैं। देखा गया है कि इस क्षेत्र को उधार की जरूरतें प्राय: छोटी होती हैं लेकिन वे जरूरतें बार-बार पड़ती रहती हैं और यह एक वज़ह है कि बैंक एवं वित्तीय संस्थाएं उनमें दिलचस्पी नहीं लेतीं। इसके अलावा अधिकतर एमएसएमई पहली पीढ़ी के उद्यमों से संबद्ध होने के नाते क्रेडिट के लिए संपार्श्विक यानी कोलैटरल का इंतजाम नहीं कर पाते जो उनके उद्भव में एक अड़चन है।
अभी पाँच-दस साल पहले तक एमएसएमई द्वारा ऋण चुकौती में चूक के मामले आम थे। इसके पीछे कई कारण थे। एक कारण यह भी था कि इन उद्यमों के पास प्रौद्योगिकी, कार्पोरेट गवर्नेंस, शोध एवं विकास का कोई क्षितिज नहीं था। कहा जा सकता है कि उनके पास कोई न तो कोई सुपरिभाषित प्रोफेशनल तकाजे थे और न ही कोई प्रबंधनकीय एवं संगठनात्मक दृष्टि। वे बाजार की प्रतिस्पर्धा से लगभग कटे हुए थे। उनका कोई चेहरा नहीं था। लिहाजा ऐसे उद्यमों के पास किसी भी औद्योगिक मंदी या अर्थव्यवस्था में सुस्ती की मार झेलने की कूवत नहीं थी। यही वजह थी कि बैंक उन्हें क्रेडिट देने से कतराते थे।
एमएसएमई को ऋण उपलब्ध कराने की प्रणाली यानी credit delivery mechanism की जो सबसे बड़ी खामी थी वह खास तौर पर लघु उधारकर्ताओं को ऋण प्राप्त करने में होने वाला विलंब था जो उनकी समस्त योजना को मटियामेट कर देता था। उन्हें ऋण हासिल होते-होते समय और लागत का भारी नुकसान हो जाया करता था। यानी इन उद्यमों पर ‘का वर्षा जब कृषि सुखानी’ वाली कहावत चरितार्थ होती थी।
अपने उद्यमों को अमलीजामा पहनाने के लिए इन एमएसएमई उद्यमियों के पास समय का सधा हुआ हिसाब-किताब नहीं होता था। इन उद्यमों के लिए वर्ष-भर में गाहे-बगाहे पड़ने वाली जरूरतों का आकलन करने और उनके लिए फंड का इंतजाम करने की दूरदर्शिता नहीं थी। एमएसएमई की इस समस्या का समाधान क्रेडिट स्कोरिंग मॉडल में ढूँढ़ा गया। इसकी चर्चा फिर कभी।
इस आलेख का विषय क्रेडिट गारंटी योजना (सीजीएस) तथा क्रेडिट गारंटी फंड ट्रस्ट (सीजीएफटी) है। दरअसल इस योजना या इस फंड का मकसद ऋण के लिए संपार्श्विक के अभाव में परेशानहाल एमएसई को इस समस्या से निजात दिलाना था। यह उधारकर्ता एमएसई और बैंक दोनों के लिए सुविधाजनक है क्योंकि इसमें दोनों को फायदा है।
ऋण गारंटी निधि योजना
यह ऋण गारंटी निधि न्यास (सीजीएफटी) के न्यास मंडल द्वारा एमएसई उद्यमों को ऋण सुविधाओं के लिए गारंटी प्रदान करने के प्रयोजन से बनाई गई एक योजना है। उक्त योजना 1 अगस्त 2000 को लागू हुई। प्रारंभ में इस योजना का आधिकारिक नाम लघु उद्योगों के लिए ऋण गारंटी निधि योजना (सीजीएफएसआई) था। सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यम विकास अधिनियम, 2006 बनने के बाद इसका नाम सूक्ष्म एवं लघु उद्योगों के लिए ऋण गारंटी निधि योजना (सीजीएसएमएसई) तथा निधि का नाम सूक्ष्म एवं लघु उद्योगों के लिए ऋण गारंटी निधि (सीजीएफटीएमएसई) हो गया।
इस न्यास की स्थापना भारत सरकार के तत्कालीन लघु उद्योग मंत्रालय तथा सिडबी ने मिलकर की थी। इस न्यास की निधि में भारत सरकार तथा सिडबी की हिस्सेदारी का अनुपात 4:1 है। सिडबी द्वारा संचालित इस न्यास का मुख्य कार्य सूक्ष्म एवं लघु उद्यम इकाइयों को बैंकिंग तथा अन्य वित्तीय संस्थाओं से ऋण प्राप्त करने के दौरान संपार्श्विक प्रतिभूति या तृतीय पक्ष की गारंटी जुटाने की समस्या से निजात दिलाना है। यह न्यास एमएसई इकाइयों को सदस्य ऋणदात्री संस्थाओं (एमएलआई) द्वारा बिना संपार्श्विक प्रतिभूति के दिए गए मीयादी ऋण अथवा कार्यशील पूंजी सुविधा के 75 प्रतिशत भाग की गारंटी देता है। शर्त यह है कि किसी भी उधारकर्ता को दिया जाने वाला अधिकतम ऋण 100 लाख रुपये से अधिक न हो। यहां यह बारीकी समझना जरूरी है कि इस योजना के तहत किसी एमएसई उधारकर्ता को 100 लाख रुपये से भी अधिक ऋण मंजूर किया जा सकता है लेकिन न्यास के गारंटी कवर के अंतर्गत शुरुआती 100 लाख रुपये का 75% अर्थात केवल 62.50 लाख रुपये ही आएंगे।
इस योजना को पूरी तरह कंप्यूटरीकृत वातावरण में संचालित किया जा रहा है। इसमें बी2बी ई-व्यापार मॉडल का प्रयोग किया गया है।
किसी एमएलआई को यह योजना शुरू करने से पहले अपने उन आंचलिक/क्षेत्रीय/शाखा कार्यालयों के नाम और पते सीजीएफटी को उपलब्ध कराने होते हैं जिनके माध्यम से वे इस योजना को संचालित करना चाहते हैं। इसके अलावा उन्हें उन कार्यालयों के एक नोडल अधिकारी सहित दो अन्य अधिकारियों के नाम एवं संपर्क व्यौरे देने होंगे। ये अपेक्षित ब्यौरे प्राप्त होने के बाद न्यास उन एमएलआई को एक सदस्य आईडी एवं पासवर्ड आबंटित करता है। उसके बाद एमएलआई गारंटी कवर के लिए आवेदन प्रस्तुत कर सकता है क्योंकि आवेदन पत्र ऑनलाइन प्रस्तुत करना अनिवार्य है।
यह न्यास एमएसई क्षेत्र के उद्यमों को सीधे गारंटी कवर नहीं दे सकता। सीजीएफटी केवल अपने पंजीकृत एमएलआई को ही गारंटी कवर देता है। सीजीटीएमएसई का पंजीकृत कार्यालय मुंबई में है और उसके व्यवसाय विकास कार्यालय नई दिल्ली तथा कोलकाता में स्थित हैं। ऋण गारंटी न्यास का संपूर्ण परिचालन ऑनलाइन होता है। इसलिए सीजीएफटी मुंबई से ही अपने सभी एमएलआई की आवश्यकताएं पूरी कर सकता है।
गारंटी शुल्क एवं वार्षिक सेवा शुल्क
1 अप्रैल 2006 से इस न्यास का एकमुश्त गारंटी शुल्क 5 लाख रुपये तक की स्वीकृत ऋण सुविधा पर 1।0 प्रतिशत तथा 5 लाख रुपये से अधिक ऋण पर 2।5 प्रतिशत से घटाकर 1.5 प्रतिशत कर दिया गया है। साथ ही, सिक्किम सहित पूर्वोत्तर क्षेत्र के एमएसएमई इकाइयों के लिए 50 लाख रुपये तक के ऋण पर एकमुश्त गारंटी शुल्क 0.75 प्रतिशत निर्धारित किया गया है। सभी मामलों में न्यास को गारंटी शुल्क का भुगतान गारंटी प्राप्त करने वाली संस्था को ऋण (कार्यशील पूंजी पर लागू नहीं) की पहली खेप के संवितरण की तारीख से 30 दिन के भीतर अथवा गारंटी शुल्क की मांग सूचना की तारीख से 30 दिन के भीतर, इनमें से जो बाद में हो, या न्यास द्वारा यथानिर्धारित तारीख के भीतर करना अनिवार्य है।
बाद में गारंटी शुल्क में कोई परिवर्तन नहीं किया जा सकता क्योंकि इसका भुगतान गारंटी कवर प्राप्त करते समय एकमुश्त किया जाता है। जहां तक वार्षिक सेवा शुल्क का संबंध है, गारंटीकृत ऋण सुविधाओं के लिए उसका भुगतान पहले वर्ष में आनुपातिक आधार पर गारंटी कवर के प्रारंभ होने की तारीख से 31 मार्च तक की स्थिति के अनुसार प्रभावी दर से किया जाता है। बाकी वर्षों के दौरान इस शुल्क की गणना 365 दिन का वर्ष मानकर किया जाता है। इस शुल्क का भुगतान गारंटी का दावा करने की तारीख से गारंटीकृत राशि के 75 प्रतिशत भुगतान की पहली किश्त के निपटान तक की अवधि के लिए करना अनिवार्य है। तथापि, प्रारंभिक अवरुद्धता अवधि की समाप्ति यानी गारंटी कवर शुरू होने की तारीख से 18 महीने अथवा ऋण के अंतिम संवितरण की तारीख से पहले, इनमें से जो भी बाद में हो, और गारंटी कवर की अवधि समाप्त होने के बाद गारंटी के लिए कोई दावा नहीं किया जा सकता।
न्यास के खाते में गारंटी शुल्क जमा होने की तारीख से गारंटी कवर प्रारंभ हो जाता है और वह मीयादी ऋण/संमिश्र ऋण की निर्धारित अवधिपर्यंत जारी रहता है। लेकिन कार्यशील पूंजी के रूप में पात्र एमएसई उधारकर्ता को प्रदान की गई ऋण सुविधा के मामले में यह कवर 5 वर्ष अथवा गारंटी कवर का नवीकरण होने के पश्चात 5-5 वर्ष की अवधि के लिए जारी रहता है बशर्ते एमएलआई 31 मार्च की स्थिति के अनुसार प्रतिवर्ष अधिकतम 31 मार्च तक वार्षिक सेवा शुल्क का भुगतान करता हो।
इस योजना के तहत ऋण सुविधा पर गारंटी केवल तभी दी जा सकती है जब ऋणदात्री संस्था ने किसी एमएसई को ऋण बिना किसी संपार्श्विक प्रतिभूति या तृतीय पक्ष की गारंटी के दिया हो। यह भी जरूरी है कि उधारकर्ता ने केवल एक संस्था से ऋण हासिल किया हो। लेकिन सिडबी, एनएसआईसी, नेडफी, एसएफसी या किसी राज्य की वित्तीय संस्था द्वारा ऋण सुविधा से लाभान्वित होने वाली एमएसई इकाइयों को किसी दूसरी वित्तीय संस्था से ऋण हासिल करने की मनाही नहीं है। वे इस स्थिति में भी इस योजना के अंतर्गत गारंटी कवर के लिए पात्र होंगी।
एमएलआई
सभी अनुसूचित वाणिज्यिक बैंक (सरकारी एवं निजी क्षेत्र के बैंक तथा विदेशी बैंक), चुनिंदा क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक तथा भारत सरकार द्वारा अनुमोदित वित्तीय संस्थाएं इस योजना के अंतर्गत गारंटी कवर की पात्र हैं। ध्यान देने की बात है कि सरकारी, निजी क्षेत्र के केवल वही बैंक तथा विदेशी बैंक एमएलआई हो सकते हैं जो अनुसूचित वाणिज्यिक बैंक हों यानी उनका नाम भारतीय रिज़र्व बैंक अधिनियम, 1934 की दूसरी अनुसूची में दर्ज होना चाहिए। इसी प्रकार केवल वे ही क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक पात्र हो सकते हैं जो नाबार्ड द्वारा धनात्मक मालियत वाले सक्षम श्रेणी में वर्गीकृत किया गया है। ऐसे पात्र क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों द्वारा एमएसई क्षेत्र के किसी एकल पात्र उधारकर्ता को मीयादी ऋण तथा/अथवा कार्यशील पूंजी सुविधा के रूप में दी गई 50 लाख रुपये तक की ऋण सुविधा इस गारंटी कवर के भीतर आएगी। इन्हें सदस्य ऋणदात्री संस्थाएं (एमएलआई) कहा जाता है। इनके अलावा भारतीय लघु औद्योगिक विकास बैंक (सिडबी), राष्ट्रीय लघु औद्योगिक निगम लि.(एनएसआईसी) तथा पूर्वोत्तर विकास वित्त लि. (एनईडीएफआई) को भी इस योजना के अंतर्गत एमएलआई के रूप में शामिल किया गया है। लेकिन अनुसूचित सहकारी बैंक, शहरी सहकारी बैंक तथा ग़ैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियां सीजीएफटी की पात्र वित्तीय संस्थाएं नहीं हैं।
प्रश्न उठता है कि कैसे कोई ऋणदात्री वित्तीय संस्था इस योजना या इस न्यास के अंतर्गत गारंटी कवर की पात्र बनती है? इसके लिए पात्र ऋणदात्री संस्था को सीजीटीएमएसई के साथ एकमुश्त समझौता करना पड़ता है। इस समझौते के बाद उस संस्था को इस न्यास की सदस्य ऋणदात्री संस्था (एमएलआई) का दर्जा मिल जाता है। इसके बाद वह संस्था किसी पात्र उधारकर्ता को मंजूर ऋण सुविधा के संबंध में न्यास से गारंटी कवर के लिए आवेदन कर सकता है। अमूमन सीजीटीएमएसई सदस्य ऋणदात्री संस्थाओं पर भरोसा रखते हुए उनके द्वारा अनुमोदित ऋण प्रस्तावों को गारंटी कवर के लिए मंजूर कर लेता है। वह उन प्रस्तावों की पुनर्समीक्षा नहीं करता। वह मानकर चलता है कि इन संस्थाओं ने अपने वाणिज्यिक कौशल और अपेक्षित सावधानी (due diligence) का प्रयोग करते हुए व्यावहारिक रूप से सक्षम प्रस्तावों को ही स्वीकार किया होगा।
पात्र उधारकर्ता
इस योजना के तहत फुटकर व्यवसाय को छोड़कर विनिर्माण तथा सेवा क्षेत्र से जुड़े नए और मौजूदा दोनों प्रकार के एमएसई उद्यम पात्र उधारकर्ता होते हैं। अद्यतन स्थिति यह है कि “प्राथमिकताप्राप्त क्षेत्र को उधार” पर भारतीय रिज़र्व बैंक के दिशानिर्देशों तथा सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यम विकास अधिनियम, 2006 के अनुसार सेवा क्षेत्र से संबद्ध फुटकर व्यापार छोड़कर सभी क्रियाकलापों के लिए इस योजना के तहत ऋण और गारंटी कवर का प्रावधान किया गया है। इस योजना के तहत लघु सड़क तथा जल परिवहन ऋण पर उनके संचालकों को भी गारंटी कवर प्रदान किया गया है।
इस योजना के अनुसार पात्र उधारकर्ता से अपेक्षित है कि वह ऋणदात्री संस्था से ऋण सुविधा हासिल करने से पहले आयकर स्थायी खाता संख्या यानी आईटी पैन प्राप्त कर ले। आयकर अधिनियम, 1961 की धारा 272(सी) के साथ पठित धारा 139ए(5) के अनुसार आयकर संबंधी सभी दस्तावेजों पर पैन नम्बर दर्शाना अनिवार्य है जिनमें विवरणी, चालान, अपील इत्यादि भी शामिल हैं। एमएसएमई क्षेत्र के छोटे उद्यमों को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से सीजीटीएमएसई फिलहाल 10 लाख रुपये तक के ऋणों के मामलों में गारंटी कवर के लिए पैन पर जोर नहीं दे रहा है। लेकिन 10 लाख रुपये से अधिक के ऋण के लिए इसकी अनिवार्यता में कोई ढील नहीं देता।
किसी पात्र एमएसई उधारकर्ता को अधिकतम 100 लाख रुपये की ऋण सुविधाएं एक अथवा एक से अधिक बैंकों तथा/अथवा एक अथवा एक से अधिक वित्तीय संस्थाओं द्वारा संयुक्त रूप तथा/अथवा अलग-अलग दी जा सकती हैं बशर्ते उक्त राशि संबंधित सदस्य ऋणदात्री संस्था अथवा न्यास द्वारा निर्धारित ऋण राशि की उच्चतम सीमा से कम हो। इस संयुक्त वित्तपोषण को गारंटी कवर प्राप्त होगा। किसी स्व-सहायता समूह को दी गई ऋण सुविधा इस गारंटी की पात्र नहीं होगी।
ऋण सुविधा
इस योजना के तहत प्रति उधारकर्ता निधि तथा गैर-निधि आधारित कुल ऋण सुविधाएं मिलाकर अधिकतम 100 लाख रुपये को गारंटी कवर दिया गया है। शर्त यह है कि ये ऋण सुविधाएं किसी एमएसएमई की परियोजना की व्यावहारिकता को ध्यान में रखकर बिना किसी संपार्श्विक अथवा तृतीय पक्षकार की गारंटी के दी गई हों। निधि आधारित ऋण सुविधा में मीयादी ऋण तथा गैर-निधि आधारित ऋण सुविधा में साख-पत्र, बैंक गारंटी आदि को शामिल किया गया है।
इस योजना के अंतर्गत किसी पात्र उधारकर्ता को 100 लाख रुपये से अधिक ऋण सुविधाएं दी जा सकती हैं बशर्ते संपूर्ण ऋण बिना किसी संपार्श्विक अथवा तृतीय पक्षकार की गारंटी के दी गई हो। फिर भी गारंटी कवर केवल 100 लाख रुपये तक ही सीमित होगा। इसका मतलब है कि न्यास मामले के अनुसार 62.50 लाख रुपये यानी 75 प्रतिशत अथवा 65.00 लाख यानी 80 प्रतिशत ऋण जोखिम ही बर्दाश्त करेगा। सामान्यत: न्यास 75 प्रतिशत ऋण जोखिम को गारंटी कवर के दायरे में समेटता है; लेकिन सूक्ष्म उद्यमों को दी गई 5 लाख रुपये की ऋण सुविधाओं को वह 85 प्रतिशत गारंटी कवर प्रदान करता है। इसके अलावा न्यास महिलाओं द्वारा संचालित तथा सिक्किम सहित पूर्वोत्तर क्षेत्र के एमएसई उद्यमों को अधिकतम 65 लाख रुपये की ऋण सुविधाओं पर 80 प्रतिशत गारंटी कवर भी देता है।
इस योजना के तहत जरूरी नहीं है कि किसी एमएलआई द्वारा किसी पात्र उधारकर्ता को ऋण सुविधा के रूप में मीयादी ऋण तथा कार्यशील पूंजी दोनों एक साथ दिया जाए। फिर भी उसे गारंटी कवर का लाभ मिलेगा। इसके अलावा किसी ऋणदात्री संस्था द्वारा संपार्श्विक के आधार पर किसी उधारकर्ता को दी गई ऋण सुविधा को भी गारंटी कवर देने का प्रावधान इस योजना में किया गया है बशर्ते वह संस्था न केवल उधारकर्ता की संपार्श्विक प्रतिभूति पर से अपना अधिकार त्याग दे बल्कि न्यास से गारंटी कवर प्राप्त करने से पहले सभी संपार्श्विक आस्तियां उधारकर्ता को सौंप दे। कुछ परिस्थितियों में यदि किसी एमएलआई के लिए संपार्श्विक प्रतिभूति को अपने पास रखना जरूरी हो और उसने उसी उधारकर्ता को नई ऋण सुविधा बिना किसी संपार्श्विक के दी हो तो उसे इस गारंटी कवर दिया जा सकता है बशर्ते एमएलआई पहले वाले संपार्श्विक को किसी भी रूप में नई ऋण सुविधा से संबद्ध न करता हो।
इस योजना से लाभान्वित होने वाले एमएसई उधारकर्ताओं के ऋणों पर ब्याज की दर भारतीय रिज़र्व बैंक के दिशानिर्देशों के अनुसार लगाई जाती है। तथापि, ब्याज दर को एमएलआई की मुख्य उधार दर (पीएलआर) से किसी भी स्थिति में 3 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए। इसमें न्यास को देय गारंटी शुल्क या वार्षिक सेवा शुल्क शामिल नहीं है।
गारंटी कवर
न्यास के खाते में गारंटी शुल्क जमा की तारीख से गारंटी कवर प्रारंभ हो जाता है और वह मीयादी ऋण/संमिश्र ऋण की निर्धारित अवधिपर्यंत जारी रहता है।
यदि कोई एमएसई इकाई इस योजना के तहत ऋण सुविधा लेने के बाद कुछ अपरिहार्य कारणों से रुग्ण इकाई हो जाती है तो एमएलआई द्वारा उसके पुनर्वास या उसे सहायता देकर वापस पटरी पर लाने के लिए दिए गए ऋण को भी योजना के अनुसार अतिरिक्त समय के लिए गारंटी कवर दिया जाएगा बशर्ते उसे दी जाने वाली वित्तीय सहायता 100 लाख रुपये की अधिकतम सीमा के भीतर हो। इसके मानदंड न्यास द्वारा निर्धारित किया जाएगा।
एमएलई द्वारा किसी पात्र एमएसई उधारकर्ता को दी गई ऋण सुविधा के संबंध में न्यास का गारंटी कवर निम्नलिखित परिस्थितियों में समाप्त हो जाएगा:
i. न्यास को बाद में यह पता चले कि एमएलआई ने किसी पात्र उधारकर्ता को संपार्श्विक अथवा तृतीय पक्षकार की गारंटी लेकर ऋण सुविधा प्रदान की है।
ii. न्यास को बाद में यह पता चले कि एमएलआई ने किसी पात्र उधारकर्ता को संपार्श्विक अथवा तृतीय पक्षकार की गारंटी लेकर दूसरी/उत्तरवर्ती ऋण सुविधा संपार्श्विक अथवा तृतीय पक्षकार की गारंटी के आधार पर मंजूर की है और उस मौजूदा ऋण सुविधा को भी उसके दायरे में लाने का काम किया है जिसके लिए पहले से उसे न्यास का गारंटी कवर प्राप्त है।
iii. न्यास को विनिर्दिष्ट समय या न्यास द्वारा बढ़ाई गई समय सीमा के भीतर वार्षिक सेवा शुल्क का भुगतान न किया गया हो।
iv. गारंटी कवर की समय सीमा समाप्त हो गई हो।
एमएलआई ऋण चुकौती में चूक होने पर गारंटी का दावा कर सकता है। तथापि, वह प्रारंभिक अवरुद्धता अवधि की समाप्ति यानी गारंटी कवर शुरू होने की तारीख से 18 महीने अथवा ऋण के अंतिम संवितरण की तारीख से पहले, इनमें से जो भी बाद में हो, और गारंटी कवर की अवधि समाप्त होने के बाद गारंटी के लिए कोई दावा नहीं कर सकता। नियमानुसार एमएलआई द्वारा किए गए दावे एवं ऋण की वसूली प्रक्रिया के विभिन्न पहलुओं से संतुष्ट होने के बाद सीजीएफटी मामले की प्रकृति के अनुसार चूक की गई राशि के गारंटीकृत अंश का 75 प्रतिशत या 80 प्रतिशत गारंटी देगा। शेष 25 प्रतिशत का भुगतान वसूली प्रक्रिया पूरी होने के बाद किया जाएगा। वसूली की पूरी जिम्मेदारी एमएलआई की होगी।
यदि किसी मामले में किसी ऋण सुविधा का कुछ अंश ईसीजीसी या किसी सरकारी या सामान्य बीमाकर्ता या बीमा, गारंटी या इंडेम्निटी का व्यवसाय करने वाले किसी व्यक्ति या व्यक्तियों के संघ द्वारा अतिरिक्त गारंटी कवर के अधीन है तो उस ऋण सुविधा का उतना अंश इस सीजीटीएमएसई योजना के अनुसार न्यास के गारंटी कवर का पात्र नहीं होगा।
लोक अदालत के अंतर्गत जारी नोटिस के आधार पर गारंटी का दावा भी किया जा सकता है और गारंटी की पहली किश्त प्राप्त भी की जा सकती है क्योंकि लोक अदालत की नोटिस को कानूनी प्रक्रिया का प्रारंभ माना जाता है। इसके ठीक विपरीत वित्तीय आस्ति प्रतिभूतिकरण और पुनर्गठन अधिनियम,2002 के अंतर्गत मात्र जारी की गई नोटिस के आधार पर गारंटी का दावा नहीं प्रस्तुत किया जा सकता। इसके लिए एमएलआई को उक्त अधिनियम की धारा 13(4) के उपबंध के अनुसार कार्रवाई करनी होगी।
प्रतीक चिह्न
सीजीटीएमएसई को जोड़ने वाली तीन नीली पट्टियां सुविधा, आशा तथा प्रेरणा को दर्शाती हैं और अग्निशिखा उस सतत सहयोग को दर्शाती जो यह न्यास उद्यमियों को खुद का उद्यम स्थापित करने का सपना साकार करने के लिए देता है।
इस अग्निशिखा के चारों तरफ पीला रंग इस न्यास द्वारा एमएसई उद्यमियों को संपार्श्विक प्रतिभूति तथा/अथवा तृतीय पक्षकार की गारंटी से चिंतामुक्त करके अपना उद्यम खड़ा करने की ऊर्जा प्रकट करता है।
CGTMSE शब्द के ऊपर का त्रिकोण औद्योगिक इकाई तथा उसकी ऊर्ध्वाधर प्रगति का प्रतीक है।
बोल कि लब़ आज़ाद हैं तेरे........
Thursday, January 5, 2012
देवरिया
कस्बों और नगरों की वैचारिकी है पत्रकारिता। उनके छोटे-बड़े सुख-दुःख का बेतरतीब सा कोलाज। देवरिया रूपक है. इस बार इसके इस पहलू का भाष्य सुशील कृष्ण गोरे ने किया है.कस्बों को केन्द्र में रखकर इस वैचारिकी का एक सिरा subaltern अध्ययन से जुड़ता है जहां हाशिए की सक्रियता की पहचान और परख है तो दूसरा सिरा पत्रकारिता के अपने इतिहास से जहां कस्बों की इस लेखा–जोखी पर अभी उपेक्षा का भाव है. यह अपने आप में एक महान उद्देश्य और जिम्मेदारी के पतन की दयनीयता पर एक गाथा भी है॥ शोध की वैचारिक सघनता और भाषा की दमक यहाँ है. (अरुण देव)
पत्रकारिता की जमीन
बाबूराव विष्णुराव पराड़कर, भारतेन्दु हरिश्चंद्र, महावीर प्रसाद द्विवेदी आदि की कर्मभूमि बनारस ने परवर्ती समय में हिन्दी के जितने पत्रकार देश को नहीं दिए उससे कहीं ज्यादा अकेले देवरिया शहर ने पैदा किए होंगे. पता नहीं कौन सी सोच इस शहर पर तारी है कि यहाँ का बच्चा-बच्चा अपने जिले के डी.एम. और पुलिस कप्तान के नाम जानता हो या न जानता हो; लेकिन एसपी, बीएसपी, बीजेपी, कांग्रेस के जिलाध्यक्ष और नगरपालिका के भूतपूर्व चेयरमैन तक के नाम बाज़ाफ्ता याद रखता है. उसके भीतर किसी शार्टकट की बदौलत जिंदगी में जल्दी से सफलता हासिल करने की एक अनजानी-सी चाहत और अबुझ प्यास अपने घर के आँगन से ही पैदा हो जाती है. जुगाड़ या शार्टकट के प्रति अगाध विश्वास उसे परंपरा से प्राप्त है.
मैंने तो इस शहर में ऐसी माएँ देखी हैं जो अनपढ़ होकर भी इस जमाने के बदलते कायदे-कानूनों से तंग आकर अपने बच्चों को भगतसिंह या गांधी नहीं; योगी आदित्यनाथ या अमर सिंह बनने के लिए ललकारती हैं. उन्हें कभी-कभी इस बात का भी मलाल होता है कि उन्हें किसी ने प्रेरित नहीं किया वर्ना वे खुद भी किसी मायावती से कम न होतीं. उत्तर प्रदेश के बाहर यह कहानी सुनाई जाए तो वहाँ के लोग बड़ी हसरत से सुनते हैं क्योंकि सुनकर उन्हें लगता है कि इस प्रदेश में बड़ा दम है. देखो! कैसे यहाँ के बच्चों को सत्ता पर पहला प्रवचन खुद उनकी माएँ देती हैं. लेकिन क्या इस राजनीतिक संस्कृति से इस प्रदेश और पूर्वाञ्चल के इस अत्यन्त गरीब और बदहाल जनपद का कोई भला हो सकता है. उत्तर अधिकतर 'नहीं' ही होगा. इसकी भी एक वजह है.
पोस्ट एल.पी.जी. (लिबरलाइजेशन, प्राइवटाइजेशन, ग्लोबलाइजेशन) दौर में अब हमारा देश आंकड़ेबाजी के आधार पर ही सही लेकिन धीरे-धीरे 'पिछड़ा' और 'विकासशील' आदि विशेषणों के केंचुल से मुक्त हो रहा है. शेयर बाजारों के सूचकांक और जीडीपी का स्तर ऊँचा हो रहा है. ग्रोथ को एक पवित्र मंत्र में ढाला जा रहा है. मॉल, मल्टिप्लेक्स, आईटी हब, नॉलेज पार्क आदि के रूप में ग्रोथ के विराट प्रतीक गढ़े जा रहे हैं. आप यहाँ रुककर समतामूलक समाज, सामाजिक न्याय, सर्वसमावेशी विकास, गरीब-अमीर, पिछड़े-अगड़े-दलित के टकराव, शहरी-ग्रामीण के तनाव बिन्दुओं का समकालीन बहस छेड़ सकते हैं. आप अगर ज्यादा अतीतग्रस्त निकले तो भारत के गाँव और उसकी खेती की शश्य-श्यामल यादें आपको रुला भी सकती हैं.
लेकिन आज बाजार सर्वेसर्वा है. कार्पोरेट एक कल्चर है. मल्टीप्लेक्स एक मंदिर है. साहित्य, संगीत, सिनेमा, कला, पत्रकारिता बाजार के स्पेस में मिथकीय उत्पाद सदृश हैं. ईश्वर की उपस्थिति भी उपभोग के आनंदोत्सव से रेखांकित हो रही है. ऐसे दौर में मोटे दिमाग से काम नहीं चलेगा. सुबह उठकर केवल 'राम-राम' का जाप और उसके बाद दिया-बाती तक घर के भीतर और घर के बाहर अमर ज्योति चौराहे पर चाय-पान की दुकानों और जमुना गली की बर्तन, सर्राफा या गल्ले की दुकानों में सेठों के सानिध्य में बैठकर मोहन से लेकर मनमोहन सिंह तक पर लंबी तकरीरें करना और फलां यादव या फलां मिसिर के चरित्रों पर केंद्रित सिर्फ निंदा-रस प्रधान बतकुच्चन जीवन के लिए घातक सिद्ध होगा. अब तक चली आ रही जीने की यह शैली जीवन की नय्या मझधार में भी फँसा सकती है.
देवरिया एक ऐसा शहर है जो आज भी अपने भदेसपन पर गर्व करता है और उस पर कुहनी टिकाए बदलते भारत को अपलक निहार रहा है. इस शहर के संस्कार में है कि वह अपने बच्चे-बच्चियों को 'रामचरितमानस' से पहले 'ईदगाह' और 'गोदान' पढ़ने के लिए देता है. यहाँ के बच्चे जितना अज्ञेय और निर्मल वर्मा को जानते हैं उतना ही कीट्स और वर्ड्सवर्थ के बारे में भी जानते हैं. यह बात दीगर है कि उन्हें अपने अँग्रेजी अध्यापक की तरह अँग्रेजी बोलना नहीं आता है क्योंकि उनको तो कोर्स में शेक्सपियर और मिल्टन की कविताएँ भी हिन्दी में ही पढ़ाई गईं हैं. बेशक उन्हें अँग्रेजी कम आती है और वे अँग्रेजी के अखबार नहीं पढ़ते हैं. लेकिन ऐसा नहीं कि 'तीसरे पेज' की दिलकश खब़रों से उनका कोई वास्ता ही नहीं.
बगल के बैकुंठपुर, बैतालपुर और रामपुर कारखाना से रोजाना साइकिल पर बैठकर देवरिया में कानून या कृषि की पढ़ाई करने आने वाले पचासों छात्रों के खुरदरे चेहरे और शर्ट की ट्विस्टेड कॉलर पर मत जाइए. ऊपर से आपको वे रूखे और साहित्य-संगीत-कलाविहीन टाइप के लग सकते हैं. लेकिन उभारा जाए तो हरेक के भीतर गुरुदत्त की सौंदर्य-दृष्टि और बलराज साहनी की सिनेमैटिक रूमानियत के दर्शन हो जाएंगे.
अंग्रेजी में कमजोर होने के बावज़ूद यहाँ पराक्रमी पाठकों का एक महादेश बसता है. अपने समस्त अभावों और अपने ऊपर लगाए गए समस्त लांछनों के बावजूद अखबार और पत्रिकाएँ पढ़ने के मामले में हिन्दी हार्टलैंड या तथाकथित बीमारू राज्य या काउबेल्ट का भूगोल राष्ट्रीय स्तर पर सबसे आगे है. टाउन हाल और नागरी प्रचारिणी सभा के आर्यभाषा पुस्तकालय का फेरा लगाने वाले विद्यार्थी भी यहाँ हैं जिनकी भूखी निगाहें आई.ए.एस., पी.सी.एस. के लिए जनरल नॉलेज की तलाश करते-करते बालीवुड तो क्या, इंटरनेशनल पेज पर छपी हालीवुड की अर्द्धनग्न अदाकाराओं की नयनाभिराम तस्वीरों का भी सर्वेक्षण करती रहती हैं.
यह जेननेक्स्ट 'निग़ाहें मिलाने को जी चाहता है' के तरन्नुम में पामेला एंडरसन, शकीरा, ब्योएंस, मिली साइरस से लगाए एंजिलिना जोली और प्रियंका, कैटरीना, दीपिका और करीना जैसी अपनी ‘हार्ट्थ्राब्स’ के नाम एक सांस में गिना सकता है. एक प्रकार से यह कहा जा सकता है कि देवरिया के यंगिस्तान में सौन्दर्य और साहित्य का तो बोध है लेकिन इंस्टन्ट युगबोध नहीं. उनमें घर किया 'जुगाड़ का सिद्धांत' उन्हें समय की ऊर्जा से जुडने नहीं देता. वह दक्षिण और पश्चिम के राज्यों के स्किल, इंटरप्राइज और मैनेजमेंट के मंत्रों को अपने भीतर विकसित नहीं कर पाता. उसे नगर की स्काईलाइन पर सदियों से लटकी फंतासियों में जीने की जिद है.
ब्यूरो प्रमुख का अंडरवर्ल्ड और अख़बारों से टूटकर गिरी उत्तुंग प्रतिबद्धताएं
इस युवा को देवरिया में उजड़े-से अंधेरे-बंद कमरों में बने अखबारों के ब्यूरो कार्यालय सत्ता के केंद्र लगते हैं और वहाँ से टूटी-फूटी कुर्सी पर बीड़ी-सिगरेट के टुकड़ों के अंबार के बीच बैठकर डी.एम., एस.पी. और एम.पी., एम.एल.ए. से सीधे फोन पर शान से बात करता बी.ए. पास पत्रकार किसी नायक से कम नहीं लगता. वह पत्रकार की हैसियत को रोमैंटिसाइज़ करने लगता है और कचहरी रोड स्थित ब्यूरो कार्यालयों को लोकल सत्ता के ऐसे गलियारे मानने लगता है जहाँ से पार्षद से लगाय पार्लियामेंटेरियन तक की कुंडलियाँ बनाई और बिगाड़ी जाती हैं. वह देखता है कि चपरासी और ड्राइवर बनने की योग्यता जुटाने से अच्छा तो यही है कि देवरिया का पत्रकार बन जाओ.
यदि कोई बड़ा बैनर अपने किसी ब्लाक, तहसील या जिला मुख्यालय कार्यालय से अटैच न भी करे तो चार पेज का साप्ताहिक खुद निकालकर उसका प्रबंध संपादक बनने का अवसर भी हाथ से गया नहीं है. जिस कलेक्टर को कलेक्टर बनने में एड़ी से पसीने छूटे होंगे वह भी देवरिया में इन पत्रकारों के हुक्म को नज़रअंदाज नहीं कर सकता. उसे इनके बच्चों के जनेऊ, बर्थडे, शादी-ब्याह इत्यादि के कार्यक्रमों में अपनी नीली बत्ती वाली गाड़ी में ब्यूरो चीफ के घर पधारना ही पड़ता है; क्योंकि वह देवरिया में पोस्टिंग मिलते ही ताड़ लेता है कि इन तथाकथित वरिष्ठ पत्रकारों और ब्यूरो प्रमुखों के तार भूत, भविष्य और वर्तमान के सभी विधायक और सांसदों के साथ जुड़े हैं. पार्टी कोई भी हो उस पत्रकार की पहुँच उसके सुप्रीमो तक है. बराबर दूरी पर उसके रिश्ते सभी के साथ हैं. स्थानीय गुंडे, शहर के धन्नासेठ, जिला पंचायत अध्यक्ष, नगर पालिका चेयरमैन, तहसीलदार, ट्रैफिक पुलिस, रेलवे आरक्षण केंद्र का बाबू, शराब का ठेकेदार, मुर्गा-मछ्ली के विक्रेता और शहर के सभी स्कूल-कालेजों के प्रिन्सिपल सब इनके हुक्म के तावेदार होते हैं. इस प्रकार आप देखेंगे कि ब्यूरोक्रेसी की नाक में नकेल डालने वाले एक प्रभुवर्ग के रूप में पत्रकारों की एक नई शक्तिपीठ यानी journacracy का उभार देवरिया में बहुत पहले हो गया था. फिर ऐसे प्रोफेसन के प्रति यहाँ की नई पीढ़ी का दुर्निवार आकर्षण आखिर क्यों न हो?
यहाँ के पत्रकार शिरोमणियों को भारत सरकार के औद्योगिक विवाद अधिनियम, वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट, 1955, पालेकर वेज बोर्ड, बछावत आयोग, मणिसाना वेतन आयोग, आईएनएस, एटिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया, इंडियन प्रेस काउंसिल इत्यादि का ज्ञान भले ही न हो लेकिन वे लोकल दाँवपेंच से न केवल गोरखपुर, लखनऊ, बनारस, इलाहाबाद के अख़बारों के संवाददाता या ब्यूरो प्रमुख की हैसियत हथिया लेते हैं बल्कि कुछ तो प्रिंसीपली, बीमा कंपनियों की एजंटई आदि के अपने मूल पेशे के समानांतर दिल्ली तक के अख़बारों से स्ट्रिंगर का बिल्ला झटककर उसे हमेशा अपनी जेब में डालकर और उसके सम्यक परिचय का स्टिकर अपनी मोटर साइकिल और कार पर भी चिपकाकर जिला कलेक्ट्रेट, नगर पालिकाओं, जिला सूचना निदेशक के दफ्तर से लेकर नगर सेठों के प्रतिष्ठानों के चक्कर लगाते रहते हैं. चूँकि पूर्वी उत्तर प्रदेश के इस अंचल में रोजी-रोजगार, मिल-फैक्टरियों का आदिम अभाव है और बीपीओ, मॉल-मल्टीप्लेक्स के आगमन के केवल बेबीस्टेप्स ही दिखाई दे रहे हैं इसलिए समाचार पत्र-समूहों को सस्ते में पत्रकारों की एक पूरी पीढ़ी द्वारपूजा के लिए हमेशा तैयार खड़ी मिलती है.
ऐसे में पत्रकारिता यहाँ न तो कोई मिशन है और न ही धर्मसंस्थापनार्थाय: बल्कि वह सर्वाइवल के संकट से उबारने वाले ब्रह्मास्त्र का प्रतीक है. यह रोजी में बरकत का साधन सिद्ध करने वाली कलियुगी पत्रकारिता में रिड्युस होकर रह गई है. 'पेड न्यूज' देश के लिए भले ही एक नई सनसनी हो लेकिन देवरिया में इसका देहाती फार्मूला दशकों से चल रहा है. इसका आविर्भाव कुर्ता-पाजामा शुल्क से शुरू हुआ था जिसकी परंपरा यदि इन दिनों परवान चढ़कर राडियावाद के नए गुल खिला रही हो तो कोई आश्चर्य नहीं. लाइजनिंग या लॉबिइंग तो दिल्ली की इलिट और अंग्रेजी पत्रकारिता से नि:सृत शब्द हैं लेकिन ग़ौर से तहें उठाकर देखा जाए तो देवरिया की पत्रकारिता में भी पुरुष नीरा राडियाओं और दिल्ली-मुंबई के सेटेब्रिटी पत्रकारों जैसे न जाने कितने चरित नायक सक्रिय रहे हैं जो स्वाधीनता संघर्ष और सामाजिक-राजनीतिक बदलाव में काम आई पत्रकारिता की इस मशाल की आग में अपने न्यस्त स्वार्थों की रोटियाँ सेंकते रहे हैं. लोकतंत्र के इस चौथे स्तंभ को अपना पता बताकर सत्ता और कॉरपोरट के गलियारों से राज्यसभा का टिकट, आदर्श हाउसिंग सोसाइटी, डीडीए के फ्लैट का जुगाड़ करने, राजधानियों में पत्रकारपुरम बसाने, प्रेस क्लब चलाने के फायदे हासिल करने वाले धुरंधर खिलाड़ियों के नाम बेशुमार हैं.
20 साल पहले देवरिया की पत्रकारिता में फिर भी एक तेवर था जो आज लुंपेन एलीमेंट के हाथों में पड़कर जनमन से एकदम कट गई है. तब यहाँ से ग्राम स्वराज, आकाश मार्ग, पावानगर टाइम्स, दिल्ली देवरिया टाइम्स, युग वातायन, जनचक्षु जैसे अनेक साप्ताहिक और पाक्षिक निकल रहे थे जो अपनी तमाम सीमाओं के बावज़ूद जनभावनाओं के दर्पण थे. तह वह दौर था जब देवरिया की धरती पर अखबारों का इतना मशरूम ग्रोथ हुआ कि उसके आगे लखनऊ और दिल्ली का मुँह शर्मा जाए. लेकिन पेशे से प्राध्यापक टाइप के कुछ आदर्शवादी पत्रकारों के कारण देवरिया कि पत्रकारिता पर दाग नहीं लगने पाया. तब अखबारों के मालिक और संपादकों का प्रच्छन्न सरोकार व्यावसायिक होने के बावज़ूद निर्लज्ज ठेकेदारी नहीं थी. आप यह भी कह सकते हैं कि अखबार निकालने वाले धन्नासेठों के सामने व्यवसाय के इतने विराट अवसर उपलब्ध नहीं थे. अन्यथा उनमें किसी तिलक या किसी गोखले की राष्ट्रवादी चेतना अनुस्यूत नहीं थी. वे कोई उदंत मार्तण्ड तो नहीं निकाल रहे थे लेकिन फिर भी वे इस पिछड़े जनपद के परिदृश्य पर दैनिक अख़बारों का एक नया अध्याय तो लिख ही रहे थे.
उस ज़माने में अखबारों के बीच जो भी प्रतिस्पर्धा थी वह अखबारों की आइडियोलॉजी और उसमें छपे कंटेन्ट के आधार पर होती थी. विज्ञापन का बोझ पत्रकारों को नहीं उठाना पड़ता था. देवरिया शहर और जिले की इकॉनमी में व्यापार ज़िंदगी की निहायत जरूरी चीजों तक ही सीमित था. उस समय पाठक अखबार में समाचार के बाद देवरिया के नैना, विजय और अमर ज्योति टाकीजों में चल रही फिल्मों के नाम ढूँढ़ता था. यह अलग बात है कि उस समय के माँ-पिताओं को अपने लिए सत्यम-शिवम-सुंदरम, एक ही भूल या इंसाफ का तराजू या राम तेरी गंगा मैली अश्लील फिल्में नहीं लगती थीं; लेकिन बच्चों के लिए वे जय संतोषी माँ ही निर्धारित करते थे. सोचिए! उस दौर के जीवित माँ-पिताओं पर क्या बीतता होगा जब उनकी आँखों के सामने ही उनके नाती-पोते "मुन्नी बदनाम हुई" या "शीला की जवानी" सुनते-देखते बड़े हो रहे हैं.
तब उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल के कॉलेजों या बनारस, इलाहाबाद या गोरखपुर विश्वविद्यालयों से बी.ए./एम.ए. करके निकले ज्यादातर मूलत: प्राध्यापक पत्रकार लॉबिइस्ट नहीं थे. वे एक 'जस्ट लिबरेटेड' देश के शायद पहले तरुण थे. इसलिए उनमें स्वाधीनता आंदोलन के ज़ज्बे का तेवर था. लेकिन उनमें से ज्यादातर के ज़हन में आजादी की लड़ाई की धुँधली छवियाँ मात्र थीं अर्थात् उनकी वैचारिकी के निर्माण के साथ स्वाधीनता के संघर्ष के प्रत्यक्ष अनुभवों या उसमें उनकी किसी भूमिका का सीधा जुड़ाव नहीं था. लेकिन वह संयोग से आजादी के बाद की ढलान पर सबसे ताजा और अद्यतन पीढ़ी थी. आंदोलन का पहला तीव्र संस्कार उनमें जिस स्रोत से आया था वह जे.पी.मूवमेंट था. संपूर्ण क्रांति का पैशन पहली बार देवरिया के इन बुद्धिजीवी पत्रकारों में आपादमस्तक संचरित हुआ था. वे हर सरकारी दमन के प्रतिरोध और विद्यमान परिस्थितियों में मुकम्मल हस्तक्षेप के आदर्शीकृत रोलमॉडल बनते जा रहे थे. इमरजंसी या आपातकाल अगर देश के लिए एक दु:स्वप्न था तो यह देवरिया की पत्रकारिता के लिए भी किसी अग्निपरीक्षा से कम नहीं था. सरकारी मशीनरी ने 'मीसा' की जकड़न जितनी तेज की देवरिया के पत्रकार उसके खिलाफ़ कमांडो या मार्कोस की तरह उतनी ही तेज कार्रवाई करने के लिए जाने गए. मुझे थोड़ा-बहुत याद आता है कि इन पत्रकारों की लेखनी को तेजस्वी धार देने के लिए पर्दे के पीछे बाकायदा एक इंटेलिजेंसिया ग्रुप भी काम कर रहा था.
तुम मुझे पत्रकार दो और मैं तुम्हें.... यानी हर घर से एक पत्रकार
दैनिक जागरण के गोरखपुर संस्करण के आगमन के बाद इस क्षेत्र की पत्रकारिता में एक नया मोड़ भी आया और रफ्तार भी. समाचार का महत्व देवरिया के लोगों को सबसे पहले इसी अख़बार को पढ़कर समझ में आया. देवरिया से जिस प्राध्यापक को इसका पहला जिला संवाददाता नियुक्त किया गया था, मुझे याद उस व्यक्ति ने स्वयँ अपनी साइकिल पर लेई का डिब्बा टांगकर और "खुल गया"... "खुल गया…" टाइप के छोटे-छोटे पोस्टर लेकर रात के अंधेरों में शहर की दीवारों पर उन्हें चिपकाया था. इस अख़बार को जो शुरूआती लोकप्रियता हासिल हुई उसी की विरासत या यूँ भी कह सकते हैं कि उसके साथ एक बार पनपा मोह ही है जिसके बल पर आज भी यह अख़बार नंबर वन की पोजिशन में बना हुआ है.
इसका रहस्य समझने के लिए अगर ग़ौर से पीछे देखा जाए तो हम पाएंगे कि प्रारंभ में यह अख़बार लोगों के साथ सुख-दुख का एक रिश्ता कायम करने में सफल हो गया. वह शहर के प्रतिष्ठित घरों में होने वाली शादियों को समाचार बनाकर फोटो के साथ छापता था. किसी घर से किसी लड़के या लड़की ने 10वीं या 12वीं बोर्ड की परीक्षा में प्रथम श्रेणी मार ली तो उसका छोटा प्रोफाइल फोटो के साथ दैनिक जागरण में छपना तय था. किसी की दुकान या नए होटल या नए व्यावसायिक प्रतिष्ठान के खुलने पर जिला कलेक्टर या माननीय विधायक के कर-कमलों से फीता कटते फोटो के साथ समाचार लगाने में भी यह अव्वल निकला. बाकी छात्र संघों और तमाम राजनीतिक दलों के छोटे से छोटे और उभरते नेताओं की प्रेस-विज्ञप्तियों का भी यहाँ सम्मान था. मानना पड़ेगा इस अख़बार ने कइयों का पोलिटिकल रोडमैप तैयार किया. श्री कृष्ण श्रीवास्तव, महेश अश्क, डॉ.सदाशिव द्विवेदी के हाथों में इसका संपादकीय नेतृत्व और समाचार लेखन हुआ करता था.
जागरण की तर्ज़ पर आज, राष्ट्रीय सहारा और स्वतंत्र चेतना के गोरखपुर संस्करण भी रेस में शामिल थे. बिहार, नेपाल और उत्तर प्रदेश के त्रिकोण पर हर साल नारायणी नदी अपना कहर ढाती थी. पूरे क्षेत्र में जलप्रलय और गरीब ग्रामीण जनता की बेइंतहा मुसीबतें देवरिया से पत्रकारों के झुंड के लिए जिला सूचना अधिकारी के इंतजाम से गाड़ियों में बैठकर नेपाल की सीमा पर बाल्मिकी नगर तक की यात्रा का एक अवसर होती थीं. वे पानी से घिरे गांवों और गांववालों की त्रासदी नोट करते थे और दूसरे दिन की फ्रंट पेज खबरें बनाते थे. तब डी.एम. साहब भी पत्रकारों के साथ आग या बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों का दौरा करते थे.
देवरिया से निकलने वाले साप्ताहिकों के कई पत्रकार तो संपादक-प्रकाशक-लेखक-प्रूफरीडर-टाइपसेटर-हॉकर और अंत में स्वत्वाधिकारी सब कुछ को मिलाकर एक पैकेज पत्रकार के रूप में कार्य करते थे. इन ऑल-इन-वन टाइप पत्रकारों के लिए तो सरकारी गाड़ी से बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों का दौरा करने के बहाने लार-सलेमपुर या नेबुआ नौरंगिया जाना एक जबरदस्त आत्ममुग्धावस्था में पहुंचने के बराबर होता था. जिलाधीश उनके लिए किसी जिल्लेइलाही से कम नहीं होता था. यह पत्रकारिता में रोमांच की गुदगुदी का दौर था. अन्यथा क्यों एक ही आदमी ऑल-इन-वन बनकर चार पेज का ही सही लेकिन एक अखबार छापने के जुनून से भरा रहता; वही लिखता था, मिटाता था, संपादित करता था, प्रूफ पढ़ता था और अंत में बंडल बनाकर साइकिल के कैरियर में दबाकर बांस देवरिया, कचहरी चौराहा से लेकर राम गुलाम टोला तक में हॉकर की तरह अपना अख़बार बाँटता भी था. यानी हर कीमत पर एक पत्रकार.
देवरिया ऐसे पत्रकारों की नर्सरी था. ढेर सारे अख़बार थे. ढेरों पत्रकार थे. उनके बीच शहर में लॉयन, लियो, रोटरी और इंटरैक्ट क्लब थे. इन क्लबों के अधिवेशन थे. टाउन हॉल के पीछे या जिला परिषद के सभागार में होने वाले उनके पदग्रहण समारोह थे. उस जमाने में क्लब में आने वाली कुलीन घराने की सुंदर और सुरुचिसंपन्न औरतें थीं जिन्हें नजदीक से देखना हिंदी के पत्रकारों के लिए एक रचनात्मक थ्रिल हुआ करता था. चूंकि क्लबों के संपन्न और रसूख वाले दंपतियों को कलेक्टर और एस.पी. के साथ खड़ा होकर अपने चमकदार चेहरों को अखबार में प्रकाशित करवाने का शौक था इसलिए वे नगर के सभी छोटे-बड़े पत्रकारों को अपने कार्यक्रमों में बुलाते थे और उन्हें लजीज दावत भी खिलाते थे. इसी तरह के क्षणभंगुर सुखों की मृगमरीचिका से होकर देवरिया की साठोत्तरी पत्रकारिता का कारवां गुजरा है. उसका यथार्थ उसका पैशन था और उसकी तलाश में एक यूटोपिया. वह बंजारा मन की पत्रकारिता थी. उसमें एक मुद्दे पर ठहराव का धीरज नहीं था.
उसमें त्वरा थी. आवेग था. उसमें ज्यादा जोड़तोड़, गठबंधन या समझौतों की चालाकियां भी नहीं थीं. वह एक बनती हुई विधा थी. उसमें प्रोफेशनलिज्म का तड़का नहीं था. उन दिनों देवरिया के पत्रकार चुनी हुई चुप्पियां ओढ़ने की बज़ाय राजीव गांधी सरकार के मानहानि विधेयक और जिले के किसी भी पत्रकार के साथ किसी थानेदार द्वारा गलती से भी की गई किसी भी बदसुलूकी को गंभीरता से नोट करते थे और राजीव गांधी तथा थानेदार के खिलाफ़ संग्राम छेड़ने में कोई भेदभाव नहीं किया करते थे. वे जिला पत्रकार संघ, देवरिया प्रेस क्लब, जिला श्रमजीवी पत्रकार संघ इत्यादि का संयुक्त मोर्चा बनाकर शासन-प्रशासन से आरपार की लड़ाई लड़ने की मुद्रा में आ जाते थे. आज के अंतर्कलह, लंगीबाजी, टांग खिचौवल में माहिर, विघ्नसंतोषी और समीकरण बैठाने में उस्ताद ब्यूरो प्रमुखों को तो सिर्फ़ एक ही चिंता सताती रहती है कि कोई उनकी कुर्सी खिसकाने की साजिश तो नहीं रच रहा है. ये सभी अपने को किसी वेद प्रताप वैदिक, राम बहादुर राय, राहुल देव से कमतर नहीं समझते. इन दिनों जिस तामझाम से इन मठाधीश पत्रकारों की सवारी नगर के बीच से गुजरती है उसका प्रताप उनमें एक सत्ता-बोध और एक शक्ति-संस्था होने का आत्मदर्प भरता है...
आप इस नगर में कभी आएं तो कचहरी रोड या सिविल लाइन्स जरूर जाएं. वहां राजेन्दर पानवाले और तिवारी पानवाले की चार हाथ की दूरी पर अगल-बगल दुकानें हैं जिनके बीच फैले तनाव और आपसी जलन का कत्था-चूना बिखरा हुआ आपको अवश्य मिल जाएगा. हर पल एक खतरा उमड़ता रहता है - कब किस बात पर दोनों के बीच पानीपत खड़ा हो जाए कोई नहीं जानता. यहां आपको पान खाने वालों से ज्यादा पान की दुकानें और अख़बार से ज्यादा पत्रकार विचरण करते मिलेंगे. यह देवरिया का बहादुर शाह जफ़र मार्ग है. कुछ लोग पान और पत्रकारिता के इसी ओवरडोज के आधार पर नगर को डुप्लिकेट काशी भी कहते हैं.
कस्बों और नगरों की वैचारिकी है पत्रकारिता। उनके छोटे-बड़े सुख-दुःख का बेतरतीब सा कोलाज। देवरिया रूपक है. इस बार इसके इस पहलू का भाष्य सुशील कृष्ण गोरे ने किया है.कस्बों को केन्द्र में रखकर इस वैचारिकी का एक सिरा subaltern अध्ययन से जुड़ता है जहां हाशिए की सक्रियता की पहचान और परख है तो दूसरा सिरा पत्रकारिता के अपने इतिहास से जहां कस्बों की इस लेखा–जोखी पर अभी उपेक्षा का भाव है. यह अपने आप में एक महान उद्देश्य और जिम्मेदारी के पतन की दयनीयता पर एक गाथा भी है॥ शोध की वैचारिक सघनता और भाषा की दमक यहाँ है. (अरुण देव)
पत्रकारिता की जमीन
बाबूराव विष्णुराव पराड़कर, भारतेन्दु हरिश्चंद्र, महावीर प्रसाद द्विवेदी आदि की कर्मभूमि बनारस ने परवर्ती समय में हिन्दी के जितने पत्रकार देश को नहीं दिए उससे कहीं ज्यादा अकेले देवरिया शहर ने पैदा किए होंगे. पता नहीं कौन सी सोच इस शहर पर तारी है कि यहाँ का बच्चा-बच्चा अपने जिले के डी.एम. और पुलिस कप्तान के नाम जानता हो या न जानता हो; लेकिन एसपी, बीएसपी, बीजेपी, कांग्रेस के जिलाध्यक्ष और नगरपालिका के भूतपूर्व चेयरमैन तक के नाम बाज़ाफ्ता याद रखता है. उसके भीतर किसी शार्टकट की बदौलत जिंदगी में जल्दी से सफलता हासिल करने की एक अनजानी-सी चाहत और अबुझ प्यास अपने घर के आँगन से ही पैदा हो जाती है. जुगाड़ या शार्टकट के प्रति अगाध विश्वास उसे परंपरा से प्राप्त है.
मैंने तो इस शहर में ऐसी माएँ देखी हैं जो अनपढ़ होकर भी इस जमाने के बदलते कायदे-कानूनों से तंग आकर अपने बच्चों को भगतसिंह या गांधी नहीं; योगी आदित्यनाथ या अमर सिंह बनने के लिए ललकारती हैं. उन्हें कभी-कभी इस बात का भी मलाल होता है कि उन्हें किसी ने प्रेरित नहीं किया वर्ना वे खुद भी किसी मायावती से कम न होतीं. उत्तर प्रदेश के बाहर यह कहानी सुनाई जाए तो वहाँ के लोग बड़ी हसरत से सुनते हैं क्योंकि सुनकर उन्हें लगता है कि इस प्रदेश में बड़ा दम है. देखो! कैसे यहाँ के बच्चों को सत्ता पर पहला प्रवचन खुद उनकी माएँ देती हैं. लेकिन क्या इस राजनीतिक संस्कृति से इस प्रदेश और पूर्वाञ्चल के इस अत्यन्त गरीब और बदहाल जनपद का कोई भला हो सकता है. उत्तर अधिकतर 'नहीं' ही होगा. इसकी भी एक वजह है.
पोस्ट एल.पी.जी. (लिबरलाइजेशन, प्राइवटाइजेशन, ग्लोबलाइजेशन) दौर में अब हमारा देश आंकड़ेबाजी के आधार पर ही सही लेकिन धीरे-धीरे 'पिछड़ा' और 'विकासशील' आदि विशेषणों के केंचुल से मुक्त हो रहा है. शेयर बाजारों के सूचकांक और जीडीपी का स्तर ऊँचा हो रहा है. ग्रोथ को एक पवित्र मंत्र में ढाला जा रहा है. मॉल, मल्टिप्लेक्स, आईटी हब, नॉलेज पार्क आदि के रूप में ग्रोथ के विराट प्रतीक गढ़े जा रहे हैं. आप यहाँ रुककर समतामूलक समाज, सामाजिक न्याय, सर्वसमावेशी विकास, गरीब-अमीर, पिछड़े-अगड़े-दलित के टकराव, शहरी-ग्रामीण के तनाव बिन्दुओं का समकालीन बहस छेड़ सकते हैं. आप अगर ज्यादा अतीतग्रस्त निकले तो भारत के गाँव और उसकी खेती की शश्य-श्यामल यादें आपको रुला भी सकती हैं.
लेकिन आज बाजार सर्वेसर्वा है. कार्पोरेट एक कल्चर है. मल्टीप्लेक्स एक मंदिर है. साहित्य, संगीत, सिनेमा, कला, पत्रकारिता बाजार के स्पेस में मिथकीय उत्पाद सदृश हैं. ईश्वर की उपस्थिति भी उपभोग के आनंदोत्सव से रेखांकित हो रही है. ऐसे दौर में मोटे दिमाग से काम नहीं चलेगा. सुबह उठकर केवल 'राम-राम' का जाप और उसके बाद दिया-बाती तक घर के भीतर और घर के बाहर अमर ज्योति चौराहे पर चाय-पान की दुकानों और जमुना गली की बर्तन, सर्राफा या गल्ले की दुकानों में सेठों के सानिध्य में बैठकर मोहन से लेकर मनमोहन सिंह तक पर लंबी तकरीरें करना और फलां यादव या फलां मिसिर के चरित्रों पर केंद्रित सिर्फ निंदा-रस प्रधान बतकुच्चन जीवन के लिए घातक सिद्ध होगा. अब तक चली आ रही जीने की यह शैली जीवन की नय्या मझधार में भी फँसा सकती है.
देवरिया एक ऐसा शहर है जो आज भी अपने भदेसपन पर गर्व करता है और उस पर कुहनी टिकाए बदलते भारत को अपलक निहार रहा है. इस शहर के संस्कार में है कि वह अपने बच्चे-बच्चियों को 'रामचरितमानस' से पहले 'ईदगाह' और 'गोदान' पढ़ने के लिए देता है. यहाँ के बच्चे जितना अज्ञेय और निर्मल वर्मा को जानते हैं उतना ही कीट्स और वर्ड्सवर्थ के बारे में भी जानते हैं. यह बात दीगर है कि उन्हें अपने अँग्रेजी अध्यापक की तरह अँग्रेजी बोलना नहीं आता है क्योंकि उनको तो कोर्स में शेक्सपियर और मिल्टन की कविताएँ भी हिन्दी में ही पढ़ाई गईं हैं. बेशक उन्हें अँग्रेजी कम आती है और वे अँग्रेजी के अखबार नहीं पढ़ते हैं. लेकिन ऐसा नहीं कि 'तीसरे पेज' की दिलकश खब़रों से उनका कोई वास्ता ही नहीं.
बगल के बैकुंठपुर, बैतालपुर और रामपुर कारखाना से रोजाना साइकिल पर बैठकर देवरिया में कानून या कृषि की पढ़ाई करने आने वाले पचासों छात्रों के खुरदरे चेहरे और शर्ट की ट्विस्टेड कॉलर पर मत जाइए. ऊपर से आपको वे रूखे और साहित्य-संगीत-कलाविहीन टाइप के लग सकते हैं. लेकिन उभारा जाए तो हरेक के भीतर गुरुदत्त की सौंदर्य-दृष्टि और बलराज साहनी की सिनेमैटिक रूमानियत के दर्शन हो जाएंगे.
अंग्रेजी में कमजोर होने के बावज़ूद यहाँ पराक्रमी पाठकों का एक महादेश बसता है. अपने समस्त अभावों और अपने ऊपर लगाए गए समस्त लांछनों के बावजूद अखबार और पत्रिकाएँ पढ़ने के मामले में हिन्दी हार्टलैंड या तथाकथित बीमारू राज्य या काउबेल्ट का भूगोल राष्ट्रीय स्तर पर सबसे आगे है. टाउन हाल और नागरी प्रचारिणी सभा के आर्यभाषा पुस्तकालय का फेरा लगाने वाले विद्यार्थी भी यहाँ हैं जिनकी भूखी निगाहें आई.ए.एस., पी.सी.एस. के लिए जनरल नॉलेज की तलाश करते-करते बालीवुड तो क्या, इंटरनेशनल पेज पर छपी हालीवुड की अर्द्धनग्न अदाकाराओं की नयनाभिराम तस्वीरों का भी सर्वेक्षण करती रहती हैं.
यह जेननेक्स्ट 'निग़ाहें मिलाने को जी चाहता है' के तरन्नुम में पामेला एंडरसन, शकीरा, ब्योएंस, मिली साइरस से लगाए एंजिलिना जोली और प्रियंका, कैटरीना, दीपिका और करीना जैसी अपनी ‘हार्ट्थ्राब्स’ के नाम एक सांस में गिना सकता है. एक प्रकार से यह कहा जा सकता है कि देवरिया के यंगिस्तान में सौन्दर्य और साहित्य का तो बोध है लेकिन इंस्टन्ट युगबोध नहीं. उनमें घर किया 'जुगाड़ का सिद्धांत' उन्हें समय की ऊर्जा से जुडने नहीं देता. वह दक्षिण और पश्चिम के राज्यों के स्किल, इंटरप्राइज और मैनेजमेंट के मंत्रों को अपने भीतर विकसित नहीं कर पाता. उसे नगर की स्काईलाइन पर सदियों से लटकी फंतासियों में जीने की जिद है.
ब्यूरो प्रमुख का अंडरवर्ल्ड और अख़बारों से टूटकर गिरी उत्तुंग प्रतिबद्धताएं
इस युवा को देवरिया में उजड़े-से अंधेरे-बंद कमरों में बने अखबारों के ब्यूरो कार्यालय सत्ता के केंद्र लगते हैं और वहाँ से टूटी-फूटी कुर्सी पर बीड़ी-सिगरेट के टुकड़ों के अंबार के बीच बैठकर डी.एम., एस.पी. और एम.पी., एम.एल.ए. से सीधे फोन पर शान से बात करता बी.ए. पास पत्रकार किसी नायक से कम नहीं लगता. वह पत्रकार की हैसियत को रोमैंटिसाइज़ करने लगता है और कचहरी रोड स्थित ब्यूरो कार्यालयों को लोकल सत्ता के ऐसे गलियारे मानने लगता है जहाँ से पार्षद से लगाय पार्लियामेंटेरियन तक की कुंडलियाँ बनाई और बिगाड़ी जाती हैं. वह देखता है कि चपरासी और ड्राइवर बनने की योग्यता जुटाने से अच्छा तो यही है कि देवरिया का पत्रकार बन जाओ.
यदि कोई बड़ा बैनर अपने किसी ब्लाक, तहसील या जिला मुख्यालय कार्यालय से अटैच न भी करे तो चार पेज का साप्ताहिक खुद निकालकर उसका प्रबंध संपादक बनने का अवसर भी हाथ से गया नहीं है. जिस कलेक्टर को कलेक्टर बनने में एड़ी से पसीने छूटे होंगे वह भी देवरिया में इन पत्रकारों के हुक्म को नज़रअंदाज नहीं कर सकता. उसे इनके बच्चों के जनेऊ, बर्थडे, शादी-ब्याह इत्यादि के कार्यक्रमों में अपनी नीली बत्ती वाली गाड़ी में ब्यूरो चीफ के घर पधारना ही पड़ता है; क्योंकि वह देवरिया में पोस्टिंग मिलते ही ताड़ लेता है कि इन तथाकथित वरिष्ठ पत्रकारों और ब्यूरो प्रमुखों के तार भूत, भविष्य और वर्तमान के सभी विधायक और सांसदों के साथ जुड़े हैं. पार्टी कोई भी हो उस पत्रकार की पहुँच उसके सुप्रीमो तक है. बराबर दूरी पर उसके रिश्ते सभी के साथ हैं. स्थानीय गुंडे, शहर के धन्नासेठ, जिला पंचायत अध्यक्ष, नगर पालिका चेयरमैन, तहसीलदार, ट्रैफिक पुलिस, रेलवे आरक्षण केंद्र का बाबू, शराब का ठेकेदार, मुर्गा-मछ्ली के विक्रेता और शहर के सभी स्कूल-कालेजों के प्रिन्सिपल सब इनके हुक्म के तावेदार होते हैं. इस प्रकार आप देखेंगे कि ब्यूरोक्रेसी की नाक में नकेल डालने वाले एक प्रभुवर्ग के रूप में पत्रकारों की एक नई शक्तिपीठ यानी journacracy का उभार देवरिया में बहुत पहले हो गया था. फिर ऐसे प्रोफेसन के प्रति यहाँ की नई पीढ़ी का दुर्निवार आकर्षण आखिर क्यों न हो?
यहाँ के पत्रकार शिरोमणियों को भारत सरकार के औद्योगिक विवाद अधिनियम, वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट, 1955, पालेकर वेज बोर्ड, बछावत आयोग, मणिसाना वेतन आयोग, आईएनएस, एटिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया, इंडियन प्रेस काउंसिल इत्यादि का ज्ञान भले ही न हो लेकिन वे लोकल दाँवपेंच से न केवल गोरखपुर, लखनऊ, बनारस, इलाहाबाद के अख़बारों के संवाददाता या ब्यूरो प्रमुख की हैसियत हथिया लेते हैं बल्कि कुछ तो प्रिंसीपली, बीमा कंपनियों की एजंटई आदि के अपने मूल पेशे के समानांतर दिल्ली तक के अख़बारों से स्ट्रिंगर का बिल्ला झटककर उसे हमेशा अपनी जेब में डालकर और उसके सम्यक परिचय का स्टिकर अपनी मोटर साइकिल और कार पर भी चिपकाकर जिला कलेक्ट्रेट, नगर पालिकाओं, जिला सूचना निदेशक के दफ्तर से लेकर नगर सेठों के प्रतिष्ठानों के चक्कर लगाते रहते हैं. चूँकि पूर्वी उत्तर प्रदेश के इस अंचल में रोजी-रोजगार, मिल-फैक्टरियों का आदिम अभाव है और बीपीओ, मॉल-मल्टीप्लेक्स के आगमन के केवल बेबीस्टेप्स ही दिखाई दे रहे हैं इसलिए समाचार पत्र-समूहों को सस्ते में पत्रकारों की एक पूरी पीढ़ी द्वारपूजा के लिए हमेशा तैयार खड़ी मिलती है.
ऐसे में पत्रकारिता यहाँ न तो कोई मिशन है और न ही धर्मसंस्थापनार्थाय: बल्कि वह सर्वाइवल के संकट से उबारने वाले ब्रह्मास्त्र का प्रतीक है. यह रोजी में बरकत का साधन सिद्ध करने वाली कलियुगी पत्रकारिता में रिड्युस होकर रह गई है. 'पेड न्यूज' देश के लिए भले ही एक नई सनसनी हो लेकिन देवरिया में इसका देहाती फार्मूला दशकों से चल रहा है. इसका आविर्भाव कुर्ता-पाजामा शुल्क से शुरू हुआ था जिसकी परंपरा यदि इन दिनों परवान चढ़कर राडियावाद के नए गुल खिला रही हो तो कोई आश्चर्य नहीं. लाइजनिंग या लॉबिइंग तो दिल्ली की इलिट और अंग्रेजी पत्रकारिता से नि:सृत शब्द हैं लेकिन ग़ौर से तहें उठाकर देखा जाए तो देवरिया की पत्रकारिता में भी पुरुष नीरा राडियाओं और दिल्ली-मुंबई के सेटेब्रिटी पत्रकारों जैसे न जाने कितने चरित नायक सक्रिय रहे हैं जो स्वाधीनता संघर्ष और सामाजिक-राजनीतिक बदलाव में काम आई पत्रकारिता की इस मशाल की आग में अपने न्यस्त स्वार्थों की रोटियाँ सेंकते रहे हैं. लोकतंत्र के इस चौथे स्तंभ को अपना पता बताकर सत्ता और कॉरपोरट के गलियारों से राज्यसभा का टिकट, आदर्श हाउसिंग सोसाइटी, डीडीए के फ्लैट का जुगाड़ करने, राजधानियों में पत्रकारपुरम बसाने, प्रेस क्लब चलाने के फायदे हासिल करने वाले धुरंधर खिलाड़ियों के नाम बेशुमार हैं.
20 साल पहले देवरिया की पत्रकारिता में फिर भी एक तेवर था जो आज लुंपेन एलीमेंट के हाथों में पड़कर जनमन से एकदम कट गई है. तब यहाँ से ग्राम स्वराज, आकाश मार्ग, पावानगर टाइम्स, दिल्ली देवरिया टाइम्स, युग वातायन, जनचक्षु जैसे अनेक साप्ताहिक और पाक्षिक निकल रहे थे जो अपनी तमाम सीमाओं के बावज़ूद जनभावनाओं के दर्पण थे. तह वह दौर था जब देवरिया की धरती पर अखबारों का इतना मशरूम ग्रोथ हुआ कि उसके आगे लखनऊ और दिल्ली का मुँह शर्मा जाए. लेकिन पेशे से प्राध्यापक टाइप के कुछ आदर्शवादी पत्रकारों के कारण देवरिया कि पत्रकारिता पर दाग नहीं लगने पाया. तब अखबारों के मालिक और संपादकों का प्रच्छन्न सरोकार व्यावसायिक होने के बावज़ूद निर्लज्ज ठेकेदारी नहीं थी. आप यह भी कह सकते हैं कि अखबार निकालने वाले धन्नासेठों के सामने व्यवसाय के इतने विराट अवसर उपलब्ध नहीं थे. अन्यथा उनमें किसी तिलक या किसी गोखले की राष्ट्रवादी चेतना अनुस्यूत नहीं थी. वे कोई उदंत मार्तण्ड तो नहीं निकाल रहे थे लेकिन फिर भी वे इस पिछड़े जनपद के परिदृश्य पर दैनिक अख़बारों का एक नया अध्याय तो लिख ही रहे थे.
उस ज़माने में अखबारों के बीच जो भी प्रतिस्पर्धा थी वह अखबारों की आइडियोलॉजी और उसमें छपे कंटेन्ट के आधार पर होती थी. विज्ञापन का बोझ पत्रकारों को नहीं उठाना पड़ता था. देवरिया शहर और जिले की इकॉनमी में व्यापार ज़िंदगी की निहायत जरूरी चीजों तक ही सीमित था. उस समय पाठक अखबार में समाचार के बाद देवरिया के नैना, विजय और अमर ज्योति टाकीजों में चल रही फिल्मों के नाम ढूँढ़ता था. यह अलग बात है कि उस समय के माँ-पिताओं को अपने लिए सत्यम-शिवम-सुंदरम, एक ही भूल या इंसाफ का तराजू या राम तेरी गंगा मैली अश्लील फिल्में नहीं लगती थीं; लेकिन बच्चों के लिए वे जय संतोषी माँ ही निर्धारित करते थे. सोचिए! उस दौर के जीवित माँ-पिताओं पर क्या बीतता होगा जब उनकी आँखों के सामने ही उनके नाती-पोते "मुन्नी बदनाम हुई" या "शीला की जवानी" सुनते-देखते बड़े हो रहे हैं.
तब उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल के कॉलेजों या बनारस, इलाहाबाद या गोरखपुर विश्वविद्यालयों से बी.ए./एम.ए. करके निकले ज्यादातर मूलत: प्राध्यापक पत्रकार लॉबिइस्ट नहीं थे. वे एक 'जस्ट लिबरेटेड' देश के शायद पहले तरुण थे. इसलिए उनमें स्वाधीनता आंदोलन के ज़ज्बे का तेवर था. लेकिन उनमें से ज्यादातर के ज़हन में आजादी की लड़ाई की धुँधली छवियाँ मात्र थीं अर्थात् उनकी वैचारिकी के निर्माण के साथ स्वाधीनता के संघर्ष के प्रत्यक्ष अनुभवों या उसमें उनकी किसी भूमिका का सीधा जुड़ाव नहीं था. लेकिन वह संयोग से आजादी के बाद की ढलान पर सबसे ताजा और अद्यतन पीढ़ी थी. आंदोलन का पहला तीव्र संस्कार उनमें जिस स्रोत से आया था वह जे.पी.मूवमेंट था. संपूर्ण क्रांति का पैशन पहली बार देवरिया के इन बुद्धिजीवी पत्रकारों में आपादमस्तक संचरित हुआ था. वे हर सरकारी दमन के प्रतिरोध और विद्यमान परिस्थितियों में मुकम्मल हस्तक्षेप के आदर्शीकृत रोलमॉडल बनते जा रहे थे. इमरजंसी या आपातकाल अगर देश के लिए एक दु:स्वप्न था तो यह देवरिया की पत्रकारिता के लिए भी किसी अग्निपरीक्षा से कम नहीं था. सरकारी मशीनरी ने 'मीसा' की जकड़न जितनी तेज की देवरिया के पत्रकार उसके खिलाफ़ कमांडो या मार्कोस की तरह उतनी ही तेज कार्रवाई करने के लिए जाने गए. मुझे थोड़ा-बहुत याद आता है कि इन पत्रकारों की लेखनी को तेजस्वी धार देने के लिए पर्दे के पीछे बाकायदा एक इंटेलिजेंसिया ग्रुप भी काम कर रहा था.
तुम मुझे पत्रकार दो और मैं तुम्हें.... यानी हर घर से एक पत्रकार
दैनिक जागरण के गोरखपुर संस्करण के आगमन के बाद इस क्षेत्र की पत्रकारिता में एक नया मोड़ भी आया और रफ्तार भी. समाचार का महत्व देवरिया के लोगों को सबसे पहले इसी अख़बार को पढ़कर समझ में आया. देवरिया से जिस प्राध्यापक को इसका पहला जिला संवाददाता नियुक्त किया गया था, मुझे याद उस व्यक्ति ने स्वयँ अपनी साइकिल पर लेई का डिब्बा टांगकर और "खुल गया"... "खुल गया…" टाइप के छोटे-छोटे पोस्टर लेकर रात के अंधेरों में शहर की दीवारों पर उन्हें चिपकाया था. इस अख़बार को जो शुरूआती लोकप्रियता हासिल हुई उसी की विरासत या यूँ भी कह सकते हैं कि उसके साथ एक बार पनपा मोह ही है जिसके बल पर आज भी यह अख़बार नंबर वन की पोजिशन में बना हुआ है.
इसका रहस्य समझने के लिए अगर ग़ौर से पीछे देखा जाए तो हम पाएंगे कि प्रारंभ में यह अख़बार लोगों के साथ सुख-दुख का एक रिश्ता कायम करने में सफल हो गया. वह शहर के प्रतिष्ठित घरों में होने वाली शादियों को समाचार बनाकर फोटो के साथ छापता था. किसी घर से किसी लड़के या लड़की ने 10वीं या 12वीं बोर्ड की परीक्षा में प्रथम श्रेणी मार ली तो उसका छोटा प्रोफाइल फोटो के साथ दैनिक जागरण में छपना तय था. किसी की दुकान या नए होटल या नए व्यावसायिक प्रतिष्ठान के खुलने पर जिला कलेक्टर या माननीय विधायक के कर-कमलों से फीता कटते फोटो के साथ समाचार लगाने में भी यह अव्वल निकला. बाकी छात्र संघों और तमाम राजनीतिक दलों के छोटे से छोटे और उभरते नेताओं की प्रेस-विज्ञप्तियों का भी यहाँ सम्मान था. मानना पड़ेगा इस अख़बार ने कइयों का पोलिटिकल रोडमैप तैयार किया. श्री कृष्ण श्रीवास्तव, महेश अश्क, डॉ.सदाशिव द्विवेदी के हाथों में इसका संपादकीय नेतृत्व और समाचार लेखन हुआ करता था.
जागरण की तर्ज़ पर आज, राष्ट्रीय सहारा और स्वतंत्र चेतना के गोरखपुर संस्करण भी रेस में शामिल थे. बिहार, नेपाल और उत्तर प्रदेश के त्रिकोण पर हर साल नारायणी नदी अपना कहर ढाती थी. पूरे क्षेत्र में जलप्रलय और गरीब ग्रामीण जनता की बेइंतहा मुसीबतें देवरिया से पत्रकारों के झुंड के लिए जिला सूचना अधिकारी के इंतजाम से गाड़ियों में बैठकर नेपाल की सीमा पर बाल्मिकी नगर तक की यात्रा का एक अवसर होती थीं. वे पानी से घिरे गांवों और गांववालों की त्रासदी नोट करते थे और दूसरे दिन की फ्रंट पेज खबरें बनाते थे. तब डी.एम. साहब भी पत्रकारों के साथ आग या बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों का दौरा करते थे.
देवरिया से निकलने वाले साप्ताहिकों के कई पत्रकार तो संपादक-प्रकाशक-लेखक-प्रूफरीडर-टाइपसेटर-हॉकर और अंत में स्वत्वाधिकारी सब कुछ को मिलाकर एक पैकेज पत्रकार के रूप में कार्य करते थे. इन ऑल-इन-वन टाइप पत्रकारों के लिए तो सरकारी गाड़ी से बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों का दौरा करने के बहाने लार-सलेमपुर या नेबुआ नौरंगिया जाना एक जबरदस्त आत्ममुग्धावस्था में पहुंचने के बराबर होता था. जिलाधीश उनके लिए किसी जिल्लेइलाही से कम नहीं होता था. यह पत्रकारिता में रोमांच की गुदगुदी का दौर था. अन्यथा क्यों एक ही आदमी ऑल-इन-वन बनकर चार पेज का ही सही लेकिन एक अखबार छापने के जुनून से भरा रहता; वही लिखता था, मिटाता था, संपादित करता था, प्रूफ पढ़ता था और अंत में बंडल बनाकर साइकिल के कैरियर में दबाकर बांस देवरिया, कचहरी चौराहा से लेकर राम गुलाम टोला तक में हॉकर की तरह अपना अख़बार बाँटता भी था. यानी हर कीमत पर एक पत्रकार.
देवरिया ऐसे पत्रकारों की नर्सरी था. ढेर सारे अख़बार थे. ढेरों पत्रकार थे. उनके बीच शहर में लॉयन, लियो, रोटरी और इंटरैक्ट क्लब थे. इन क्लबों के अधिवेशन थे. टाउन हॉल के पीछे या जिला परिषद के सभागार में होने वाले उनके पदग्रहण समारोह थे. उस जमाने में क्लब में आने वाली कुलीन घराने की सुंदर और सुरुचिसंपन्न औरतें थीं जिन्हें नजदीक से देखना हिंदी के पत्रकारों के लिए एक रचनात्मक थ्रिल हुआ करता था. चूंकि क्लबों के संपन्न और रसूख वाले दंपतियों को कलेक्टर और एस.पी. के साथ खड़ा होकर अपने चमकदार चेहरों को अखबार में प्रकाशित करवाने का शौक था इसलिए वे नगर के सभी छोटे-बड़े पत्रकारों को अपने कार्यक्रमों में बुलाते थे और उन्हें लजीज दावत भी खिलाते थे. इसी तरह के क्षणभंगुर सुखों की मृगमरीचिका से होकर देवरिया की साठोत्तरी पत्रकारिता का कारवां गुजरा है. उसका यथार्थ उसका पैशन था और उसकी तलाश में एक यूटोपिया. वह बंजारा मन की पत्रकारिता थी. उसमें एक मुद्दे पर ठहराव का धीरज नहीं था.
उसमें त्वरा थी. आवेग था. उसमें ज्यादा जोड़तोड़, गठबंधन या समझौतों की चालाकियां भी नहीं थीं. वह एक बनती हुई विधा थी. उसमें प्रोफेशनलिज्म का तड़का नहीं था. उन दिनों देवरिया के पत्रकार चुनी हुई चुप्पियां ओढ़ने की बज़ाय राजीव गांधी सरकार के मानहानि विधेयक और जिले के किसी भी पत्रकार के साथ किसी थानेदार द्वारा गलती से भी की गई किसी भी बदसुलूकी को गंभीरता से नोट करते थे और राजीव गांधी तथा थानेदार के खिलाफ़ संग्राम छेड़ने में कोई भेदभाव नहीं किया करते थे. वे जिला पत्रकार संघ, देवरिया प्रेस क्लब, जिला श्रमजीवी पत्रकार संघ इत्यादि का संयुक्त मोर्चा बनाकर शासन-प्रशासन से आरपार की लड़ाई लड़ने की मुद्रा में आ जाते थे. आज के अंतर्कलह, लंगीबाजी, टांग खिचौवल में माहिर, विघ्नसंतोषी और समीकरण बैठाने में उस्ताद ब्यूरो प्रमुखों को तो सिर्फ़ एक ही चिंता सताती रहती है कि कोई उनकी कुर्सी खिसकाने की साजिश तो नहीं रच रहा है. ये सभी अपने को किसी वेद प्रताप वैदिक, राम बहादुर राय, राहुल देव से कमतर नहीं समझते. इन दिनों जिस तामझाम से इन मठाधीश पत्रकारों की सवारी नगर के बीच से गुजरती है उसका प्रताप उनमें एक सत्ता-बोध और एक शक्ति-संस्था होने का आत्मदर्प भरता है...
आप इस नगर में कभी आएं तो कचहरी रोड या सिविल लाइन्स जरूर जाएं. वहां राजेन्दर पानवाले और तिवारी पानवाले की चार हाथ की दूरी पर अगल-बगल दुकानें हैं जिनके बीच फैले तनाव और आपसी जलन का कत्था-चूना बिखरा हुआ आपको अवश्य मिल जाएगा. हर पल एक खतरा उमड़ता रहता है - कब किस बात पर दोनों के बीच पानीपत खड़ा हो जाए कोई नहीं जानता. यहां आपको पान खाने वालों से ज्यादा पान की दुकानें और अख़बार से ज्यादा पत्रकार विचरण करते मिलेंगे. यह देवरिया का बहादुर शाह जफ़र मार्ग है. कुछ लोग पान और पत्रकारिता के इसी ओवरडोज के आधार पर नगर को डुप्लिकेट काशी भी कहते हैं.
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