बोल कि लब़ आज़ाद हैं तेरे........

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Sunday, January 16, 2011

मुंबई



सी-लिंक पर दौड़ता ज़िंदगी का कारवां
मुंबई - 1
आधी हक़ीकत आधा फ़साना
मुंबई में मेरा नौवां साल चल रहा है। पहले दिन से आज तक के सफ़र में बहुत कुछ घटा-बढ़ा है। अपने लोगों से संपर्क लगातार घटा है लेकिन संवेदना के धरातल पर अपने छोटे से शहर देवरिया, वहां के लोग और उनसे मिलकर बना सारा परिवेश मेरी स्मृति में पहले अधिक सघन हुआ है। बीच-बीच में एक जगह दिल्ली के मेरे दिनों के लिए उभरती रहती है। सन् 1996 के सितंबर महीने से पहले देवरिया शहर ही मेरी दुनिया थी। समय की धूल हटाकर देखता हूँ तो वहां गुजरा एक-एक क्षण एक जीवंत तस्वीर की भांति आँखों में लहराने लगता है। उस वक्त का समूचा प्रतिबिंब आज भी मेरे एकांत का आत्मीय हिस्सा होता है। अगर वो हिस्सा न होता तो जीवन के प्रति अगाध आस्था न बनती। मनोबल और इच्छाशक्ति की जड़ों में मजबूती उन्हीं शिराओं से पहुंचती है जो एक छोर पर मेरे शहर, मेरे मोहल्ले, मेरे लंगोटिया यारों और उन सबके सम्मिलन से उपजे एक स्थानीय लोक संसार की आत्मा से जुड़ी है। अपने घर का वात्सल्य और अपने शहर का सुरक्षित आश्रय भिन्न संस्कृति, भिन्न बोली-बानी वाले एक नितांत निस्संग शहर में बेहद शिद्दत से एक कचोटते एहसास की तरह याद आती है।

मुंबई का जीवन धन-दौलत और असीमित प्रतियोगिता की कील पर टिकी एक मरणशील सभ्यता का पर्याय है। जीवन यहाँ तक आकर वास्तव में मृयमाण हो जाता है। ऐश तथा ऐश्वर्य को ही जीवन का मूलमंत्र मानने वाली सभ्यता में जीवन कितना बेबस, लाचार, कितना भंगुर और कितना दु:सह्य हो जाता है, इस सर्द सच्चाई की ग़वाह है मुंबई। जीवन के जितने भी उद्दात आयाम हैं, जीवन में जितनी मानवीयता होनी चाहिए उन सबका अवसान हो जाता है मुंबइया वैभव के शिखर पर। यहीं से एक समुद्र के प्यास की कहानी भी शुरू होती है। एक कल्पनापाँखी स्वप्न के अंत की शुरूआत भी यहीं से होती है। हिन्दी सिनेमा ख़ासकर बचपन में देखी हुई श्री अमिताभ बच्चन की तकरीबन सभी फिल्मों ने मेरे मानस पर मुंबई की जो मोहक छवि बनाई थी वह मुझे यहां नहीं मिली। होगी अगर कहीं तो मैं नहीं जानता और शायद मेरी ही तरह लाखों-लाख रूमानी युवाओं के लिए भी वह दुनिया अगम-अगोचर ही होगी। आज के मोहरे और मुहावरे पास में न हों तो महानगर का सारा आकर्षण एक यंत्रणादायी चुभन बन जाता है। सिर्फ़ परिधियां हमारी हैं। दायरे हमवार हैं। हमारी सहायता में तब सिर्फ़ आस्था, साधना, संस्कार चैनलों के साधु-बाबाओं की लच्छेदार तकरीरें या फिर हमारे मध्यवर्गीय संस्कारों में लिपटी खोखली धार्मिकता अपनी हजारों साल पुरानी भूमिका में आ खड़ी होती है। व्यावसायिक धर्म के पैकेज को खाए-पिए-अघाए और निराश-थके दोनों ही प्रकार के लोगों के अपने-अपने खालीपन में एक आकर्षक बाजार मिल जाता है। न जाने क्यों सिंहस्थों, शोभा-यात्राओं, हवनों, देवी-जागरण और शाही-स्नानों से निर्मित दुनिया भी अपनी नहीं लगती। इसलिए प्रसंगवश श्रीकांत वर्मा की दो पंक्तियाँ दोहराना चाहूँगा... "जो मुझसे न हो सका वो मेरी दुनिया नहीं थी।" ऐसे निरीह लोग तो पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा बिहार से यहाँ आकर टैक्सी चलाने, फल-सब्जियाँ और दूध बेचकर अपना जीवन चलाने में मर-खप रहे हैं। अभी आज शाम ही मेरे घर चावल-आटा और मसालों के पैकेट झोले में लेकर जो लड़का सेठ की दुकान से आया था वह देवरिया जिले के पकहा क्षेत्र का निकला। शायद घर की गरीबी या किसी पारिवारिक कलह से ऊबकर अपनी बेबसी के साथ सीधे मुंबई की ट्रेन में बैठ गया होगा।

इसलिए मैं बे-भरम होकर कह सकता हूँ कि महानगर का बाज़ारू शिल्प साधारण आदमी की संवेदना के खिलाफ़ गढ़ा गया है। जीवन का तद्भव यहाँ लांछित है और तत्सम अपने सही ठिकाने पर ऐश कर रहा है। दो प्रकार के जीवनानुभवों का द्वंद्व अपने कटुतम शीर्ष पर दिखायी पड़ता है। मुंबई आने से पहले मुझे यह शहर गगनचुंबी इमारतों का शहर बताया गया था, लेकिन इसके ठीक विपरीत यह शहर मुर्गीखाने के दड़बों से भी तंग और छोटे-छोटे पिंजरेनुमा चालों और झोपड़पट्टियों का शहर निकला जिसकी सड़कें रात-दिन धकम-पेल के कारण गतिहीन और जाम पड़ी रहती हैं।

लोकल ट्रेनों को शान से जीवन-रेखा कहा जाता है। लेकिन जो अनुभव लोकल ट्रेनों में यात्रा करने से जुड़ा है वह बिना किसी बात के मुठभेड़ से कम नहीं है। प्लैटफार्म पर लोकल ट्रेन के आते ही चुपचाप शांत दिखते जन-समुद्र में अचानक बड़वानल भभक उठता है। मैत्री सम्मेलन कर हर लोग-बाग एक दूसरे को धकेलते-पछाड़ते रेल के डिब्बों में आक्रमणकारी की तरह घुसने लगते हैं। एकदम ठसाठस भरकर लोग जहां फिट हो सके, जैसे फिट हो सके, उल्टे-सीधे, एक पैर पर, दो पैरों पर, अपने पैरों पर या दूसरों के पैरों पर बस निकल पड़ते हैं अपनी जीवन-रेखा पर। पुराने रहिवाशी बताते हैं कि शुरू-शुरू में हालात इतने खराब नहीं थे।

एक प्रकार की शालीनता और सभ्यता मुंबई के लोगों में हर कीमत पर हुआ करती थी जो आम जनजीवन के सभी क्षेत्रों में आचरण की सभ्यता बनकर खिलती थी। अब उसकी जगह पर एक विचित्र प्रकार की होड़ और वहशीआना भागमभाग दिखाई पड़ने लगी है। सबसे पहले पहुंचने का जुनून जीवन को हर क्षण एक अघोषित प्रतिस्पर्धा में बदल रहा है। नंबर वन का उन्माद मानसिक बीमारी में रूपांतरित हो रहा है। शहर में लोग बढ़ते गए। शहर उपनगरों की तरफ पसरने लगा। लोगों के घर और दुकान, दफ्तरों तथा कार्यस्थलों के बीच की दूरियाँ बढ़ गईं। शहर की जैसी एकरेखीय भौगोलिक स्थिति है उसमें लोकल ट्रेन ही यातायात का सबसे सस्ता और त्वरित साधन है। लिहाज़ा अमीर-गरीब, बूढ़े-जवान, मर्द-औरत सबके लिए लोकल उनकी दिनचर्या का एक अभिन्न हिस्सा बन जाती है।
बांद्रा-वर्ली सी-लिंक पर ढलता सूरज और उतरती संध्या
भीड़ इस शहर में आधी रात के सिर्फ़ चार घंटे छोड़कर यत्र-तत्र-सर्वत्र दिखाई देती है वह वाकई किसी दूसरे शहर की नगरीय व्यवस्था की चूलें हिला सकती है। लेकिन दिन-ब-दिन बोझ से दोहरी होती मुंबई में उसकी शानदार विरासत के कुछ प्रतीक अभी भी जीवन को एक बेहतर आसरा देते हैं। यहां की भीड़ अनियंत्रित नहीं है। यह कहीं भी पंक्तिबद्ध हो जाती है। दिल्ली में यही सलीका नहीं है। बिना भगदड़ के राजधानी में रौनक नहीं दिखती। मुंबई की भीड़ की अपनी एक निविड़ भाषा है जो हर जगह बिना बोले संवाद के किनारे-किनारे सुरक्षित पगडंडियाँ खोज लेती है। इससे एक क्रम बनता है जो कुछ असुविधाजनक स्थितियों को पैदा ही नहीं होने देता। अगर आप मुंबई दर्शन कर चुके हैं तो देख चुके होंगे और अग़र नहीं तो इसका अवसर मिलने पर देखेंगे कि यहाँ पेशाब करने के लिए भी लंबी कतारों में खड़ा होना पड़ता है।

ज़ाहिर है कि मुंबई के कंधे पर इतना भारी बोझ इसलिए है क्योंकि शहर के सर्वसमावेशी चरित्र और रोजी-रोजगार देकर लोगों का भला करने की द्वितीय क्षमता ने मुंबई को देश की चारों दिशाओं के साथ आलिंगनबद्ध किया है। बदले में दूसरे शहरों-गाँवों-प्रांतों से आए लोगों ने भी इस महानगरी से बेइंतहा प्यार किया। मुझे हमेशा ऐसे लोग मिलते हैं जो मुंबई में दस-बीस वर्ष रहने के बाद खुद को जौनपुर, आजमगढ़, पश्चिमी चंपारण, बनारस और देवरिया से दूर और मुंबई की धड़कनों के ज्यादा करीब महसूस करते हैं। 15 दिन रहने के बाद वे जौनपुर या गोरखपुर से निकल भागना चाहते हैं।

लेकिन विडंबना है कि उ.प्र. और बिहार के इन मेहनतकश लोगों और भूमिपुत्रों का झगड़ा एक आम बात हो चली है। बल्कि संशोधित ढंग से कहा जाए तो दोनों को लड़ाने की राजनीति आम हो चली है। दोनों पक्ष जानते हैं कि इस मुद्दे का राजनीतिकरण किया जाता है। पिछले सालों में शहर का माहौल इस विवाद पर काफी गरम रहा है। क्षुद्र सत्तापरक सियासत इस आग में खूब घी डालती रहती है। कभी क्षेत्रवाद तो कभी अस्मिताओं के टकराव का रूप देकर इस मुद्दे को खूब भुनाया जाता है। नुकसान सिर्फ़ आम आदमी का होता है। समस्याएं अनेक हैं – इस भेदभाव के अलावा। उन पर मिलकर सोचने की जरूरत है। नि:संदेह स्थानीय लोग और परप्रांतीय दोनों इससे चिंतित हैं। नेताओं की बयानबाजी और राजनीतिप्रेरित पत्रकारिता की भूमिका खराब़ न हो तो मुंबईवासी अपनी आम समस्याओं पर साझा स्तर पर विचार भी करते हैं। इस सामाजिक तानेबाने को मजबूत करना चाहिए। मुंबई देश की आर्थिक राजधानी है। साहित्य, संस्कृति और सिनेमा की त्रिवेणी इसे एक महत्वपूर्ण ऊँचाई प्रदान करती है। इन क्षेत्रों में देश की बड़ी-बड़ी प्रतिभाओं ने अपना योगदान किया है। आज भी नई ऊर्जावान पीढ़ी को सशक्त रचनात्मक अभिव्यक्ति देने वाले मंच और माध्यमों की मुंबई में कमी नहीं है। आर्थिक और औद्योगिक जगत में भी ताजा-तरीन प्रयोग तथा परिवर्तनों की प्रयोगशाला है-मुंबई।

यह दीग़र बात है कि इन सब गतिविधियों के समानांतर शहर की संस्कृति पर बाज़ार का प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। इससे जीवन-शैली, मूल्य संस्कृति सबमें एक उथल-पुथल का दौर शुरू हो गया। बाज़ार का हस्तक्षेप जीवन के रंग, रस और गंध को निचोड़ रहा है। लोभ, लालच, संग्रह, बेईमानी की प्रवृत्ति, हिंसा और अपराध को हवा दे रही है। शीघ्रता और तीव्रता मानसिक आघातों और अवसादों को जन्म दे रही हैं। लोगों के हिस्से से समय और संवेदना को बाज़ारवादी जीवन शैली कुतर-कुतर कर खा रही है। संवाद डिजीटल एसएमएस और जीवंत पत्र ई-मेल में रूपांतरित हो रहे हैं। सहज प्रेम सड़कों पर अश्लीलता बनकर स्खलित हो रहा है। बहुत कुछ कहा-सुना जा सकता है-बाज़ार और शहर के मधुर मिलन पर जो मुट्ठीभर भद्रलोक के सुख-समृद्धि के असंख्य भोगों का विस्फोट है तो लाखों-लाख असहाय लोगों की क्रूर नियतियों का प्रहसन भी है। कोलाबा और कफ परेड का दिव्य आनंद धारावी की सड़ांध और सीलन से झाँकते दुख के सामने एक आत्ममुग्ध अमानवीय रणनीति का बौना रूपक बन जाता है।

चार्ल्स डिकेन्स के ए टेल ऑफ टू सिटीज की इन पंक्तियों को मुंबई सहित भारत के उभरते सिटीस्केप या अर्बनाइजेशन के संदर्भ में पढ़ा जा सकता है:
"यह सबसे बढ़िया समय था, यह सबसे खराब वक्त था,
यह बुद्धिमानी का काल था, यह मूर्खताओं का युग था,
यह भरोसे का दौर था, यह शंकाओं का कालक्रम था,
यह रोशनी की ऋतु थी, यह अँधेरे की ऋतु थी,
यह उम्मीदों का बसंत था, यह हताशा की ठंडक थी,
हमारे सामने सब कुछ था, हमारे पास कुछ भी नहीं था"

भारत के प्रामाणिक इतिहास के उत्स में ही नगर सभ्यता छिपी है। इस देश का क्रमिक विकास ही सिंधु घाटी सभ्यता से जुड़ा है। मोहनजोदड़ो, हड़प्पा और लोथल जैसी नागर सभ्यताओं की कोख से ही व्यवस्थित इतिहास का जन्म माना जा सकता है। मैंने अभी हाल ही में कहीं पढ़ा कि कतर में बस गए 94 साल के पेंटर एम.एफ.हुसैन का दिल अभी भी हिंदुस्तान के लिए धड़कता है। मुंबई शहर का ग्रांट रोड, धोबी तालाब का कयानी रेस्तरां आज भी उनकी स्मृतियों में तैरता है। आजकल वे अबूधाबी में दादासाहेब फाल्के से आज तक के भारत के सिनेमाई इतिहास पर एक बड़े काम को अंजाम दे रहे हैं। बड़ी अहम बात है कि हुसैन के मन में भारत की सभ्यता को समेटने वाली कलाकृतियों, पेंटिंग, स्केच, रेखांकनों पर आधारित एक कलात्मक योजना है जिसे वे 'मोहनजोदड़ो से मनमोहन सिंह तक' नाम से एक सीरिज के रूप में मूर्त करना चाहते हैं। आमीन!

(अगली कड़ी शीघ्र प्रकाश्य)