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Thursday, January 5, 2012

सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यमों के विकास की जीवन-रेखा :
ऋण गारंटी योजना (सीजीएस) तथा ऋण गारंटी न्यास फंड (सीजीएफटी)

एमएसएमई आज भारत की अर्थव्यवस्था से जुड़ा एक बहुचर्चित शब्द बन गया है। दरअसल यह न तो शब्द है और न ही कोई संक्षेपाक्षर। यह समावेशी विकास का विजन है। आर्थिक रूप से मजबूत होते भारत की दूरदृष्टि है। आपको याद होगा कि लघु उद्योग और उनका विकास आजादी के बाद नए सिरे से विकसित और औद्योगिकीकृत होते भारत की प्रमुख प्राथमिकताओं में था। भारत सरकार ने 70 के दशक में पहली बार लघु उद्योग क्षेत्र के लिए अलग से नीति बनाने की घोषणा की थी। उसके बाद इस क्षेत्र का स्थान पंचवर्षीय योजनाओं और बजट के केंद्र में बना रहा। ठीक वैसे ही उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण (एलपीजी) के बाद बाजार आधारित अर्थव्यवस्था में एक रोल मॉडल की हैसियत रखने वाले भारत के लिए जरूरी हो गया कि बड़ी-बड़ी परियोजनाओं के पीछे सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों (एमएसएमई) की आवाजें गुम न हो जाएं। बल्कि यह कहा जा सकता है कि बड़े उद्योगों को कच्चे माल, प्राथमिक वस्तुओं, तैयार घटकों की आपूर्ति इन्हीं उद्यमों के द्वारा होती है। चूंकि सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम क्षेत्र रोजगार सृजन, निर्यात तथा देश की एक बहुत बड़ी आबादी को आर्थिक रूप से अपने पैरों पर खड़े होने में मदद करता है इसलिए इसे ‘सनराइज सेक्टर’ भी कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।
इस क्षेत्र में लगभग 2.6 करोड़ उद्यम काम कर रहे हैं। समूचे विनिर्मित उत्पादन में अकेले इसी क्षेत्र की भागीदारी 45 प्रतिशत और भारत के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 8 प्रतिशत है। देश से होने वाले संपूर्ण निर्यात का 40 प्रतिशत भाग एमएसएमई की बदौलत होता है। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि इस क्षेत्र ने तकरीबन 6 करोड़ हाथों को रोजगार दिया है। इसके अलावा सिर्फ खेती-बाड़ी ही एक क्षेत्र है जिसने इससे अधिक लोगों को रोजी-रोटी दी है। इसलिए एमएसएमई न केवल समावेशी विकास का वाहक है बल्कि वह देश के सम, संतुलित एवं स्थिर विकास का भी आधारस्तंभ है। भारतीय रिज़र्व बैंक के उप गवर्नर डॉ.के.सी.चक्रवर्ती ने अपने एक भाषण में कहा है कि कल के एमएसएमई आज के बड़े कार्पोरेट्स हैं और कल की बड़ी एमएनसी। The MSMEs of yesterday are the large corporates of today and could be MNCs of tomorrow.
यह तस्वीर केवल भारत की नहीं है बल्कि समूची दुनिया में एमएसएमई का एक दमदार व्यावसायिक संगठन के रूप में उभार देखा जा रहा है। ये तमाम ऐसे नए क्षेत्रों में घुसपैठ बना चुके हैं जहां बड़ी कंपनियों या बड़े औद्योगिक घरानों की नज़र नहीं पड़ी या फिर उन्हें वहां मुनाफे का भविष्य नहीं दिखा और उन्होंने उनकी उपेक्षा की। ग्राहकों के ऐसे छोटे-छोटे संभावनाशील समूहों की उम्मीदों और सपनों में अपना बाजार (Niche Markets) ढूँढ़ने वाले एमएसएमई दुनिया भर में फैले हैं। उनकी सफलताएं उनके देशों की दंतकथाएं बन गई हैं। आपको बता दें कि यूरोपीय संघ के 99 प्रतिशत और अमेरिका के 80 प्रतिशत उद्यम लघु उद्यम हैं। भारत में भी इसकी हिस्सेदारी 97 प्रतिशत है। पांचवी अर्थिक गणना (अनंतिम आंकड़ा – जून 2006) के अनुसार कृषि से इतर 421.2 लाख उद्यमों में से 5.8 लाख उद्यम कारखाना इकाइयों के रूप में हैं। भारत सरकार द्वारा जून 2006 में स्वीकृत एमएसएमई की नई परिभाषा के अनुसार इन 5.8 कारखाना इकाइयों में से लगभग 5 लाख लघु एवं मध्यम उद्यम इकाइयां हैं।
सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यम विकास अधिनियम, 2006 बनने के बाद एमएसएमई क्षेत्र सुपरिभाषित हो गया है। सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यम और उनमें निवेश की सीमाएं स्पष्ट कर दी गई हैं। अन्य देशों में जहां नियोजित कर्मचारियों तथा धारित पूंजी आदि के आधार पर एसएमई को परिभाषित किया जाता है वहीं भारत में इन उद्यमों को प्लांट एवं मशीनरी में निवेश की राशि के आधार पर परिभाषित किया जाता है। इस प्रकार मोटे तौर पर इन उद्यमों को दो श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया है:
(क) विनिर्माण
(ख) सेवाएं प्रदान करने में लगे उद्यम
उद्यमों के दोनों वर्गों को प्लांट एवं मशीनरी में उनके निवेश (विनिर्माण उद्योगों के लिए) या उपस्करों में उनके निवेश (सेवा प्रदान करने वाले उद्यमों के मामले में) के आधार पर सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यमों में वर्गीकृत किया जाता है। एमएसएमई क्षेत्र में निवेश की उच्चतम राशि बढ़ाकर 10 करोड़ रुपये तक किए जाने के बाद उम्मीद की जानी चाहिए कि इस क्षेत्र की प्रगति जोर पकड़ेगी। अब बहुत संभावना है कि प्रौद्योगिकी तथा आधुनिकीकरण की प्रक्रिया भी इस क्षेत्र में शुरू होगी जो न केवल उदारीकरण और वैश्वीकरण बल्कि विश्व व्यापार संगठन की शर्तों के नए संदर्भ में जारी प्रतिस्पर्धा में इस क्षेत्र के टिके रहने के लिए भी जरूरी है।

क्रेडिट की जरूरत

एमएसएमई देश की अर्थव्यवस्था के विकास के वाहक हैं। लेकिन उन्हें अपने व्यवसाय या उद्यम के लिए हमेशा फंड का टोटा रहता है। बैंक एवं वित्तीय संस्थाएं या तो कतराती रही हैं या बहुत बेमन से उनकी निधिगत जरूरतों को पूरा करती रही हैं। हालांकि सरकार तथा भारतीय रिज़र्व बैंक के फोकस में होने के नाते अब एमएसएमई के प्रति वित्तीय संस्थाओं और बैंकों का रुझान बढ़ा है। फिर भी एमएसएमई को जरूरत पड़ने और समय पर क्रेडिट हासिल करने में दिक्कतें उठानी पड़ती हैं। देखा गया है कि इस क्षेत्र को उधार की जरूरतें प्राय: छोटी होती हैं लेकिन वे जरूरतें बार-बार पड़ती रहती हैं और यह एक वज़ह है कि बैंक एवं वित्तीय संस्थाएं उनमें दिलचस्पी नहीं लेतीं। इसके अलावा अधिकतर एमएसएमई पहली पीढ़ी के उद्यमों से संबद्ध होने के नाते क्रेडिट के लिए संपार्श्विक यानी कोलैटरल का इंतजाम नहीं कर पाते जो उनके उद्भव में एक अड़चन है।
अभी पाँच-दस साल पहले तक एमएसएमई द्वारा ऋण चुकौती में चूक के मामले आम थे। इसके पीछे कई कारण थे। एक कारण यह भी था कि इन उद्यमों के पास प्रौद्योगिकी, कार्पोरेट गवर्नेंस, शोध एवं विकास का कोई क्षितिज नहीं था। कहा जा सकता है कि उनके पास कोई न तो कोई सुपरिभाषित प्रोफेशनल तकाजे थे और न ही कोई प्रबंधनकीय एवं संगठनात्मक दृष्टि। वे बाजार की प्रतिस्पर्धा से लगभग कटे हुए थे। उनका कोई चेहरा नहीं था। लिहाजा ऐसे उद्यमों के पास किसी भी औद्योगिक मंदी या अर्थव्यवस्था में सुस्ती की मार झेलने की कूवत नहीं थी। यही वजह थी कि बैंक उन्हें क्रेडिट देने से कतराते थे।
एमएसएमई को ऋण उपलब्ध कराने की प्रणाली यानी credit delivery mechanism की जो सबसे बड़ी खामी थी वह खास तौर पर लघु उधारकर्ताओं को ऋण प्राप्त करने में होने वाला विलंब था जो उनकी समस्त योजना को मटियामेट कर देता था। उन्हें ऋण हासिल होते-होते समय और लागत का भारी नुकसान हो जाया करता था। यानी इन उद्यमों पर ‘का वर्षा जब कृषि सुखानी’ वाली कहावत चरितार्थ होती थी।
अपने उद्यमों को अमलीजामा पहनाने के लिए इन एमएसएमई उद्यमियों के पास समय का सधा हुआ हिसाब-किताब नहीं होता था। इन उद्यमों के लिए वर्ष-भर में गाहे-बगाहे पड़ने वाली जरूरतों का आकलन करने और उनके लिए फंड का इंतजाम करने की दूरदर्शिता नहीं थी। एमएसएमई की इस समस्या का समाधान क्रेडिट स्कोरिंग मॉडल में ढूँढ़ा गया। इसकी चर्चा फिर कभी।
इस आलेख का विषय क्रेडिट गारंटी योजना (सीजीएस) तथा क्रेडिट गारंटी फंड ट्रस्ट (सीजीएफटी) है। दरअसल इस योजना या इस फंड का मकसद ऋण के लिए संपार्श्विक के अभाव में परेशानहाल एमएसई को इस समस्या से निजात दिलाना था। यह उधारकर्ता एमएसई और बैंक दोनों के लिए सुविधाजनक है क्योंकि इसमें दोनों को फायदा है।

ऋण गारंटी निधि योजना

यह ऋण गारंटी निधि न्यास (सीजीएफटी) के न्यास मंडल द्वारा एमएसई उद्यमों को ऋण सुविधाओं के लिए गारंटी प्रदान करने के प्रयोजन से बनाई गई एक योजना है। उक्त योजना 1 अगस्त 2000 को लागू हुई। प्रारंभ में इस योजना का आधिकारिक नाम लघु उद्योगों के लिए ऋण गारंटी निधि योजना (सीजीएफएसआई) था। सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यम विकास अधिनियम, 2006 बनने के बाद इसका नाम सूक्ष्म एवं लघु उद्योगों के लिए ऋण गारंटी निधि योजना (सीजीएसएमएसई) तथा निधि का नाम सूक्ष्म एवं लघु उद्योगों के लिए ऋण गारंटी निधि (सीजीएफटीएमएसई) हो गया।
इस न्यास की स्थापना भारत सरकार के तत्कालीन लघु उद्योग मंत्रालय तथा सिडबी ने मिलकर की थी। इस न्यास की निधि में भारत सरकार तथा सिडबी की हिस्सेदारी का अनुपात 4:1 है। सिडबी द्वारा संचालित इस न्यास का मुख्य कार्य सूक्ष्म एवं लघु उद्यम इकाइयों को बैंकिंग तथा अन्य वित्तीय संस्थाओं से ऋण प्राप्त करने के दौरान संपार्श्विक प्रतिभूति या तृतीय पक्ष की गारंटी जुटाने की समस्या से निजात दिलाना है। यह न्यास एमएसई इकाइयों को सदस्य ऋणदात्री संस्थाओं (एमएलआई) द्वारा बिना संपार्श्विक प्रतिभूति के दिए गए मीयादी ऋण अथवा कार्यशील पूंजी सुविधा के 75 प्रतिशत भाग की गारंटी देता है। शर्त यह है कि किसी भी उधारकर्ता को दिया जाने वाला अधिकतम ऋण 100 लाख रुपये से अधिक न हो। यहां यह बारीकी समझना जरूरी है कि इस योजना के तहत किसी एमएसई उधारकर्ता को 100 लाख रुपये से भी अधिक ऋण मंजूर किया जा सकता है लेकिन न्यास के गारंटी कवर के अंतर्गत शुरुआती 100 लाख रुपये का 75% अर्थात केवल 62.50 लाख रुपये ही आएंगे।
इस योजना को पूरी तरह कंप्यूटरीकृत वातावरण में संचालित किया जा रहा है। इसमें बी2बी ई-व्यापार मॉडल का प्रयोग किया गया है।
किसी एमएलआई को यह योजना शुरू करने से पहले अपने उन आंचलिक/क्षेत्रीय/शाखा कार्यालयों के नाम और पते सीजीएफटी को उपलब्ध कराने होते हैं जिनके माध्यम से वे इस योजना को संचालित करना चाहते हैं। इसके अलावा उन्हें उन कार्यालयों के एक नोडल अधिकारी सहित दो अन्य अधिकारियों के नाम एवं संपर्क व्यौरे देने होंगे। ये अपेक्षित ब्यौरे प्राप्त होने के बाद न्यास उन एमएलआई को एक सदस्य आईडी एवं पासवर्ड आबंटित करता है। उसके बाद एमएलआई गारंटी कवर के लिए आवेदन प्रस्तुत कर सकता है क्योंकि आवेदन पत्र ऑनलाइन प्रस्तुत करना अनिवार्य है।
यह न्यास एमएसई क्षेत्र के उद्यमों को सीधे गारंटी कवर नहीं दे सकता। सीजीएफटी केवल अपने पंजीकृत एमएलआई को ही गारंटी कवर देता है। सीजीटीएमएसई का पंजीकृत कार्यालय मुंबई में है और उसके व्यवसाय विकास कार्यालय नई दिल्ली तथा कोलकाता में स्थित हैं। ऋण गारंटी न्यास का संपूर्ण परिचालन ऑनलाइन होता है। इसलिए सीजीएफटी मुंबई से ही अपने सभी एमएलआई की आवश्यकताएं पूरी कर सकता है।

गारंटी शुल्क एवं वार्षिक सेवा शुल्क

1 अप्रैल 2006 से इस न्यास का एकमुश्त गारंटी शुल्क 5 लाख रुपये तक की स्वीकृत ऋण सुविधा पर 1।0 प्रतिशत तथा 5 लाख रुपये से अधिक ऋण पर 2।5 प्रतिशत से घटाकर 1.5 प्रतिशत कर दिया गया है। साथ ही, सिक्किम सहित पूर्वोत्तर क्षेत्र के एमएसएमई इकाइयों के लिए 50 लाख रुपये तक के ऋण पर एकमुश्त गारंटी शुल्क 0.75 प्रतिशत निर्धारित किया गया है। सभी मामलों में न्यास को गारंटी शुल्क का भुगतान गारंटी प्राप्त करने वाली संस्था को ऋण (कार्यशील पूंजी पर लागू नहीं) की पहली खेप के संवितरण की तारीख से 30 दिन के भीतर अथवा गारंटी शुल्क की मांग सूचना की तारीख से 30 दिन के भीतर, इनमें से जो बाद में हो, या न्यास द्वारा यथानिर्धारित तारीख के भीतर करना अनिवार्य है।
बाद में गारंटी शुल्क में कोई परिवर्तन नहीं किया जा सकता क्योंकि इसका भुगतान गारंटी कवर प्राप्त करते समय एकमुश्त किया जाता है। जहां तक वार्षिक सेवा शुल्क का संबंध है, गारंटीकृत ऋण सुविधाओं के लिए उसका भुगतान पहले वर्ष में आनुपातिक आधार पर गारंटी कवर के प्रारंभ होने की तारीख से 31 मार्च तक की स्थिति के अनुसार प्रभावी दर से किया जाता है। बाकी वर्षों के दौरान इस शुल्क की गणना 365 दिन का वर्ष मानकर किया जाता है। इस शुल्क का भुगतान गारंटी का दावा करने की तारीख से गारंटीकृत राशि के 75 प्रतिशत भुगतान की पहली किश्त के निपटान तक की अवधि के लिए करना अनिवार्य है। तथापि, प्रारंभिक अवरुद्धता अवधि की समाप्ति यानी गारंटी कवर शुरू होने की तारीख से 18 महीने अथवा ऋण के अंतिम संवितरण की तारीख से पहले, इनमें से जो भी बाद में हो, और गारंटी कवर की अवधि समाप्त होने के बाद गारंटी के लिए कोई दावा नहीं किया जा सकता।
न्यास के खाते में गारंटी शुल्क जमा होने की तारीख से गारंटी कवर प्रारंभ हो जाता है और वह मीयादी ऋण/संमिश्र ऋण की निर्धारित अवधिपर्यंत जारी रहता है। लेकिन कार्यशील पूंजी के रूप में पात्र एमएसई उधारकर्ता को प्रदान की गई ऋण सुविधा के मामले में यह कवर 5 वर्ष अथवा गारंटी कवर का नवीकरण होने के पश्चात 5-5 वर्ष की अवधि के लिए जारी रहता है बशर्ते एमएलआई 31 मार्च की स्थिति के अनुसार प्रतिवर्ष अधिकतम 31 मार्च तक वार्षिक सेवा शुल्क का भुगतान करता हो।
इस योजना के तहत ऋण सुविधा पर गारंटी केवल तभी दी जा सकती है जब ऋणदात्री संस्था ने किसी एमएसई को ऋण बिना किसी संपार्श्विक प्रतिभूति या तृतीय पक्ष की गारंटी के दिया हो। यह भी जरूरी है कि उधारकर्ता ने केवल एक संस्था से ऋण हासिल किया हो। लेकिन सिडबी, एनएसआईसी, नेडफी, एसएफसी या किसी राज्य की वित्तीय संस्था द्वारा ऋण सुविधा से लाभान्वित होने वाली एमएसई इकाइयों को किसी दूसरी वित्तीय संस्था से ऋण हासिल करने की मनाही नहीं है। वे इस स्थिति में भी इस योजना के अंतर्गत गारंटी कवर के लिए पात्र होंगी।

एमएलआई

सभी अनुसूचित वाणिज्यिक बैंक (सरकारी एवं निजी क्षेत्र के बैंक तथा विदेशी बैंक), चुनिंदा क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक तथा भारत सरकार द्वारा अनुमोदित वित्तीय संस्थाएं इस योजना के अंतर्गत गारंटी कवर की पात्र हैं। ध्यान देने की बात है कि सरकारी, निजी क्षेत्र के केवल वही बैंक तथा विदेशी बैंक एमएलआई हो सकते हैं जो अनुसूचित वाणिज्यिक बैंक हों यानी उनका नाम भारतीय रिज़र्व बैंक अधिनियम, 1934 की दूसरी अनुसूची में दर्ज होना चाहिए। इसी प्रकार केवल वे ही क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक पात्र हो सकते हैं जो नाबार्ड द्वारा धनात्मक मालियत वाले सक्षम श्रेणी में वर्गीकृत किया गया है। ऐसे पात्र क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों द्वारा एमएसई क्षेत्र के किसी एकल पात्र उधारकर्ता को मीयादी ऋण तथा/अथवा कार्यशील पूंजी सुविधा के रूप में दी गई 50 लाख रुपये तक की ऋण सुविधा इस गारंटी कवर के भीतर आएगी। इन्हें सदस्य ऋणदात्री संस्थाएं (एमएलआई) कहा जाता है। इनके अलावा भारतीय लघु औद्योगिक विकास बैंक (सिडबी), राष्ट्रीय लघु औद्योगिक निगम लि.(एनएसआईसी) तथा पूर्वोत्तर विकास वित्त लि. (एनईडीएफआई) को भी इस योजना के अंतर्गत एमएलआई के रूप में शामिल किया गया है। लेकिन अनुसूचित सहकारी बैंक, शहरी सहकारी बैंक तथा ग़ैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियां सीजीएफटी की पात्र वित्तीय संस्थाएं नहीं हैं।
प्रश्न उठता है कि कैसे कोई ऋणदात्री वित्तीय संस्था इस योजना या इस न्यास के अंतर्गत गारंटी कवर की पात्र बनती है? इसके लिए पात्र ऋणदात्री संस्था को सीजीटीएमएसई के साथ एकमुश्त समझौता करना पड़ता है। इस समझौते के बाद उस संस्था को इस न्यास की सदस्य ऋणदात्री संस्था (एमएलआई) का दर्जा मिल जाता है। इसके बाद वह संस्था किसी पात्र उधारकर्ता को मंजूर ऋण सुविधा के संबंध में न्यास से गारंटी कवर के लिए आवेदन कर सकता है। अमूमन सीजीटीएमएसई सदस्य ऋणदात्री संस्थाओं पर भरोसा रखते हुए उनके द्वारा अनुमोदित ऋण प्रस्तावों को गारंटी कवर के लिए मंजूर कर लेता है। वह उन प्रस्तावों की पुनर्समीक्षा नहीं करता। वह मानकर चलता है कि इन संस्थाओं ने अपने वाणिज्यिक कौशल और अपेक्षित सावधानी (due diligence) का प्रयोग करते हुए व्यावहारिक रूप से सक्षम प्रस्तावों को ही स्वीकार किया होगा।

पात्र उधारकर्ता

इस योजना के तहत फुटकर व्यवसाय को छोड़कर विनिर्माण तथा सेवा क्षेत्र से जुड़े नए और मौजूदा दोनों प्रकार के एमएसई उद्यम पात्र उधारकर्ता होते हैं। अद्यतन स्थिति यह है कि “प्राथमिकताप्राप्त क्षेत्र को उधार” पर भारतीय रिज़र्व बैंक के दिशानिर्देशों तथा सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यम विकास अधिनियम, 2006 के अनुसार सेवा क्षेत्र से संबद्ध फुटकर व्यापार छोड़कर सभी क्रियाकलापों के लिए इस योजना के तहत ऋण और गारंटी कवर का प्रावधान किया गया है। इस योजना के तहत लघु सड़क तथा जल परिवहन ऋण पर उनके संचालकों को भी गारंटी कवर प्रदान किया गया है।
इस योजना के अनुसार पात्र उधारकर्ता से अपेक्षित है कि वह ऋणदात्री संस्था से ऋण सुविधा हासिल करने से पहले आयकर स्थायी खाता संख्या यानी आईटी पैन प्राप्त कर ले। आयकर अधिनियम, 1961 की धारा 272(सी) के साथ पठित धारा 139ए(5) के अनुसार आयकर संबंधी सभी दस्तावेजों पर पैन नम्बर दर्शाना अनिवार्य है जिनमें विवरणी, चालान, अपील इत्यादि भी शामिल हैं। एमएसएमई क्षेत्र के छोटे उद्यमों को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से सीजीटीएमएसई फिलहाल 10 लाख रुपये तक के ऋणों के मामलों में गारंटी कवर के लिए पैन पर जोर नहीं दे रहा है। लेकिन 10 लाख रुपये से अधिक के ऋण के लिए इसकी अनिवार्यता में कोई ढील नहीं देता।
किसी पात्र एमएसई उधारकर्ता को अधिकतम 100 लाख रुपये की ऋण सुविधाएं एक अथवा एक से अधिक बैंकों तथा/अथवा एक अथवा एक से अधिक वित्तीय संस्थाओं द्वारा संयुक्त रूप तथा/अथवा अलग-अलग दी जा सकती हैं बशर्ते उक्त राशि संबंधित सदस्य ऋणदात्री संस्था अथवा न्यास द्वारा निर्धारित ऋण राशि की उच्चतम सीमा से कम हो। इस संयुक्त वित्तपोषण को गारंटी कवर प्राप्त होगा। किसी स्व-सहायता समूह को दी गई ऋण सुविधा इस गारंटी की पात्र नहीं होगी।

ऋण सुविधा

इस योजना के तहत प्रति उधारकर्ता निधि तथा गैर-निधि आधारित कुल ऋण सुविधाएं मिलाकर अधिकतम 100 लाख रुपये को गारंटी कवर दिया गया है। शर्त यह है कि ये ऋण सुविधाएं किसी एमएसएमई की परियोजना की व्यावहारिकता को ध्यान में रखकर बिना किसी संपार्श्विक अथवा तृतीय पक्षकार की गारंटी के दी गई हों। निधि आधारित ऋण सुविधा में मीयादी ऋण तथा गैर-निधि आधारित ऋण सुविधा में साख-पत्र, बैंक गारंटी आदि को शामिल किया गया है।
इस योजना के अंतर्गत किसी पात्र उधारकर्ता को 100 लाख रुपये से अधिक ऋण सुविधाएं दी जा सकती हैं बशर्ते संपूर्ण ऋण बिना किसी संपार्श्विक अथवा तृतीय पक्षकार की गारंटी के दी गई हो। फिर भी गारंटी कवर केवल 100 लाख रुपये तक ही सीमित होगा। इसका मतलब है कि न्यास मामले के अनुसार 62.50 लाख रुपये यानी 75 प्रतिशत अथवा 65.00 लाख यानी 80 प्रतिशत ऋण जोखिम ही बर्दाश्त करेगा। सामान्यत: न्यास 75 प्रतिशत ऋण जोखिम को गारंटी कवर के दायरे में समेटता है; लेकिन सूक्ष्म उद्यमों को दी गई 5 लाख रुपये की ऋण सुविधाओं को वह 85 प्रतिशत गारंटी कवर प्रदान करता है। इसके अलावा न्यास महिलाओं द्वारा संचालित तथा सिक्किम सहित पूर्वोत्तर क्षेत्र के एमएसई उद्यमों को अधिकतम 65 लाख रुपये की ऋण सुविधाओं पर 80 प्रतिशत गारंटी कवर भी देता है।
इस योजना के तहत जरूरी नहीं है कि किसी एमएलआई द्वारा किसी पात्र उधारकर्ता को ऋण सुविधा के रूप में मीयादी ऋण तथा कार्यशील पूंजी दोनों एक साथ दिया जाए। फिर भी उसे गारंटी कवर का लाभ मिलेगा। इसके अलावा किसी ऋणदात्री संस्था द्वारा संपार्श्विक के आधार पर किसी उधारकर्ता को दी गई ऋण सुविधा को भी गारंटी कवर देने का प्रावधान इस योजना में किया गया है बशर्ते वह संस्था न केवल उधारकर्ता की संपार्श्विक प्रतिभूति पर से अपना अधिकार त्याग दे बल्कि न्यास से गारंटी कवर प्राप्त करने से पहले सभी संपार्श्विक आस्तियां उधारकर्ता को सौंप दे। कुछ परिस्थितियों में यदि किसी एमएलआई के लिए संपार्श्विक प्रतिभूति को अपने पास रखना जरूरी हो और उसने उसी उधारकर्ता को नई ऋण सुविधा बिना किसी संपार्श्विक के दी हो तो उसे इस गारंटी कवर दिया जा सकता है बशर्ते एमएलआई पहले वाले संपार्श्विक को किसी भी रूप में नई ऋण सुविधा से संबद्ध न करता हो।
इस योजना से लाभान्वित होने वाले एमएसई उधारकर्ताओं के ऋणों पर ब्याज की दर भारतीय रिज़र्व बैंक के दिशानिर्देशों के अनुसार लगाई जाती है। तथापि, ब्याज दर को एमएलआई की मुख्य उधार दर (पीएलआर) से किसी भी स्थिति में 3 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए। इसमें न्यास को देय गारंटी शुल्क या वार्षिक सेवा शुल्क शामिल नहीं है।

गारंटी कवर

न्यास के खाते में गारंटी शुल्क जमा की तारीख से गारंटी कवर प्रारंभ हो जाता है और वह मीयादी ऋण/संमिश्र ऋण की निर्धारित अवधिपर्यंत जारी रहता है।
यदि कोई एमएसई इकाई इस योजना के तहत ऋण सुविधा लेने के बाद कुछ अपरिहार्य कारणों से रुग्ण इकाई हो जाती है तो एमएलआई द्वारा उसके पुनर्वास या उसे सहायता देकर वापस पटरी पर लाने के लिए दिए गए ऋण को भी योजना के अनुसार अतिरिक्त समय के लिए गारंटी कवर दिया जाएगा बशर्ते उसे दी जाने वाली वित्तीय सहायता 100 लाख रुपये की अधिकतम सीमा के भीतर हो। इसके मानदंड न्यास द्वारा निर्धारित किया जाएगा।
एमएलई द्वारा किसी पात्र एमएसई उधारकर्ता को दी गई ऋण सुविधा के संबंध में न्यास का गारंटी कवर निम्नलिखित परिस्थितियों में समाप्त हो जाएगा:
i. न्यास को बाद में यह पता चले कि एमएलआई ने किसी पात्र उधारकर्ता को संपार्श्विक अथवा तृतीय पक्षकार की गारंटी लेकर ऋण सुविधा प्रदान की है।
ii. न्यास को बाद में यह पता चले कि एमएलआई ने किसी पात्र उधारकर्ता को संपार्श्विक अथवा तृतीय पक्षकार की गारंटी लेकर दूसरी/उत्तरवर्ती ऋण सुविधा संपार्श्विक अथवा तृतीय पक्षकार की गारंटी के आधार पर मंजूर की है और उस मौजूदा ऋण सुविधा को भी उसके दायरे में लाने का काम किया है जिसके लिए पहले से उसे न्यास का गारंटी कवर प्राप्त है।
iii. न्यास को विनिर्दिष्ट समय या न्यास द्वारा बढ़ाई गई समय सीमा के भीतर वार्षिक सेवा शुल्क का भुगतान न किया गया हो।
iv. गारंटी कवर की समय सीमा समाप्त हो गई हो।
एमएलआई ऋण चुकौती में चूक होने पर गारंटी का दावा कर सकता है। तथापि, वह प्रारंभिक अवरुद्धता अवधि की समाप्ति यानी गारंटी कवर शुरू होने की तारीख से 18 महीने अथवा ऋण के अंतिम संवितरण की तारीख से पहले, इनमें से जो भी बाद में हो, और गारंटी कवर की अवधि समाप्त होने के बाद गारंटी के लिए कोई दावा नहीं कर सकता। नियमानुसार एमएलआई द्वारा किए गए दावे एवं ऋण की वसूली प्रक्रिया के विभिन्न पहलुओं से संतुष्ट होने के बाद सीजीएफटी मामले की प्रकृति के अनुसार चूक की गई राशि के गारंटीकृत अंश का 75 प्रतिशत या 80 प्रतिशत गारंटी देगा। शेष 25 प्रतिशत का भुगतान वसूली प्रक्रिया पूरी होने के बाद किया जाएगा। वसूली की पूरी जिम्मेदारी एमएलआई की होगी।
यदि किसी मामले में किसी ऋण सुविधा का कुछ अंश ईसीजीसी या किसी सरकारी या सामान्य बीमाकर्ता या बीमा, गारंटी या इंडेम्निटी का व्यवसाय करने वाले किसी व्यक्ति या व्यक्तियों के संघ द्वारा अतिरिक्त गारंटी कवर के अधीन है तो उस ऋण सुविधा का उतना अंश इस सीजीटीएमएसई योजना के अनुसार न्यास के गारंटी कवर का पात्र नहीं होगा।
लोक अदालत के अंतर्गत जारी नोटिस के आधार पर गारंटी का दावा भी किया जा सकता है और गारंटी की पहली किश्त प्राप्त भी की जा सकती है क्योंकि लोक अदालत की नोटिस को कानूनी प्रक्रिया का प्रारंभ माना जाता है। इसके ठीक विपरीत वित्तीय आस्ति प्रतिभूतिकरण और पुनर्गठन अधिनियम,2002 के अंतर्गत मात्र जारी की गई नोटिस के आधार पर गारंटी का दावा नहीं प्रस्तुत किया जा सकता। इसके लिए एमएलआई को उक्त अधिनियम की धारा 13(4) के उपबंध के अनुसार कार्रवाई करनी होगी।

प्रतीक चिह्न
सीजीटीएमएसई को जोड़ने वाली तीन नीली पट्टियां सुविधा, आशा तथा प्रेरणा को दर्शाती हैं और अग्निशिखा उस सतत सहयोग को दर्शाती जो यह न्यास उद्यमियों को खुद का उद्यम स्थापित करने का सपना साकार करने के लिए देता है।
इस अग्निशिखा के चारों तरफ पीला रंग इस न्यास द्वारा एमएसई उद्यमियों को संपार्श्विक प्रतिभूति तथा/अथवा तृतीय पक्षकार की गारंटी से चिंतामुक्त करके अपना उद्यम खड़ा करने की ऊर्जा प्रकट करता है।
CGTMSE शब्द के ऊपर का त्रिकोण औद्योगिक इकाई तथा उसकी ऊर्ध्वाधर प्रगति का प्रतीक है।
देवरिया

कस्बों और नगरों की वैचारिकी है पत्रकारिता। उनके छोटे-बड़े सुख-दुःख का बेतरतीब सा कोलाज। देवरिया रूपक है. इस बार इसके इस पहलू का भाष्य सुशील कृष्ण गोरे ने किया है.कस्बों को केन्द्र में रखकर इस वैचारिकी का एक सिरा subaltern अध्ययन से जुड़ता है जहां हाशिए की सक्रियता की पहचान और परख है तो दूसरा सिरा पत्रकारिता के अपने इतिहास से जहां कस्बों की इस लेखा–जोखी पर अभी उपेक्षा का भाव है. यह अपने आप में एक महान उद्देश्य और जिम्मेदारी के पतन की दयनीयता पर एक गाथा भी है॥ शोध की वैचारिक सघनता और भाषा की दमक यहाँ है. (अरुण देव)

पत्रकारिता की जमीन

बाबूराव विष्णुराव पराड़कर, भारतेन्दु हरिश्चंद्र, महावीर प्रसाद द्विवेदी आदि की कर्मभूमि बनारस ने परवर्ती समय में हिन्दी के जितने पत्रकार देश को नहीं दिए उससे कहीं ज्यादा अकेले देवरिया शहर ने पैदा किए होंगे. पता नहीं कौन सी सोच इस शहर पर तारी है कि यहाँ का बच्चा-बच्चा अपने जिले के डी.एम. और पुलिस कप्तान के नाम जानता हो या न जानता हो; लेकिन एसपी, बीएसपी, बीजेपी, कांग्रेस के जिलाध्यक्ष और नगरपालिका के भूतपूर्व चेयरमैन तक के नाम बाज़ाफ्ता याद रखता है. उसके भीतर किसी शार्टकट की बदौलत जिंदगी में जल्दी से सफलता हासिल करने की एक अनजानी-सी चाहत और अबुझ प्यास अपने घर के आँगन से ही पैदा हो जाती है. जुगाड़ या शार्टकट के प्रति अगाध विश्वास उसे परंपरा से प्राप्त है.

मैंने तो इस शहर में ऐसी माएँ देखी हैं जो अनपढ़ होकर भी इस जमाने के बदलते कायदे-कानूनों से तंग आकर अपने बच्चों को भगतसिंह या गांधी नहीं; योगी आदित्यनाथ या अमर सिंह बनने के लिए ललकारती हैं. उन्हें कभी-कभी इस बात का भी मलाल होता है कि उन्हें किसी ने प्रेरित नहीं किया वर्ना वे खुद भी किसी मायावती से कम न होतीं. उत्तर प्रदेश के बाहर यह कहानी सुनाई जाए तो वहाँ के लोग बड़ी हसरत से सुनते हैं क्योंकि सुनकर उन्हें लगता है कि इस प्रदेश में बड़ा दम है. देखो! कैसे यहाँ के बच्चों को सत्ता पर पहला प्रवचन खुद उनकी माएँ देती हैं. लेकिन क्या इस राजनीतिक संस्कृति से इस प्रदेश और पूर्वाञ्चल के इस अत्यन्त गरीब और बदहाल जनपद का कोई भला हो सकता है. उत्तर अधिकतर 'नहीं' ही होगा. इसकी भी एक वजह है.

पोस्ट एल.पी.जी. (लिबरलाइजेशन, प्राइवटाइजेशन, ग्लोबलाइजेशन) दौर में अब हमारा देश आंकड़ेबाजी के आधार पर ही सही लेकिन धीरे-धीरे 'पिछड़ा' और 'विकासशील' आदि विशेषणों के केंचुल से मुक्त हो रहा है. शेयर बाजारों के सूचकांक और जीडीपी का स्तर ऊँचा हो रहा है. ग्रोथ को एक पवित्र मंत्र में ढाला जा रहा है. मॉल, मल्टिप्लेक्स, आईटी हब, नॉलेज पार्क आदि के रूप में ग्रोथ के विराट प्रतीक गढ़े जा रहे हैं. आप यहाँ रुककर समतामूलक समाज, सामाजिक न्याय, सर्वसमावेशी विकास, गरीब-अमीर, पिछड़े-अगड़े-दलित के टकराव, शहरी-ग्रामीण के तनाव बिन्दुओं का समकालीन बहस छेड़ सकते हैं. आप अगर ज्यादा अतीतग्रस्त निकले तो भारत के गाँव और उसकी खेती की शश्य-श्यामल यादें आपको रुला भी सकती हैं.

लेकिन आज बाजार सर्वेसर्वा है. कार्पोरेट एक कल्चर है. मल्टीप्लेक्स एक मंदिर है. साहित्य, संगीत, सिनेमा, कला, पत्रकारिता बाजार के स्पेस में मिथकीय उत्पाद सदृश हैं. ईश्वर की उपस्थिति भी उपभोग के आनंदोत्सव से रेखांकित हो रही है. ऐसे दौर में मोटे दिमाग से काम नहीं चलेगा. सुबह उठकर केवल 'राम-राम' का जाप और उसके बाद दिया-बाती तक घर के भीतर और घर के बाहर अमर ज्योति चौराहे पर चाय-पान की दुकानों और जमुना गली की बर्तन, सर्राफा या गल्ले की दुकानों में सेठों के सानिध्य में बैठकर मोहन से लेकर मनमोहन सिंह तक पर लंबी तकरीरें करना और फलां यादव या फलां मिसिर के चरित्रों पर केंद्रित सिर्फ निंदा-रस प्रधान बतकुच्चन जीवन के लिए घातक सिद्ध होगा. अब तक चली आ रही जीने की यह शैली जीवन की नय्या मझधार में भी फँसा सकती है.

देवरिया एक ऐसा शहर है जो आज भी अपने भदेसपन पर गर्व करता है और उस पर कुहनी टिकाए बदलते भारत को अपलक निहार रहा है. इस शहर के संस्कार में है कि वह अपने बच्चे-बच्चियों को 'रामचरितमानस' से पहले 'ईदगाह' और 'गोदान' पढ़ने के लिए देता है. यहाँ के बच्चे जितना अज्ञेय और निर्मल वर्मा को जानते हैं उतना ही कीट्स और वर्ड्सवर्थ के बारे में भी जानते हैं. यह बात दीगर है कि उन्हें अपने अँग्रेजी अध्यापक की तरह अँग्रेजी बोलना नहीं आता है क्योंकि उनको तो कोर्स में शेक्सपियर और मिल्टन की कविताएँ भी हिन्दी में ही पढ़ाई गईं हैं. बेशक उन्हें अँग्रेजी कम आती है और वे अँग्रेजी के अखबार नहीं पढ़ते हैं. लेकिन ऐसा नहीं कि 'तीसरे पेज' की दिलकश खब़रों से उनका कोई वास्ता ही नहीं.

बगल के बैकुंठपुर, बैतालपुर और रामपुर कारखाना से रोजाना साइकिल पर बैठकर देवरिया में कानून या कृषि की पढ़ाई करने आने वाले पचासों छात्रों के खुरदरे चेहरे और शर्ट की ट्विस्टेड कॉलर पर मत जाइए. ऊपर से आपको वे रूखे और साहित्य-संगीत-कलाविहीन टाइप के लग सकते हैं. लेकिन उभारा जाए तो हरेक के भीतर गुरुदत्त की सौंदर्य-दृष्टि और बलराज साहनी की सिनेमैटिक रूमानियत के दर्शन हो जाएंगे.

अंग्रेजी में कमजोर होने के बावज़ूद यहाँ पराक्रमी पाठकों का एक महादेश बसता है. अपने समस्त अभावों और अपने ऊपर लगाए गए समस्त लांछनों के बावजूद अखबार और पत्रिकाएँ पढ़ने के मामले में हिन्दी हार्टलैंड या तथाकथित बीमारू राज्य या काउबेल्ट का भूगोल राष्ट्रीय स्तर पर सबसे आगे है. टाउन हाल और नागरी प्रचारिणी सभा के आर्यभाषा पुस्तकालय का फेरा लगाने वाले विद्यार्थी भी यहाँ हैं जिनकी भूखी निगाहें आई.ए.एस., पी.सी.एस. के लिए जनरल नॉलेज की तलाश करते-करते बालीवुड तो क्या, इंटरनेशनल पेज पर छपी हालीवुड की अर्द्धनग्न अदाकाराओं की नयनाभिराम तस्वीरों का भी सर्वेक्षण करती रहती हैं.

यह जेननेक्स्ट 'निग़ाहें मिलाने को जी चाहता है' के तरन्नुम में पामेला एंडरसन, शकीरा, ब्योएंस, मिली साइरस से लगाए एंजिलिना जोली और प्रियंका, कैटरीना, दीपिका और करीना जैसी अपनी ‘हार्ट्थ्राब्स’ के नाम एक सांस में गिना सकता है. एक प्रकार से यह कहा जा सकता है कि देवरिया के यंगिस्तान में सौन्दर्य और साहित्य का तो बोध है लेकिन इंस्टन्ट युगबोध नहीं. उनमें घर किया 'जुगाड़ का सिद्धांत' उन्हें समय की ऊर्जा से जुडने नहीं देता. वह दक्षिण और पश्चिम के राज्यों के स्किल, इंटरप्राइज और मैनेजमेंट के मंत्रों को अपने भीतर विकसित नहीं कर पाता. उसे नगर की स्काईलाइन पर सदियों से लटकी फंतासियों में जीने की जिद है.

ब्यूरो प्रमुख का अंडरवर्ल्ड और अख़बारों से टूटकर गिरी उत्तुंग प्रतिबद्धताएं

इस युवा को देवरिया में उजड़े-से अंधेरे-बंद कमरों में बने अखबारों के ब्यूरो कार्यालय सत्ता के केंद्र लगते हैं और वहाँ से टूटी-फूटी कुर्सी पर बीड़ी-सिगरेट के टुकड़ों के अंबार के बीच बैठकर डी.एम., एस.पी. और एम.पी., एम.एल.ए. से सीधे फोन पर शान से बात करता बी.ए. पास पत्रकार किसी नायक से कम नहीं लगता. वह पत्रकार की हैसियत को रोमैंटिसाइज़ करने लगता है और कचहरी रोड स्थित ब्यूरो कार्यालयों को लोकल सत्ता के ऐसे गलियारे मानने लगता है जहाँ से पार्षद से लगाय पार्लियामेंटेरियन तक की कुंडलियाँ बनाई और बिगाड़ी जाती हैं. वह देखता है कि चपरासी और ड्राइवर बनने की योग्यता जुटाने से अच्छा तो यही है कि देवरिया का पत्रकार बन जाओ.

यदि कोई बड़ा बैनर अपने किसी ब्लाक, तहसील या जिला मुख्यालय कार्यालय से अटैच न भी करे तो चार पेज का साप्ताहिक खुद निकालकर उसका प्रबंध संपादक बनने का अवसर भी हाथ से गया नहीं है. जिस कलेक्टर को कलेक्टर बनने में एड़ी से पसीने छूटे होंगे वह भी देवरिया में इन पत्रकारों के हुक्म को नज़रअंदाज नहीं कर सकता. उसे इनके बच्चों के जनेऊ, बर्थडे, शादी-ब्याह इत्यादि के कार्यक्रमों में अपनी नीली बत्ती वाली गाड़ी में ब्यूरो चीफ के घर पधारना ही पड़ता है; क्योंकि वह देवरिया में पोस्टिंग मिलते ही ताड़ लेता है कि इन तथाकथित वरिष्ठ पत्रकारों और ब्यूरो प्रमुखों के तार भूत, भविष्य और वर्तमान के सभी विधायक और सांसदों के साथ जुड़े हैं. पार्टी कोई भी हो उस पत्रकार की पहुँच उसके सुप्रीमो तक है. बराबर दूरी पर उसके रिश्ते सभी के साथ हैं. स्थानीय गुंडे, शहर के धन्नासेठ, जिला पंचायत अध्यक्ष, नगर पालिका चेयरमैन, तहसीलदार, ट्रैफिक पुलिस, रेलवे आरक्षण केंद्र का बाबू, शराब का ठेकेदार, मुर्गा-मछ्ली के विक्रेता और शहर के सभी स्कूल-कालेजों के प्रिन्सिपल सब इनके हुक्म के तावेदार होते हैं. इस प्रकार आप देखेंगे कि ब्यूरोक्रेसी की नाक में नकेल डालने वाले एक प्रभुवर्ग के रूप में पत्रकारों की एक नई शक्तिपीठ यानी journacracy का उभार देवरिया में बहुत पहले हो गया था. फिर ऐसे प्रोफेसन के प्रति यहाँ की नई पीढ़ी का दुर्निवार आकर्षण आखिर क्यों न हो?

यहाँ के पत्रकार शिरोमणियों को भारत सरकार के औद्योगिक विवाद अधिनियम, वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट, 1955, पालेकर वेज बोर्ड, बछावत आयोग, मणिसाना वेतन आयोग, आईएनएस, एटिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया, इंडियन प्रेस काउंसिल इत्यादि का ज्ञान भले ही न हो लेकिन वे लोकल दाँवपेंच से न केवल गोरखपुर, लखनऊ, बनारस, इलाहाबाद के अख़बारों के संवाददाता या ब्यूरो प्रमुख की हैसियत हथिया लेते हैं बल्कि कुछ तो प्रिंसीपली, बीमा कंपनियों की एजंटई आदि के अपने मूल पेशे के समानांतर दिल्ली तक के अख़बारों से स्ट्रिंगर का बिल्ला झटककर उसे हमेशा अपनी जेब में डालकर और उसके सम्यक परिचय का स्टिकर अपनी मोटर साइकिल और कार पर भी चिपकाकर जिला कलेक्ट्रेट, नगर पालिकाओं, जिला सूचना निदेशक के दफ्तर से लेकर नगर सेठों के प्रतिष्ठानों के चक्कर लगाते रहते हैं. चूँकि पूर्वी उत्तर प्रदेश के इस अंचल में रोजी-रोजगार, मिल-फैक्टरियों का आदिम अभाव है और बीपीओ, मॉल-मल्टीप्लेक्स के आगमन के केवल बेबीस्टेप्स ही दिखाई दे रहे हैं इसलिए समाचार पत्र-समूहों को सस्ते में पत्रकारों की एक पूरी पीढ़ी द्वारपूजा के लिए हमेशा तैयार खड़ी मिलती है.

ऐसे में पत्रकारिता यहाँ न तो कोई मिशन है और न ही धर्मसंस्थापनार्थाय: बल्कि वह सर्वाइवल के संकट से उबारने वाले ब्रह्मास्त्र का प्रतीक है. यह रोजी में बरकत का साधन सिद्ध करने वाली कलियुगी पत्रकारिता में रिड्युस होकर रह गई है. 'पेड न्यूज' देश के लिए भले ही एक नई सनसनी हो लेकिन देवरिया में इसका देहाती फार्मूला दशकों से चल रहा है. इसका आविर्भाव कुर्ता-पाजामा शुल्क से शुरू हुआ था जिसकी परंपरा यदि इन दिनों परवान चढ़कर राडियावाद के नए गुल खिला रही हो तो कोई आश्चर्य नहीं. लाइजनिंग या लॉबिइंग तो दिल्ली की इलिट और अंग्रेजी पत्रकारिता से नि:सृत शब्द हैं लेकिन ग़ौर से तहें उठाकर देखा जाए तो देवरिया की पत्रकारिता में भी पुरुष नीरा राडियाओं और दिल्ली-मुंबई के सेटेब्रिटी पत्रकारों जैसे न जाने कितने चरित नायक सक्रिय रहे हैं जो स्वाधीनता संघर्ष और सामाजिक-राजनीतिक बदलाव में काम आई पत्रकारिता की इस मशाल की आग में अपने न्यस्त स्वार्थों की रोटियाँ सेंकते रहे हैं. लोकतंत्र के इस चौथे स्तंभ को अपना पता बताकर सत्ता और कॉरपोरट के गलियारों से राज्यसभा का टिकट, आदर्श हाउसिंग सोसाइटी, डीडीए के फ्लैट का जुगाड़ करने, राजधानियों में पत्रकारपुरम बसाने, प्रेस क्लब चलाने के फायदे हासिल करने वाले धुरंधर खिलाड़ियों के नाम बेशुमार हैं.

20 साल पहले देवरिया की पत्रकारिता में फिर भी एक तेवर था जो आज लुंपेन एलीमेंट के हाथों में पड़कर जनमन से एकदम कट गई है. तब यहाँ से ग्राम स्वराज, आकाश मार्ग, पावानगर टाइम्स, दिल्ली देवरिया टाइम्स, युग वातायन, जनचक्षु जैसे अनेक साप्ताहिक और पाक्षिक निकल रहे थे जो अपनी तमाम सीमाओं के बावज़ूद जनभावनाओं के दर्पण थे. तह वह दौर था जब देवरिया की धरती पर अखबारों का इतना मशरूम ग्रोथ हुआ कि उसके आगे लखनऊ और दिल्ली का मुँह शर्मा जाए. लेकिन पेशे से प्राध्यापक टाइप के कुछ आदर्शवादी पत्रकारों के कारण देवरिया कि पत्रकारिता पर दाग नहीं लगने पाया. तब अखबारों के मालिक और संपादकों का प्रच्छन्न सरोकार व्यावसायिक होने के बावज़ूद निर्लज्ज ठेकेदारी नहीं थी. आप यह भी कह सकते हैं कि अखबार निकालने वाले धन्नासेठों के सामने व्यवसाय के इतने विराट अवसर उपलब्ध नहीं थे. अन्यथा उनमें किसी तिलक या किसी गोखले की राष्ट्रवादी चेतना अनुस्यूत नहीं थी. वे कोई उदंत मार्तण्ड तो नहीं निकाल रहे थे लेकिन फिर भी वे इस पिछड़े जनपद के परिदृश्य पर दैनिक अख़बारों का एक नया अध्याय तो लिख ही रहे थे.

उस ज़माने में अखबारों के बीच जो भी प्रतिस्पर्धा थी वह अखबारों की आइडियोलॉजी और उसमें छपे कंटेन्ट के आधार पर होती थी. विज्ञापन का बोझ पत्रकारों को नहीं उठाना पड़ता था. देवरिया शहर और जिले की इकॉनमी में व्यापार ज़िंदगी की निहायत जरूरी चीजों तक ही सीमित था. उस समय पाठक अखबार में समाचार के बाद देवरिया के नैना, विजय और अमर ज्योति टाकीजों में चल रही फिल्मों के नाम ढूँढ़ता था. यह अलग बात है कि उस समय के माँ-पिताओं को अपने लिए सत्यम-शिवम-सुंदरम, एक ही भूल या इंसाफ का तराजू या राम तेरी गंगा मैली अश्लील फिल्में नहीं लगती थीं; लेकिन बच्चों के लिए वे जय संतोषी माँ ही निर्धारित करते थे. सोचिए! उस दौर के जीवित माँ-पिताओं पर क्या बीतता होगा जब उनकी आँखों के सामने ही उनके नाती-पोते "मुन्नी बदनाम हुई" या "शीला की जवानी" सुनते-देखते बड़े हो रहे हैं.

तब उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल के कॉलेजों या बनारस, इलाहाबाद या गोरखपुर विश्वविद्यालयों से बी.ए./एम.ए. करके निकले ज्यादातर मूलत: प्राध्यापक पत्रकार लॉबिइस्ट नहीं थे. वे एक 'जस्ट लिबरेटेड' देश के शायद पहले तरुण थे. इसलिए उनमें स्वाधीनता आंदोलन के ज़ज्बे का तेवर था. लेकिन उनमें से ज्यादातर के ज़हन में आजादी की लड़ाई की धुँधली छवियाँ मात्र थीं अर्थात् उनकी वैचारिकी के निर्माण के साथ स्वाधीनता के संघर्ष के प्रत्यक्ष अनुभवों या उसमें उनकी किसी भूमिका का सीधा जुड़ाव नहीं था. लेकिन वह संयोग से आजादी के बाद की ढलान पर सबसे ताजा और अद्यतन पीढ़ी थी. आंदोलन का पहला तीव्र संस्कार उनमें जिस स्रोत से आया था वह जे.पी.मूवमेंट था. संपूर्ण क्रांति का पैशन पहली बार देवरिया के इन बुद्धिजीवी पत्रकारों में आपादमस्तक संचरित हुआ था. वे हर सरकारी दमन के प्रतिरोध और विद्यमान परिस्थितियों में मुकम्मल हस्तक्षेप के आदर्शीकृत रोलमॉडल बनते जा रहे थे. इमरजंसी या आपातकाल अगर देश के लिए एक दु:स्वप्न था तो यह देवरिया की पत्रकारिता के लिए भी किसी अग्निपरीक्षा से कम नहीं था. सरकारी मशीनरी ने 'मीसा' की जकड़न जितनी तेज की देवरिया के पत्रकार उसके खिलाफ़ कमांडो या मार्कोस की तरह उतनी ही तेज कार्रवाई करने के लिए जाने गए. मुझे थोड़ा-बहुत याद आता है कि इन पत्रकारों की लेखनी को तेजस्वी धार देने के लिए पर्दे के पीछे बाकायदा एक इंटेलिजेंसिया ग्रुप भी काम कर रहा था.

तुम मुझे पत्रकार दो और मैं तुम्हें.... यानी हर घर से एक पत्रकार

दैनिक जागरण के गोरखपुर संस्करण के आगमन के बाद इस क्षेत्र की पत्रकारिता में एक नया मोड़ भी आया और रफ्तार भी. समाचार का महत्व देवरिया के लोगों को सबसे पहले इसी अख़बार को पढ़कर समझ में आया. देवरिया से जिस प्राध्यापक को इसका पहला जिला संवाददाता नियुक्त किया गया था, मुझे याद उस व्यक्ति ने स्वयँ अपनी साइकिल पर लेई का डिब्बा टांगकर और "खुल गया"... "खुल गया…" टाइप के छोटे-छोटे पोस्टर लेकर रात के अंधेरों में शहर की दीवारों पर उन्हें चिपकाया था. इस अख़बार को जो शुरूआती लोकप्रियता हासिल हुई उसी की विरासत या यूँ भी कह सकते हैं कि उसके साथ एक बार पनपा मोह ही है जिसके बल पर आज भी यह अख़बार नंबर वन की पोजिशन में बना हुआ है.

इसका रहस्य समझने के लिए अगर ग़ौर से पीछे देखा जाए तो हम पाएंगे कि प्रारंभ में यह अख़बार लोगों के साथ सुख-दुख का एक रिश्ता कायम करने में सफल हो गया. वह शहर के प्रतिष्ठित घरों में होने वाली शादियों को समाचार बनाकर फोटो के साथ छापता था. किसी घर से किसी लड़के या लड़की ने 10वीं या 12वीं बोर्ड की परीक्षा में प्रथम श्रेणी मार ली तो उसका छोटा प्रोफाइल फोटो के साथ दैनिक जागरण में छपना तय था. किसी की दुकान या नए होटल या नए व्यावसायिक प्रतिष्ठान के खुलने पर जिला कलेक्टर या माननीय विधायक के कर-कमलों से फीता कटते फोटो के साथ समाचार लगाने में भी यह अव्वल निकला. बाकी छात्र संघों और तमाम राजनीतिक दलों के छोटे से छोटे और उभरते नेताओं की प्रेस-विज्ञप्तियों का भी यहाँ सम्मान था. मानना पड़ेगा इस अख़बार ने कइयों का पोलिटिकल रोडमैप तैयार किया. श्री कृष्ण श्रीवास्तव, महेश अश्क, डॉ.सदाशिव द्विवेदी के हाथों में इसका संपादकीय नेतृत्व और समाचार लेखन हुआ करता था.

जागरण की तर्ज़ पर आज, राष्ट्रीय सहारा और स्वतंत्र चेतना के गोरखपुर संस्करण भी रेस में शामिल थे. बिहार, नेपाल और उत्तर प्रदेश के त्रिकोण पर हर साल नारायणी नदी अपना कहर ढाती थी. पूरे क्षेत्र में जलप्रलय और गरीब ग्रामीण जनता की बेइंतहा मुसीबतें देवरिया से पत्रकारों के झुंड के लिए जिला सूचना अधिकारी के इंतजाम से गाड़ियों में बैठकर नेपाल की सीमा पर बाल्मिकी नगर तक की यात्रा का एक अवसर होती थीं. वे पानी से घिरे गांवों और गांववालों की त्रासदी नोट करते थे और दूसरे दिन की फ्रंट पेज खबरें बनाते थे. तब डी.एम. साहब भी पत्रकारों के साथ आग या बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों का दौरा करते थे.

देवरिया से निकलने वाले साप्ताहिकों के कई पत्रकार तो संपादक-प्रकाशक-लेखक-प्रूफरीडर-टाइपसेटर-हॉकर और अंत में स्वत्वाधिकारी सब कुछ को मिलाकर एक पैकेज पत्रकार के रूप में कार्य करते थे. इन ऑल-इन-वन टाइप पत्रकारों के लिए तो सरकारी गाड़ी से बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों का दौरा करने के बहाने लार-सलेमपुर या नेबुआ नौरंगिया जाना एक जबरदस्त आत्ममुग्धावस्था में पहुंचने के बराबर होता था. जिलाधीश उनके लिए किसी जिल्लेइलाही से कम नहीं होता था. यह पत्रकारिता में रोमांच की गुदगुदी का दौर था. अन्यथा क्यों एक ही आदमी ऑल-इन-वन बनकर चार पेज का ही सही लेकिन एक अखबार छापने के जुनून से भरा रहता; वही लिखता था, मिटाता था, संपादित करता था, प्रूफ पढ़ता था और अंत में बंडल बनाकर साइकिल के कैरियर में दबाकर बांस देवरिया, कचहरी चौराहा से लेकर राम गुलाम टोला तक में हॉकर की तरह अपना अख़बार बाँटता भी था. यानी हर कीमत पर एक पत्रकार.

देवरिया ऐसे पत्रकारों की नर्सरी था. ढेर सारे अख़बार थे. ढेरों पत्रकार थे. उनके बीच शहर में लॉयन, लियो, रोटरी और इंटरैक्ट क्लब थे. इन क्लबों के अधिवेशन थे. टाउन हॉल के पीछे या जिला परिषद के सभागार में होने वाले उनके पदग्रहण समारोह थे. उस जमाने में क्लब में आने वाली कुलीन घराने की सुंदर और सुरुचिसंपन्न औरतें थीं जिन्हें नजदीक से देखना हिंदी के पत्रकारों के लिए एक रचनात्मक थ्रिल हुआ करता था. चूंकि क्लबों के संपन्न और रसूख वाले दंपतियों को कलेक्टर और एस.पी. के साथ खड़ा होकर अपने चमकदार चेहरों को अखबार में प्रकाशित करवाने का शौक था इसलिए वे नगर के सभी छोटे-बड़े पत्रकारों को अपने कार्यक्रमों में बुलाते थे और उन्हें लजीज दावत भी खिलाते थे. इसी तरह के क्षणभंगुर सुखों की मृगमरीचिका से होकर देवरिया की साठोत्तरी पत्रकारिता का कारवां गुजरा है. उसका यथार्थ उसका पैशन था और उसकी तलाश में एक यूटोपिया. वह बंजारा मन की पत्रकारिता थी. उसमें एक मुद्दे पर ठहराव का धीरज नहीं था.

उसमें त्वरा थी. आवेग था. उसमें ज्यादा जोड़तोड़, गठबंधन या समझौतों की चालाकियां भी नहीं थीं. वह एक बनती हुई विधा थी. उसमें प्रोफेशनलिज्म का तड़का नहीं था. उन दिनों देवरिया के पत्रकार चुनी हुई चुप्पियां ओढ़ने की बज़ाय राजीव गांधी सरकार के मानहानि विधेयक और जिले के किसी भी पत्रकार के साथ किसी थानेदार द्वारा गलती से भी की गई किसी भी बदसुलूकी को गंभीरता से नोट करते थे और राजीव गांधी तथा थानेदार के खिलाफ़ संग्राम छेड़ने में कोई भेदभाव नहीं किया करते थे. वे जिला पत्रकार संघ, देवरिया प्रेस क्लब, जिला श्रमजीवी पत्रकार संघ इत्यादि का संयुक्त मोर्चा बनाकर शासन-प्रशासन से आरपार की लड़ाई लड़ने की मुद्रा में आ जाते थे. आज के अंतर्कलह, लंगीबाजी, टांग खिचौवल में माहिर, विघ्नसंतोषी और समीकरण बैठाने में उस्ताद ब्यूरो प्रमुखों को तो सिर्फ़ एक ही चिंता सताती रहती है कि कोई उनकी कुर्सी खिसकाने की साजिश तो नहीं रच रहा है. ये सभी अपने को किसी वेद प्रताप वैदिक, राम बहादुर राय, राहुल देव से कमतर नहीं समझते. इन दिनों जिस तामझाम से इन मठाधीश पत्रकारों की सवारी नगर के बीच से गुजरती है उसका प्रताप उनमें एक सत्ता-बोध और एक शक्ति-संस्था होने का आत्मदर्प भरता है...

आप इस नगर में कभी आएं तो कचहरी रोड या सिविल लाइन्स जरूर जाएं. वहां राजेन्दर पानवाले और तिवारी पानवाले की चार हाथ की दूरी पर अगल-बगल दुकानें हैं जिनके बीच फैले तनाव और आपसी जलन का कत्था-चूना बिखरा हुआ आपको अवश्य मिल जाएगा. हर पल एक खतरा उमड़ता रहता है - कब किस बात पर दोनों के बीच पानीपत खड़ा हो जाए कोई नहीं जानता. यहां आपको पान खाने वालों से ज्यादा पान की दुकानें और अख़बार से ज्यादा पत्रकार विचरण करते मिलेंगे. यह देवरिया का बहादुर शाह जफ़र मार्ग है. कुछ लोग पान और पत्रकारिता के इसी ओवरडोज के आधार पर नगर को डुप्लिकेट काशी भी कहते हैं.

Sunday, January 16, 2011

मुंबई



सी-लिंक पर दौड़ता ज़िंदगी का कारवां
मुंबई - 1
आधी हक़ीकत आधा फ़साना
मुंबई में मेरा नौवां साल चल रहा है। पहले दिन से आज तक के सफ़र में बहुत कुछ घटा-बढ़ा है। अपने लोगों से संपर्क लगातार घटा है लेकिन संवेदना के धरातल पर अपने छोटे से शहर देवरिया, वहां के लोग और उनसे मिलकर बना सारा परिवेश मेरी स्मृति में पहले अधिक सघन हुआ है। बीच-बीच में एक जगह दिल्ली के मेरे दिनों के लिए उभरती रहती है। सन् 1996 के सितंबर महीने से पहले देवरिया शहर ही मेरी दुनिया थी। समय की धूल हटाकर देखता हूँ तो वहां गुजरा एक-एक क्षण एक जीवंत तस्वीर की भांति आँखों में लहराने लगता है। उस वक्त का समूचा प्रतिबिंब आज भी मेरे एकांत का आत्मीय हिस्सा होता है। अगर वो हिस्सा न होता तो जीवन के प्रति अगाध आस्था न बनती। मनोबल और इच्छाशक्ति की जड़ों में मजबूती उन्हीं शिराओं से पहुंचती है जो एक छोर पर मेरे शहर, मेरे मोहल्ले, मेरे लंगोटिया यारों और उन सबके सम्मिलन से उपजे एक स्थानीय लोक संसार की आत्मा से जुड़ी है। अपने घर का वात्सल्य और अपने शहर का सुरक्षित आश्रय भिन्न संस्कृति, भिन्न बोली-बानी वाले एक नितांत निस्संग शहर में बेहद शिद्दत से एक कचोटते एहसास की तरह याद आती है।

मुंबई का जीवन धन-दौलत और असीमित प्रतियोगिता की कील पर टिकी एक मरणशील सभ्यता का पर्याय है। जीवन यहाँ तक आकर वास्तव में मृयमाण हो जाता है। ऐश तथा ऐश्वर्य को ही जीवन का मूलमंत्र मानने वाली सभ्यता में जीवन कितना बेबस, लाचार, कितना भंगुर और कितना दु:सह्य हो जाता है, इस सर्द सच्चाई की ग़वाह है मुंबई। जीवन के जितने भी उद्दात आयाम हैं, जीवन में जितनी मानवीयता होनी चाहिए उन सबका अवसान हो जाता है मुंबइया वैभव के शिखर पर। यहीं से एक समुद्र के प्यास की कहानी भी शुरू होती है। एक कल्पनापाँखी स्वप्न के अंत की शुरूआत भी यहीं से होती है। हिन्दी सिनेमा ख़ासकर बचपन में देखी हुई श्री अमिताभ बच्चन की तकरीबन सभी फिल्मों ने मेरे मानस पर मुंबई की जो मोहक छवि बनाई थी वह मुझे यहां नहीं मिली। होगी अगर कहीं तो मैं नहीं जानता और शायद मेरी ही तरह लाखों-लाख रूमानी युवाओं के लिए भी वह दुनिया अगम-अगोचर ही होगी। आज के मोहरे और मुहावरे पास में न हों तो महानगर का सारा आकर्षण एक यंत्रणादायी चुभन बन जाता है। सिर्फ़ परिधियां हमारी हैं। दायरे हमवार हैं। हमारी सहायता में तब सिर्फ़ आस्था, साधना, संस्कार चैनलों के साधु-बाबाओं की लच्छेदार तकरीरें या फिर हमारे मध्यवर्गीय संस्कारों में लिपटी खोखली धार्मिकता अपनी हजारों साल पुरानी भूमिका में आ खड़ी होती है। व्यावसायिक धर्म के पैकेज को खाए-पिए-अघाए और निराश-थके दोनों ही प्रकार के लोगों के अपने-अपने खालीपन में एक आकर्षक बाजार मिल जाता है। न जाने क्यों सिंहस्थों, शोभा-यात्राओं, हवनों, देवी-जागरण और शाही-स्नानों से निर्मित दुनिया भी अपनी नहीं लगती। इसलिए प्रसंगवश श्रीकांत वर्मा की दो पंक्तियाँ दोहराना चाहूँगा... "जो मुझसे न हो सका वो मेरी दुनिया नहीं थी।" ऐसे निरीह लोग तो पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा बिहार से यहाँ आकर टैक्सी चलाने, फल-सब्जियाँ और दूध बेचकर अपना जीवन चलाने में मर-खप रहे हैं। अभी आज शाम ही मेरे घर चावल-आटा और मसालों के पैकेट झोले में लेकर जो लड़का सेठ की दुकान से आया था वह देवरिया जिले के पकहा क्षेत्र का निकला। शायद घर की गरीबी या किसी पारिवारिक कलह से ऊबकर अपनी बेबसी के साथ सीधे मुंबई की ट्रेन में बैठ गया होगा।

इसलिए मैं बे-भरम होकर कह सकता हूँ कि महानगर का बाज़ारू शिल्प साधारण आदमी की संवेदना के खिलाफ़ गढ़ा गया है। जीवन का तद्भव यहाँ लांछित है और तत्सम अपने सही ठिकाने पर ऐश कर रहा है। दो प्रकार के जीवनानुभवों का द्वंद्व अपने कटुतम शीर्ष पर दिखायी पड़ता है। मुंबई आने से पहले मुझे यह शहर गगनचुंबी इमारतों का शहर बताया गया था, लेकिन इसके ठीक विपरीत यह शहर मुर्गीखाने के दड़बों से भी तंग और छोटे-छोटे पिंजरेनुमा चालों और झोपड़पट्टियों का शहर निकला जिसकी सड़कें रात-दिन धकम-पेल के कारण गतिहीन और जाम पड़ी रहती हैं।

लोकल ट्रेनों को शान से जीवन-रेखा कहा जाता है। लेकिन जो अनुभव लोकल ट्रेनों में यात्रा करने से जुड़ा है वह बिना किसी बात के मुठभेड़ से कम नहीं है। प्लैटफार्म पर लोकल ट्रेन के आते ही चुपचाप शांत दिखते जन-समुद्र में अचानक बड़वानल भभक उठता है। मैत्री सम्मेलन कर हर लोग-बाग एक दूसरे को धकेलते-पछाड़ते रेल के डिब्बों में आक्रमणकारी की तरह घुसने लगते हैं। एकदम ठसाठस भरकर लोग जहां फिट हो सके, जैसे फिट हो सके, उल्टे-सीधे, एक पैर पर, दो पैरों पर, अपने पैरों पर या दूसरों के पैरों पर बस निकल पड़ते हैं अपनी जीवन-रेखा पर। पुराने रहिवाशी बताते हैं कि शुरू-शुरू में हालात इतने खराब नहीं थे।

एक प्रकार की शालीनता और सभ्यता मुंबई के लोगों में हर कीमत पर हुआ करती थी जो आम जनजीवन के सभी क्षेत्रों में आचरण की सभ्यता बनकर खिलती थी। अब उसकी जगह पर एक विचित्र प्रकार की होड़ और वहशीआना भागमभाग दिखाई पड़ने लगी है। सबसे पहले पहुंचने का जुनून जीवन को हर क्षण एक अघोषित प्रतिस्पर्धा में बदल रहा है। नंबर वन का उन्माद मानसिक बीमारी में रूपांतरित हो रहा है। शहर में लोग बढ़ते गए। शहर उपनगरों की तरफ पसरने लगा। लोगों के घर और दुकान, दफ्तरों तथा कार्यस्थलों के बीच की दूरियाँ बढ़ गईं। शहर की जैसी एकरेखीय भौगोलिक स्थिति है उसमें लोकल ट्रेन ही यातायात का सबसे सस्ता और त्वरित साधन है। लिहाज़ा अमीर-गरीब, बूढ़े-जवान, मर्द-औरत सबके लिए लोकल उनकी दिनचर्या का एक अभिन्न हिस्सा बन जाती है।
बांद्रा-वर्ली सी-लिंक पर ढलता सूरज और उतरती संध्या
भीड़ इस शहर में आधी रात के सिर्फ़ चार घंटे छोड़कर यत्र-तत्र-सर्वत्र दिखाई देती है वह वाकई किसी दूसरे शहर की नगरीय व्यवस्था की चूलें हिला सकती है। लेकिन दिन-ब-दिन बोझ से दोहरी होती मुंबई में उसकी शानदार विरासत के कुछ प्रतीक अभी भी जीवन को एक बेहतर आसरा देते हैं। यहां की भीड़ अनियंत्रित नहीं है। यह कहीं भी पंक्तिबद्ध हो जाती है। दिल्ली में यही सलीका नहीं है। बिना भगदड़ के राजधानी में रौनक नहीं दिखती। मुंबई की भीड़ की अपनी एक निविड़ भाषा है जो हर जगह बिना बोले संवाद के किनारे-किनारे सुरक्षित पगडंडियाँ खोज लेती है। इससे एक क्रम बनता है जो कुछ असुविधाजनक स्थितियों को पैदा ही नहीं होने देता। अगर आप मुंबई दर्शन कर चुके हैं तो देख चुके होंगे और अग़र नहीं तो इसका अवसर मिलने पर देखेंगे कि यहाँ पेशाब करने के लिए भी लंबी कतारों में खड़ा होना पड़ता है।

ज़ाहिर है कि मुंबई के कंधे पर इतना भारी बोझ इसलिए है क्योंकि शहर के सर्वसमावेशी चरित्र और रोजी-रोजगार देकर लोगों का भला करने की द्वितीय क्षमता ने मुंबई को देश की चारों दिशाओं के साथ आलिंगनबद्ध किया है। बदले में दूसरे शहरों-गाँवों-प्रांतों से आए लोगों ने भी इस महानगरी से बेइंतहा प्यार किया। मुझे हमेशा ऐसे लोग मिलते हैं जो मुंबई में दस-बीस वर्ष रहने के बाद खुद को जौनपुर, आजमगढ़, पश्चिमी चंपारण, बनारस और देवरिया से दूर और मुंबई की धड़कनों के ज्यादा करीब महसूस करते हैं। 15 दिन रहने के बाद वे जौनपुर या गोरखपुर से निकल भागना चाहते हैं।

लेकिन विडंबना है कि उ.प्र. और बिहार के इन मेहनतकश लोगों और भूमिपुत्रों का झगड़ा एक आम बात हो चली है। बल्कि संशोधित ढंग से कहा जाए तो दोनों को लड़ाने की राजनीति आम हो चली है। दोनों पक्ष जानते हैं कि इस मुद्दे का राजनीतिकरण किया जाता है। पिछले सालों में शहर का माहौल इस विवाद पर काफी गरम रहा है। क्षुद्र सत्तापरक सियासत इस आग में खूब घी डालती रहती है। कभी क्षेत्रवाद तो कभी अस्मिताओं के टकराव का रूप देकर इस मुद्दे को खूब भुनाया जाता है। नुकसान सिर्फ़ आम आदमी का होता है। समस्याएं अनेक हैं – इस भेदभाव के अलावा। उन पर मिलकर सोचने की जरूरत है। नि:संदेह स्थानीय लोग और परप्रांतीय दोनों इससे चिंतित हैं। नेताओं की बयानबाजी और राजनीतिप्रेरित पत्रकारिता की भूमिका खराब़ न हो तो मुंबईवासी अपनी आम समस्याओं पर साझा स्तर पर विचार भी करते हैं। इस सामाजिक तानेबाने को मजबूत करना चाहिए। मुंबई देश की आर्थिक राजधानी है। साहित्य, संस्कृति और सिनेमा की त्रिवेणी इसे एक महत्वपूर्ण ऊँचाई प्रदान करती है। इन क्षेत्रों में देश की बड़ी-बड़ी प्रतिभाओं ने अपना योगदान किया है। आज भी नई ऊर्जावान पीढ़ी को सशक्त रचनात्मक अभिव्यक्ति देने वाले मंच और माध्यमों की मुंबई में कमी नहीं है। आर्थिक और औद्योगिक जगत में भी ताजा-तरीन प्रयोग तथा परिवर्तनों की प्रयोगशाला है-मुंबई।

यह दीग़र बात है कि इन सब गतिविधियों के समानांतर शहर की संस्कृति पर बाज़ार का प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। इससे जीवन-शैली, मूल्य संस्कृति सबमें एक उथल-पुथल का दौर शुरू हो गया। बाज़ार का हस्तक्षेप जीवन के रंग, रस और गंध को निचोड़ रहा है। लोभ, लालच, संग्रह, बेईमानी की प्रवृत्ति, हिंसा और अपराध को हवा दे रही है। शीघ्रता और तीव्रता मानसिक आघातों और अवसादों को जन्म दे रही हैं। लोगों के हिस्से से समय और संवेदना को बाज़ारवादी जीवन शैली कुतर-कुतर कर खा रही है। संवाद डिजीटल एसएमएस और जीवंत पत्र ई-मेल में रूपांतरित हो रहे हैं। सहज प्रेम सड़कों पर अश्लीलता बनकर स्खलित हो रहा है। बहुत कुछ कहा-सुना जा सकता है-बाज़ार और शहर के मधुर मिलन पर जो मुट्ठीभर भद्रलोक के सुख-समृद्धि के असंख्य भोगों का विस्फोट है तो लाखों-लाख असहाय लोगों की क्रूर नियतियों का प्रहसन भी है। कोलाबा और कफ परेड का दिव्य आनंद धारावी की सड़ांध और सीलन से झाँकते दुख के सामने एक आत्ममुग्ध अमानवीय रणनीति का बौना रूपक बन जाता है।

चार्ल्स डिकेन्स के ए टेल ऑफ टू सिटीज की इन पंक्तियों को मुंबई सहित भारत के उभरते सिटीस्केप या अर्बनाइजेशन के संदर्भ में पढ़ा जा सकता है:
"यह सबसे बढ़िया समय था, यह सबसे खराब वक्त था,
यह बुद्धिमानी का काल था, यह मूर्खताओं का युग था,
यह भरोसे का दौर था, यह शंकाओं का कालक्रम था,
यह रोशनी की ऋतु थी, यह अँधेरे की ऋतु थी,
यह उम्मीदों का बसंत था, यह हताशा की ठंडक थी,
हमारे सामने सब कुछ था, हमारे पास कुछ भी नहीं था"

भारत के प्रामाणिक इतिहास के उत्स में ही नगर सभ्यता छिपी है। इस देश का क्रमिक विकास ही सिंधु घाटी सभ्यता से जुड़ा है। मोहनजोदड़ो, हड़प्पा और लोथल जैसी नागर सभ्यताओं की कोख से ही व्यवस्थित इतिहास का जन्म माना जा सकता है। मैंने अभी हाल ही में कहीं पढ़ा कि कतर में बस गए 94 साल के पेंटर एम.एफ.हुसैन का दिल अभी भी हिंदुस्तान के लिए धड़कता है। मुंबई शहर का ग्रांट रोड, धोबी तालाब का कयानी रेस्तरां आज भी उनकी स्मृतियों में तैरता है। आजकल वे अबूधाबी में दादासाहेब फाल्के से आज तक के भारत के सिनेमाई इतिहास पर एक बड़े काम को अंजाम दे रहे हैं। बड़ी अहम बात है कि हुसैन के मन में भारत की सभ्यता को समेटने वाली कलाकृतियों, पेंटिंग, स्केच, रेखांकनों पर आधारित एक कलात्मक योजना है जिसे वे 'मोहनजोदड़ो से मनमोहन सिंह तक' नाम से एक सीरिज के रूप में मूर्त करना चाहते हैं। आमीन!

(अगली कड़ी शीघ्र प्रकाश्य)

Friday, December 10, 2010

मीडिया


इंटरनेट सर! जन्मदिन मुब़ारक हो...

इस साल आपका कोई बेहद अपना और दुलारा 20 साल का हो गया। इसकी खबर तक आपको नहीं है। सोचिए जो सबकी खबर देता है उसकी ख़बर लेनी की जब बारी आई तो हममें से बहुत लोग बेखबर रहे। कितनी बुरी बात है कि उसकी 20वीं सालगिरह पर हम उसे अपनी शुभकामनाएँ भी देना भूल गए जिसका बहुत एहसान हम पर है। 20 साल की जवान उम्र में भी वह बुजुर्गों की तरह बड़ी-बड़ी बातें करता है और हमें नई-नई दिशाओं की सैर कराता है। उसने हमारी दुष्कर परेशानियों का अंत किया है। उसने हमें दुनिया अपनी मुट्ठी में करने की ताकत दी है। आप बूझें तो जाने - इस युवा हस्ती का नाम क्या है? यह उस सुपर हीरो का नाम है दुनिया जिसकी बेक़दर दीवानी है। कदमों में जिसके सारा जहान है। इस विश्व नायक का नाम है - इंटरनेट। जी हाँ! आज से 20 वर्ष पहले यानि 13 मार्च 1989 को एक ब्रिटिश विज्ञानी ने अपने एक शोधपत्र में इंटरनेट जैसी किसी चीज का ज़िक्र किया था। उसके बाद उन्होंने सीईआरएन परमाणु शोध संस्थान, स्विट्जरलैंड के अपने बॉस को इसके बारे में बताया। लेकिन उनके बॉस ने इस उत्साही विज्ञानी के उर्वर विचार को बकवास कहकर खारिज तो नहीं किया लेकिन उनके इस आइडिया को अस्पष्ट लेकिन रोमांचक ठहराया। अब आप जरूर जानना चाहने लगे होंगे कि उस विज्ञानी का नाम क्या है। उनका नाम टिम बर्नर्स ली है।

दुनिया की पहली वेबसाइट स्विट्जरलैंड में बनायी गयी थी और वह 1991 में ऑनलाइन हुई थी। इन बीस सालों में इंटरनेट ने लंबे कदम भरे हैं। दो दशक की एक छोटी यात्रा में उसका खजाना बेमिसाल उपलब्धियों से भर गया है। उसने सूचना युग और साइबर संसार का एक सर्वथा नया स्थापत्य गढ़ दिया है। उसके भीतर ही मनुष्य के जीवन की नई संभावनाओं और नई खोज की जुस्तज़ू में उसके उठने वाले कदमों की कूटबद्ध भाषा छिपी है। इसकी लिपि जो पढ़ लेगा वह आगामी इतिहास में शायद एक नयी सभ्यता का वृतांत लिखने वाला वेदव्यास बन जाए। ख़ैर छोड़िए। बहुत गहराई में जाने की जरूरत नहीं है। ये सब प्रश्न और मुद्दे सभ्यता और संस्कृति के विमर्श में आते हैं। हम यह देखने की कोशिश करेंगे कि इंटरनेट हमारे आज के ताजा वर्तमान में किस तरह नुमाया है और उसमें उड़ान के कितने पंख लग चुके हैं। एक आंकड़े के मुताबिक 20 करोड़ से भी अधिक वेबसाइट यानी डब्ल्यूडब्ल्यूडब्ल्यू और 1 ट्रिलियन यूआरएल मौजूद हैं और उसका इस्तेमाल करने वालों की तादाद 1 अरब 60 करोड़ है। इंग्लैंड की 70 फीसदी जनता इंटरनेट का इस्तेमाल करती है।
यह सच है कि बर्नर्स ली को आज के इंटरनेट का जनक माना जा सकता है। लेकिन इंटरनेट की संकल्पना की जड़ें 20 साल और पीछे जाती हैं। इसलिए विज्ञानियों और कंप्यूटर इंजीनियरों का एक तबका इसे इंटरनेट की 40वीं वर्षगांठ भी बता रहा है। ठीक है इंटरनेट अगर 40 साल का भी हो गया हो तो क्या फर्क पड़ता है। इंटरनेट तो इंटरनेट है। हुआ यूं कि पहली बार 2 सितंबर 1969 को कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय की प्रयोगशाला में पहली बार 15 मीटर लंबी केबल से दो कंप्यूटरों के बीच डाटा का अवागमन संभव हुआ। इस परिघटना के गर्भ से इंटरनेट का जन्म हुआ। यही समय था जब ARPANET यानि एडवांस्ड रिसर्च प्रोजेक्ट एजेंसी नेटवर्क की शुरूआत हुई थी। ARPANET आधुनिक इंटरनेट का बचपन था। यह प्रौद्योगिकी पैकेट स्विचिंग नेटवर्क पर आधारित थी। इसमें भी ई-मेल तथा एफटीपी जैसी सुविधाएं मौजूद थीं। आज के वेबआधारित इंटरनेट में भी यही प्रणाली काम करती है। फर्क सिर्फ यूजर इंटरफेस का है। बर्नर्स ली ने ऑनलाइन सूचनाओं को नेटवर्क बनाने की एक नई प्रणाली का खाका खीँचा। उन्होंने ने सोचा कि क्यों न एक ऐसी प्रणाली बनायी जाए जिसके द्वारा हाइपरटेक्स्ट डाक्यूमेंट आपस में जुड़े हों। अपने इस प्रस्ताव के एक साल के भीतर ही बर्नर्स ली एक इंटरनेट ब्राउजर विकसित करने में सफल हो गए। उन्होंने ने ही इस नवजात इंटरनेट का नामकरण www के रूप में किया। 1971 में टीसीपी और आईपी प्रोटोकाल बनने के बाद ईमेल का श्री गणेश हुआ। पेशे से कंप्यूटर इंजीनियर टॉमलिनसन ने सबसे पहले वर्ष 1971 में ईमेल का प्रयोग किया था। उस समय वे अमेरिकी रक्षा मंत्रालय के तहत बोल्ट बेरानेक एंड न्यूमैन नामक एक कंपनी में काम कर रहे थे।

फिर क्या था? नो लुकिंग बैक। पहले पाँच वर्ष के भीतर मोजैक वेब ब्राउजर आया। उसके आगे की कड़ी में नेट्स्केप नेविगेटर आया। इसकी बदौलत जनसामान्य तक वेब की पहुँच हो गई। मोजैक को यूनिक्स ऑपरेटिंग सिस्टम के लिए लिखा गया था। इसके द्वारा इन-लाइन ग्राफिक्स तथा हाइपरलिंक्स को प्रदर्शित किया जा सकता था। वर्ष 1993 के मध्य तक 130 वेबसाइट बन चुके थे जो इंटरनेट के जन्म के 5वें साल यानि 1994 में बढ़कर 12000 तक पहुँच गया था। अब वेब अपने व्यावसायीकरण के दौर में पदार्पण कर चुका था। वर्ष 1999 तक आते-आते माइक्रोसॉफ्ट ने नेट्स्केप नेविगेटर को टक्कर देने वाले इंटरनेट एक्सप्लोरर को लांच किया। माइक्रोसॉफ्ट विंडोज में पूरी तरह समाहित होने के कारण अंतत: इंटरनेट एक्सप्लोरर का सिक्का जम गया। यही वह साल था जब गूगल जैसे सूचना के लेजेंडरी 'सुपरहाईवे' का जन्म हुआ था।

अब हमारा 'वेबसंजाल' हमारे सामने सिर्फ स्थिर सूचनाएं ही नहीं परोसता है बल्कि उसका पूरा आँचल चंचल छवियों से भर गया है। जावा स्क्रिप्ट, एक्टिव एक्स कंट्रोल तथा कैसकेडिंग स्टाइल शीट के आगमन के बाद वेबपृष्ठों पर श्रव्य और दृश्य मल्टीमीडिया की सामग्री, ऑन-लाइन आवेदन, ई-शॉपिंग, ई-बुकिंग, ई-टिकट के अलावा एनिमेशन अर्थात जीवंत छवियों का मायाजाल आम बात हो चली है। इसी साल तमाम सर्च इंजन भी आए और काफी लोकप्रिय भी हुए। इंटरनेट के आकाश में ये ब्राउजरों और सर्च इंजनों का घमासान इन माध्यमों की अभूतपूर्व लोकप्रियता का प्रमाण है। इसे ही इंटरनेट की दुनिया में 'डॉट कॉम' क्रांति भी कहा गया। अमेजन, ईबे, एक्सपीडिया, गूगल, याहू जैसे न जाने कितने डॉट कॉम एक के बाद एक आते गए।

इधर इंटरनेट की एक भूमिका बहुत चर्चा के केंद्र में है। वह है - हमारे सामाजिक संबंध पर उसका प्रभाव। इसे ही 'सोशल नेटवर्किंग' भी कहा जा रहा है। यहाँ तक की यात्रा के बाद वेबयूजर का मन अब वेब पर अपनी तरफ से कुछ परोसने के लिए ललचाने लगा। अभी तक वह केवल दुनिया भर की वेबसाइटों पर उपलब्ध सामग्री का एकतरफा वाचक था। लेकिन अब वह अपना भी कुछ सुनाना चाहता था। ब्लॉगिंग इसी का प्रतिफल है। अब संवाद दो-तरफा हो गया। इंस्टैंट मैसेजिंग, चैटरूम वगैरह 'सोशल नेटवर्किंग' की नई दिशाएँ बनकर खुले हैं। इंटरनेट का यह दौर ई-मेल के बाद का है।

सुखद संयोग है कि इस साल के अगस्त में भारत में भी इंटरनेट शुरू होने के 15 वर्ष पूरे हो जाएंगे। आइए! एक जायजा लें अपने देश में इंटरनेट के सफ़र का। इस दिशा में पहला कदम उठाने का श्रेय जाता है वीएसएनएल को जिसने वर्ष 1995 में 14 अगस्त को डायल-अप मोडेम के जरिए देश के चार महानगरों में आम जनता के लिए Gateway Internet Acess Service का शुभारंभ किया। थोड़े ही दिनों में यह सुविधा बेंगलूर और पुणे में भी खोल दी गई। 1996 में अजित बालकृष्णन ने rediff.com और इसी साल मुंबई के एक होटल में देश के पहले साइबरकैफे की भी शुरूआात हुई। अगले साल यानि 1997 में आईसीआईसीआई बैंक ने पहली ऑनलाइन बैंकिंग वेबसाइट शुरू की। याद रहे यह डॉट कॉम का दौर था और इसी साल भारत में बहुचर्चित naukri.com की नींव पड़ी। वर्ष 1998 में भारत सरकार द्वारा इंटरनेट सर्विस प्रोवाइडर नीति को एक ठोस रूप देकर इस क्षेत्र में नयी संभावनाओं के द्वार खुल गए। इस क्रम में sify.com का जन्म हुआ जो देश का प्रथम इंटरनेट सर्विस प्रोवाइडर बना। इसी साल पेशे से चार्टर्ड अकाउंटेंट देवांग मेहता ने Nasscom की स्थापना की थी। अगले वर्ष 1999 में देश का पहला हिन्दी पोर्टल 'वेबदुनिया' इंटरनेट जगत का हिस्सा बना था। वर्ष 2000 में सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम बना। Ebay की तर्ज पर भारत में भी Bazee.com लांच हुआ और Yahoo तथा MSN ने अपने भारतीय संस्करण yahoo.co.in तथा msn.co.in के रूप में पेश किए। आईटीसी ने अपना e-choupal शुरू किया और Tehelka.com की धूम इसी साल मची थी। फिर 2001 में भारतीय रेल ने irctc.com नाम से ऑन-लाइन टिकट बुक करने तथा अन्य सूचनाएं देने वाली वेबसाइट शुरू किया। देश का पहला साइबर अपराध पुलिस थाना बेंगलूर में स्थापित हुआ। नागरिक उड्डयन के क्षेत्र में एयर डेक्कन वर्ष 2003 में अपने यात्रियों के लिए इंटरनेट पर ऑन-लाइन टिकट बुक कराने की सुविधा देने वाला पहला एयरलाइन बन गया। वर्ष 2004 में indiabulls.com & indiainfoline.com के लांच होने के बाद ऑन-लाइन शेयर ट्रेडिंग का दौर शुरू गया। अब तो ऑन-लाइन शेयर ट्रेडिंग करने वालों की 10 लाख से ऊपर पहुँच गई है। 2005 तक आते-आते देश में नेटयूजरों की तादाद लगभग 4 अरब हो गई थी। 2 लाख से अधिक साइबर कैफे बन चुके थे। भारत में ई-कॉमर्स के ज़रिए 570 करोड़ से ज्यादा का व्यापार हो रहा है। 2009 तक की स्थिति के अनुसार भारत में इंटरनेट प्रयोक्ताओं अर्थात नेटिजनों की संख्या 8 करोड़ 10 लाख से ऊपर थी। फिर भी यह संख्या हमारी कुल आबादी के सामने केवल 7% है। ऊपर से तथ्य यह है कि 90% से अधिक इंटरनेट यूजर भारत के मुंबई, बेंगलूर, दिल्ली, कोलकाता, चेन्नै, पुणे, हैदराबाद, अहमदाबाद, सूरत तथा नागपुर जैसे सिर्फ़ 10 बड़े शहरों के निवासी हैं। भारत में 81 मिलियन इंटरनेट यूजरों की एक बड़ी फौज के साथ विश्व के टॉप टेन सूची में चौथे पायदान पर पहुँच गया है। इन टॉप टेन देशों की सूची नीचे देखिए:
1. अमेरिका - 220 मिलियन यूजर
2. चीन - 210 मिलियन यूजर
3. जापान - 88.1 मिलियन यूजर
4. भारत - 81 मिलियन यूजर
5. ब्राजील - 53 मिलियन यूजर
6. इंग्लैंड - 40.2 मिलियन यूजर
7. जर्मनी - 39.1 मिलियन यूजर
8. कोरिया - 35.5 मिलियन यूजर
9. इटली - 32 मिलियन यूजर
10. फ्रांस - 31.5 मिलियन यूजर

लेकिन भारत ब्राडबैंड कनेक्शन के आँकड़े में विश्व की टॉप टेन सूची में अपना स्थान नहीं बना पाया है। हालांकि भारत में इंटरनेट कनेक्शन की संख्या 13.5 मिलियन से अधिक है लेकिन ब्राडबैंड कनेक्शन लगभग 9 मिलियन ही है। बिजनेस स्टैंडर्ड के 14 जुलाई 2009 संस्करण में प्रकाशित एक ख़बर के अनुसार आई टी हार्डवेयर इंडस्ट्री की शीर्ष संस्था मैन्युफैक्सचर्र्स एसोसिएशन फॉर इंफार्मेशन टेक्नोलॉजी (एमएआईटी) का अनुमान है कि 2012 तक भारत में इंटरनेट यूजरों की संख्या 500 मिलियन के पार जा सकती है। ब्राडबैंड कनेक्शन भी 100 मिलियन तक जा सकता है बशर्ते इंफ्रस्ट्रक्चर संबंधी अड़चनें दूर हो जाएं और 3-जी तथा वाई मैक्स नेटवर्क प्रारंभ कर दिए जाएं। 3-जी सेवा शुरू हो जाने के बाद निश्चित रूप से ये लक्ष्य अब हमसे दूर नहीं होंगे। एक सर्वेक्षण में यह भी पाया गया है कि भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में भी इंटरनेट ने घुसपैठ बना ली है। सन् 2000 में ग्रामीण भारत के छोटे कस्बों में इंटरनेट का प्रयोग मात्र 5 प्रतिशत था जो अब 8 बड़े शहरों के 34 प्रतिशत इंटरनेट प्रयोग को पछाड़कर 36 प्रतिशत हो गया है। यह बदलते हुए भारत की तस्वीर का एक सशक्त पहलू है। भारत के 81 मिलियन इंटरनेट यूजरों में से 72 प्रतिशत यूजर 21-35 आयु-वर्ग की स्कूली नौजवान पीढ़ी के हैं।

इसी प्रकार एक सर्वेक्षण के मुताबिक 2013 तक भारत का दूरभाष घनत्व (Teledensity) 100% से अधिक हो जाएगी। यानि देश की आबादी से अधिक मोबाइल कनेक्शन हो जाएंगे। टेलीफोनी के क्षेत्र में इस अभूतपूर्व वृद्धि के बाद भारत इस क्षेत्र के महारथी चीन को परास्त दुनिया का सबसे बड़ा टेलीकॉम बाज़ार बन जाएगा। ट्राइ की नवीनतम रिपोर्ट के अनुसार भारत में इस समय भारत में टेलीफोन ग्राहकों की संख्या 638.05 मिलियन है। इसमें 601.22 मिलियन वायरलेस कनेक्शन तथा शेष 36.83 मिलियन वायरलाइन कनेक्शन हैं। कुल दूरभाष घनत्व 54.10 प्रतिशत है।

अब 3G टेक्नोलॉजी के भारत में आगमन के बाद टेलीकॉम सेक्टर में क्रांतिकारी बदलाव आने वाले हैं। 3G टेक्नोलॉजी मोबाइल पर ब्राडबैंड सहित दूरसंचार की तेज और व्यापक सेवाएं संभव करने वाली प्रौद्योगिकी है जिसकी मदद से मोबाइल पर भी इंटरनेट सुविधा उपलब्ध हो जाती है। इस प्रकार भारत में 3G से इंटरनेट और टेलीफोनी दोनों का प्रयोग और भी अधिक जनसुलभ एवं जनप्रिय बन जाएगा। इससे टेलीकॉम सस्ता, सरल, तेज और व्यापक होगा।

इंटरनेट और कंप्यूटर के भी दो पहलू हैं। अपने उपयोग और दुरुपयोग के आधार यह वरदान और अभिशाप दोनों साबित हुआ है। कंप्यूटर का लक्ष्य अथवा औजार के रूप में दुरुपयोग को ही साइबर अपराध कहा जाता है। इसके दुरुपयोग को रोकने वाले कानूनों को साइबर कानून कहा जाता है। साइबर कानून ही इंटरनेट कानून कहलाते हैं। भारत में भी वर्ष 2000 में सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम बनाया गया। हैकिंग, वर्म अथवा वाइरस अटैक, डॉस अटैक जैसे दुरुपयोग कंप्यूटर को ही निशाना बनाकर तथा साइबर आतंकवाद, ईएफटी घोटाले, क्रेडिट कार्ड घोटाले, अश्लीलता परोसने जैसे दुरुपयोग कंप्यूटर को हथियार बनाकर किए जाते हैं। इसी तरह ई-मेल स्पूफिंग, ई-मेल स्पैमिंग, ई-मेल बॉम्बिंग भी साइबर अपराध की कोटि में आते हैं।

इस प्रकार आप देखेंगे अपने जन्म के मात्र 20 वर्षों में इंटरनेट ने अपने नाम के अनुरूप वर्ल्ड वाइड लोकप्रियता हासिल की है। भविष्य में यह ज्ञानात्मक और सूचनात्मक संसार के किन-किन गली-कूचों की सैर करवाएगा, हम कुछ कह नहीं कह सकते। यह अनुभव और प्रतीति के कितने नये द्वार अभी खोलने वाला है - यह भी भविष्य के गर्भ में है। लेकिन इतना तो निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि इंटरनेट ने पृथ्वी पर इंटेलिजेंस और इन्फार्मेशन के सभी ज्ञात आयामों को हमारे अनुभव के छोर से जोड़ दिया है। यह डिजीटल यथार्थ और प्रत्यक्ष यथार्थ के बीच के अंतराल को लगातार छोटा करता जा रहा है। यह स्नायविक, आवेगात्मक और बुद्धिगम परिधियों पर एक नये प्रकार का पुनर्लेखन कर रहा है।

इंटरनेट के बारे में अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन की बड़ी सहजता से कही हुयी एक बात याद आती है - When I took office, only high energy physicists had ever heard of what is called the World Wide Web. Now even my cat has it's own page. इससे इंटरनेट की बढ़ती हुयी लोकप्रियता और प्रयोग प्रमाणित होता है।

Tuesday, November 30, 2010

विमर्श

How pious the knowledge is; if unmanufactured
Today, while reading an article on Firaq Sahib, I came to know of a very important advice given by this literary genius. Firaq Sahib used to say very often that "Books are not meant for to always stay engrossed to. The purpose of reading books is to come out of them to test and try the content derived from them in the real world. It means whatever you have read should be reflected through your quest in life. You have to let your knowledge be kissed by the real life experiences. It is sine qunon for us to brood much more over whatever you have read."


Knowledge is an open-ended process. Its stream should be kept flowing in so many directions as it may take during its course towards a better and graduated fulfilment. It shines in many splendours when feather-touched by empirical sweep of mind across the time and space while sailing its voyage through a life. By the way we have ushered into a knoledge city and information society. Through the world wide web we are networked to leverage a vast plethora of knowledge at a click away from each of us. This democracy of informatin is a new avatar to shape the human society to its ideally best form of culture and governance. Information capacitates us. It's a historic juncture in the civilizational progress of human society where possibilities are infinetly infinite and potential boundless. Let this informed society prosper and progress as per the wishes of Gurudev. His unforgettable famous lines are presented hereunder once again for a ready reference:
"Where The Mind Is Without Fear
Where the mind is without fear and the head is held high

Where knowledge is freeWhere the world has not been broken up into fragments

By narrow domestic walls

Where words come out from the depth of truth

Where tireless striving stretches its arms towards perfection

Where the clear stream of reason has not lost its way

Into the dreary desert sand of dead habit

Where the mind is led forward by thee

Into ever-widening thought and action

Into that heaven of freedom, my Father, let my country awake."

Thursday, November 25, 2010

सामयिकी


आर्थिक मंदी
मुक्त बाजार
मलबे का मालिक

बाजार हो या कोई व्यवस्था वह अपने आप में सर्वगुणसंपन्न और चिरस्थायी नहीं हो सकती। उसमें बदलते समय के हिसाब से संशोधन और परिवर्तन अपरिहार्य होता है। मशीन से इस संशोधन और परिष्कार का विवेक नहीं प्राप्त किया जा सकता। इसके पीछे किसी मौलिक विचार की आधारशिला का होना जरूरी है। एक वैज्ञानिक हुए हैं सर जेम्स ज्यां। उन्होंने एक जगह लिखा है कि - 'यह ब्रह्मांड देखने में एक वृहत मशीन से ज्यादा एक महान विचार लगता है।' इसी प्रकार बुद्ध ने भी कहा था कि मनुष्य के विचार से ही वस्तुओं का गुण, उनका आधार और उनका अस्तित्व रूपायित होता है। इसी बात को सबसे सटीक अभिव्यक्ति कालजयी कवि जॉन मिल्टन की इन पंक्तियों में मिली है -
The mind is its own place, and in self
Can make a heaven of hell, a hell of heaven.

इस भूमिका के बाद मुझे यह बात समझाने में सुविधा होगी कि बाजार का विचार भी कहीं न कहीं मनुष्य के दिमाग की उपज होगा। उसकी परिभाषा और उसका स्वरूप किसी विचार से ही आया होगा। यदि बाजार उन्मुक्त होकर मनुष्य के आर्थिक विकास में योगदान करता है तो कभी-कभी अपनी सहजात कमजोरियों के कारण अर्थव्यवस्था पर कहर भी बरपा करता है। बाजार को उसकी सोयी हुई दुष्टात्माओं की याद मनुष्य ही दिलाता है। बाजार में भयंकर उथल-पुथल से पहले भीषण रक्तपात मनुष्य के दिमाग में ही होता है - जॉन मिल्टन की भाषा में कहें तो स्वर्ग पहले मनुष्य के दिमाग में उजड़ता है और नरक बनता है। पिछले साल से आर्थिक मंदी की चपेट में फँसी दुनिया में भीषण बर्बादी का जो आलम है उस पर एक विहंगम दृष्टि हम मनुष्य के भीतर छिपे एक खलनायक के नजरिए से डालेंगे। साथ ही, महान दार्शनिक कांट की एक बात अपनी जहन में रखेंगे कि - Man is made of his defective timbre.

आर्थिक उजाड़ से उभरती आवाजें
आर्थिक मंदी की मार झेलते इस समय का वृतांत किसी ट्रेजडी से कम नहीं है। एक अभूतपूर्व रंगीनी में खोयी दुनिया पूंजी की समृद्ध सिंफनी डूबकर सुन रही थी कि अचानक बूम के टीलों में विस्फोट होने लगे और वाल स्ट्रीट घने धुओं से घिर गया। फिर एक बार कीन्स का अर्थशास्त्र बाजार की समीक्षा बनकर धुँए के इन गुबारों के बीच से झांकने लगा था। ऐसे संकट के समय में मनुष्य की त्रासदी और अर्थव्यवस्था से उसका ज़वाब मांगने के लिए सवाल धुँधुआई स्याही से ही लिखने होंगे।

आपने जी-3 का नाम सुना होगा। दुनिया इस नाम को नमन करती है। यह अमेरिका, यूरोपीय संघ तथा जापान जैसी आर्थिक महाशक्तियों की तिकड़ी है। ज़ाहिर है दौलत के दम पर ये देश हर मामले में अपना रसूख और ताकत रखते हैं। ये मूलत: धंधेबाज देश हैं और धंधे से होने वाली कमाई से ये हर छोटे-मोटे देश को दबाना चाहते हैं। यानि बिजनस-व्यापार में माहिर और बाद में नवीनतम तकनीक के आविष्कर्ता होने के कारण इनका बहुत रुतबा है।

आर्थिक मंदी एक प्रकार से बाजार के बे-लगाम भागमभाग और उसके औंधे मुँह गिरने की कहानी है। बाजार की अर्चना-पूजा और उसे अष्ट-सिद्धि-नवनिधि का दाता मानकर उसके आगे नतमस्तक और पुष्पहस्त खड़े आर्थिक चिंतकों के लिए यह बाजार की विखंडित प्रभुसत्ता पर विलाप करने का समय है। दुनिया ने देख लिया कि बाजार समाज को नहीं चला सकता। उससे चंद पूंजीपति और शेयरबाज तो मालामाल हो सकते हैं लेकिन औसत आदमी के मुँह के निवाले का दर्शन वह कतई नहीं हो सकता। आर्थिक मंदी के बहुत घिसे-पिटे और रद्दी हो चुके विमर्श को न दोहराते हुए आइए हम उन खास-खास गर्त और शिखर का स्नैपशाट्स लें जो इस करुण महागाथा का पाठ उसकी पहली बरसी पर एक नए सिरे से खोल सके।

बाजार की सत्ता में विश्वास करने वाले आर्थिक सिद्धांतकार बार-बार यह हिदायत देते हैं कि सामाजिक उद्देश्यों को पूरा करने के लिए बाजार को नियंत्रणमुक्त कर देना चाहिए। दरअसल वर्तमान संकट ने बाजार पर एक अच्छी-खासी बहस ही छेड़ दी है। वे पिछले तीन-चार दशकों में विकसित बाजार के महाकाय स्वरूप और इस क्रम में वित्तीय बाजारों से इस बात की विशेष ख्वाहिश रखते हैं कि वे लोगों की बचत को बेहतरीन ढंग से निवेश कर आर्थिक-सामाजिक कल्याण का मार्ग प्रशस्त करेंगे। वित्तीय सुधारों पर संयुक्त राष्ट्र आयोग की चर्चाओं में बाजार के बारे में उछाले गए ऐसे कई दावों की पड़ताल की गई। मसलन, क्या वित्तीय बाजारों के फैलाव ने वित्त को, जिसकी हैसियत एक सेवक की थी, उसे अर्थव्यवस्था और प्रकारांतर से पूरे समाज का मालिक बना दिया है। बाजार की प्रक्रियाओं के तेवर और उन्हें समझने के लिए अर्थशास्त्रियों द्वारा अपनाए जाने वाले मॉडलों को लेकर बुद्धिजीवियों, नीति-निर्माताओं और बाजार के खिलाड़ियों के बीच तीखी बहस छिड़ी हुई है। ये लोग दबी जुबान से मानने लगे हैं कि वित्त प्रदाताओं के निजी जोखिम तथा जनता के सामाजिक जोखिम के बीच ज़रूर कोई-न-कोई गड़बड़ तालमेल रहा है। अब सब चीजें जगजाहिर हो जाने के बाद मौज़ूदा संकट को वालस्ट्रीट की भाषा में मुक्त बाजार व्यवस्था की कोख से जन्मा एक ड्रैगन भी कहा जाने लगा है। मुक्त बाजार के विचार को एक असफल दर्शन कहा जा रहा है।

मुक्त बाजार : बादशाहत पर लगा बट्टा
मुक्त बाजार व्यवस्था में बाजार सरकारी हस्तक्षेप और नियंत्रण से काफी हद तक मुक्त होता है। कुछ आवश्यक रेगुलेशनों को छोड़कर सरकार की भूमिका अत्यंत सीमित होती है। वह मांग और आपूर्ति के गत्यात्मक संबंधों पर बाजारों को स्वतंत्रतापूर्वक विकसित होने के लिए छोड़ देती है। उसका काम केवल सहायक परिस्थितियों का निर्माण करना होता है। सरकारें स्वयँ बाजार के बीच नहीं खड़ी होतीं। मुक्त बाजार की परिभाषा के अनुसार मुक्त बाजार के खिलाड़ी एक-दूसरे पर न तो किसी प्रकार की धौंस जमाते हैं और न ही एक-दूसरे के संपत्ति अधिकार बलपूर्वक या धोखाधड़ी से छीनते हैं। उनके बीच आर्थिक लेनदेन में कीमत का निर्धारण मांग और आपूर्ति के नियम के आधार पर खरीद-बिक्री के बारे में लिए गए सामूहिक निर्णयों से तय होता है।

प्रकारांतर से इस मंदी में अंतर्राष्ट्रीय बैंकिंग व्यवस्था की असफलता का पाठ भी छिपा है। बैंकिंग असफलताओं की भी इतिहास में एक लंबी फेहरिश्त मौज़ूद है। माना जाता है कि अभी तक दुनिया में 84 बार बैंकिंग व्यवस्था के समक्ष इस तरह के संकट पैदा हो चुके हैं। यह 85वां संकट है। अग़र नीति-निर्माता सिर्फ़ यह कहकर पिंड छुड़ाना चाहते हों कि वर्तमान संकट के पीछे बिलकुल अभूतपूर्व कारक हैं तो यह उनका स्थितियों के प्रति तदर्थ या चलताऊ नज़रिया दर्शाता है। इसके ज़वाब में इस समस्या पर नए ढंग से विचार करने वाले लोग तर्क देते हैं कि पिछले 84 बैंकिंग संकट ऋण चूक स्वैप (Credit Default Swap) या विशेष निवेश व्यवस्थाओं (Special Investment Vehicle) या घातक परिसंपत्तियों (Toxic Assets) के चलते नहीं उपजे थे। उन संकटों से क्रेडिट रेटिंग का कोई लेना-देना नहीं था। यानि हर संकट के पीछे कारक नए ही रहे हैं। इसलिए विश्व के सामने एक यक्षप्रश्न है कि क्या किया जाए कि ऐसे विध्वंशक संकटों की पुनरावृत्ति न हो। क्या इतने रेगुलेशनों के बावज़ूद ऐसे संकट मंडराते रहेंगे। क्या अर्थव्यवस्था के नियामक और नीति-निर्माता सिर्फ हो चुके संकटों की व्याख्याएं ही प्रस्तुत करते रहेंगे या उन्हें रोकने की कोई कारगर प्रणाली भी विकसित करेंगे।

बाजार से हुए हजारों ट्रिलियन डॉलर के नुकसान से उपजे क्रोध एवं खीझ ने बाजार पर नियंत्रण यानि रेगुलेशन के तर्क को पुख्ता किया है। लेकिन यहां भी एक प्रतिप्रश्न उपस्थित हो जाता है कि क्या केवल व्यापक रेगुलेशन की कोई प्रणाली ऐसे संकटों का पक्का ज़वाब हो सकती है। आर्थिक चिंतकों का मानना है कि केवल रेगुलेशन नहीं अपितु समष्टि-विवेकपूर्ण दृष्टिकोण से संपन्न एक बेहतर रेगुलेशन की विशेष आवश्यकता है।

आर्थिक मंदी ने इस तथ्य को उजागर कर दिया है कि वित्तीय संकटों का बहुत बड़ा खामियाजा समाज को भुगतना पड़ता है। उसके सामने वित्तीय संस्थाओं को होने वाले निजी नुकसान कम होते हैं। वित्तीय संस्थाओं के कारण संभावित नुकसान को उसके भीतर ही सीमित करने का काम रेगुलेटर का होता है। 'पूंजी पर्याप्तता का अनुशासन' उसके शस्त्रागार से निकला पहला शस्त्र होता है। लेकिन पूंजी पर्याप्तता के प्रति दुनिया-भर में जो रुझान है वह बड़ी इकहरी सोच पर टिका है। उसकी विवेकपूर्णता व्यष्टिकेंद्रित है। हम समझते हैं कि यदि एक-एक बैंक पूंजी पर्याप्तता के कठोर अनुशासन में रहे तो सारे बैंक सुदृढ़ पायदान पर खड़े रहेंगे और इस तरह समूची व्यवस्था मजबूत बनी रहेगी। लेकिन हुआ इसका उलटा। असल में अर्थव्यवस्था के प्रति इस व्यष्टि-विवेकपूर्ण नज़रिए में ही कहीं खोट है। बैंक या दूसरी वित्तीय संस्थाएं स्वयं को सुरक्षित स्थिति में बनाए रखने के लिए प्रतिस्पर्धा और फायदे के लिए ऐसे धतकरम कर सकती हैं जो संपूर्ण अर्थव्यवस्था की चूलें हिला सकता है। यह वित्तीय व्यवस्था का जोखिम है।
बाज़ार का तिलिस्म
भूमंडलीकरण और उदारीकरण के साथ मुक्त बाजार के आगमन से न केवल दुनिया की अर्थव्यवस्था में आमूल-चूल बदलाव आया बल्कि उसके हाथों उपभोग और स्थूल आनंद की नई परिभाषा भी गढ़ी गई। उपभोक्तावाद एक संस्कृति बनता गया। मुनाफा नैतिकता की नई कसौटी और आवारा पूंजी समस्त विलास-वैभव की अचूक साधन बन गई। उसकी लंबी परियोजना को देखें तो लगेगा कि यदि सब ऐसे ही चलता रहा तो एक दिन यह दुनिया ही एक कारपोरेट में तब्दील हो जाएगी। मुनाफा कमाने वाला कारपोरेट लोगों में बाजार के प्रति ऐसी श्रद्धा जगाने लगा मानो वह अष्ट-सिद्धि-नवनिधि का दाता हो। कारपोरेट एक मंदिर हो और पूंजी उसमें अधिष्ठित देवी।

अगर अमेरिका की मुक्त बाजार आधारित अर्थव्यवस्था और उसके गर्भ से जन्मे बाजारवाद, भोगवाद, मांसल सुख के ऐश्वर्य और उसे युग की प्रवृत्ति के रूप में स्थापित करने वाले अमेरिकी मीडिया की करामात को मनुष्य के सांस्कृतिक पक्षाघात के रूप में देखना हो तो आप एक चर्चित सामाजिक मनोविज्ञानी डेविड मेयर्स की पुस्तक 'अमेरिकन पैराडॉक्स - स्प्रिचुअल हंगर इन एन एज ऑफ प्लेन्टी' पढ़िए। उसका एक अंश यहां उद्धृत करना प्रासंगिक होगा - "हमें पहले से ज्यादा पैसे मिलते हैं, पहले से बेहतर रोटी-कपड़े का इंतजाम हो गया है, बेहतर शिक्षा की व्यवस्था के साथ-साथ काफी मानवाधिकार, संचार और यातायात के तीव्र साधन और सुविधाएं भी उपलब्ध हैं। विडंबना है कि फिर भी 1960 के बाद 30 सालों में.........तलाक की घटनाओं में दोगुनी, आत्महत्याओं में तिगुनी, हिंसा की दर्ज घटनाओं में चौगुनी, जेल में बंद सजायाफ्ता अपराधियों की संख्या में पांच गुनी.........वृद्धि हुई है।"

बाजारवादी प्रलोभन से मानसिक शांति नहीं मिल सकती। पूंजी और बाजार आधारित अर्थव्यवस्थाओं की दुश्चिंताएं इतनी विकराल हैं कि सन् 1970 में ही मशहूर अर्थशास्त्री टिबोर सिटोवस्की ने ऐसी अर्थव्यवस्था को एक "नीरस अर्थव्यवस्था" (Joyless Economy) की संज्ञा दे दी थी। इसी नाम से उनकी एक बहुचर्चित पुस्तक भी निकली थी जिसने इतनी धूम मचाई कि उसे 20 वीं सदी की कुछ चुनिंदा पुस्तकों में शुमार किया जाता है।

बाजार किसी भी कीमत पर सफलता की सीख देता है। बाजार का यह एक अनैतिक आयाम है। वह सक्सेसफुल को फेथफुल से ऊंची चीज मानता है। सोचिए ऐसा बाजार जो हर समय उदारीकरण की मांग करता हो अगर वह अमेरिकी अर्थों में यूँ ही उड़ान भरता रहा तो जो हुआ है वह आखिरी संकट नहीं होगा। ऐसे माहौल में जब कि भूतपूर्व फेड सुप्रीमो ग्रीन्सपैन के माथे पर अभी तक एक भी शिकन न पड़ी हो और वे मुक्त बाजार की खुलकर हिमायत करते हों और यह कहते फिरते हों कि बाजार की फितरत के साथ ये बातें जुड़ी हैं और बाजार की चाल-ढाल से छेड़छाड़ नहीं की जा सकती तो भूमंडलीकरण का यह अर्थ निकाले जाने का खतरा बढ़ता जाएगा कि भूमंडलीकरण माने भू-मंडल को बाजार बनाने की परियोजना। ऐसे में उत्पादों का मोह, विज्ञापनों का मायाजाल, देह की उत्तेजना से मुनाफा कमाना बाजार का नया दर्शन रचते हैं। घर, मोटर, गैजेट, घड़ी, जूते, ड्रेस के प्रसिद्ध ब्रांडों को हासिल करने की बेताब तमन्नाएं ही कंज्यूमर ड्रिवेन सोसायटी के सामूहिक मानस का निर्माण करती हैं। स्किल्ड शॉपिंग भी सफल प्रबंधन का एक अध्याय बन जाता है। सफलता इस बात से तय होने लगती है कि बाहर शो-रूमों में सजी चीजों को खरीदने की आपकी हैसियत कितनी है। बाजार में मनुष्य जीवन की हर चीज को एक वस्तु या उत्पाद की तरह हासिल करने की फिराक में रहता है। एक दार्शनिक एरिक फ्रॉम थे जिन्होंने जीवन में 'प्राप्ति-कामना' (having mode) का सिद्धांत दिया था। यह मनुष्य का एक खास आलम होता है। इस आलम में हम सफलता, सुख, प्रेम आदि को अपने से अलग कोई चीज मानकर उन्हें किसी भी कीमत पर हासिल कर लेना चाहते हैं। यह एक अजीब सनक है जो हमारी जुबान तक को बदलकर रख देती है - हम हर चीज को "प्राप्त करने" के अंदाज में बोलने लगते हैं - मसलन 'achieving' success, 'getting' the girl and 'having' a great life आदि। उसके बाद तो बाजार के इस युग में व्यक्ति की पहचान ही समाप्त हो जाती है और उसकी जगह पैदा होता है - शॉपर, कंज्यूमर, कस्टमर, बारोअर, ब्रोकर और इनवेस्टर के रूप में इस बाजारोन्मादी समाज (Manic Society) का एक नया नागरिक।

इसी अनुक्रम में स्थावर संपदा के बाजार से बहकी आँधी की तरह निकली आर्थिक मंदी के मुख्य कारणों में से एक था ऐरे-गैरे लोगों अर्थात सब-प्राइम उधारकर्ताओं को मार्गेज उधार देना। इस क्षेत्र का संकट गहराने में उधारकर्ताओं की कर्ज चुकाने की हैसियत, सब-प्राइम उधार में सामान्य से दो-तीन प्रतिशतता अंक अधिक ब्याज दर से कर्ज की चुकौती और सब-प्राइम उधारकर्ताओं की चूक करने के इतिहास की विशेष भूमिका रही है। 'सूचनाओं का वैषम्य' (Asymmetry of information) ने अपनी पारी खेली और अमेरिका के हाउसिंग सेक्टर के माथे पर लिख दिया विनाश और सिद्ध हो गया कि Real sector/housing sector was the midwife of all this tragedy. लोकप्रिय शैली में अब तो रियल सेक्टर को मीडिया द्वारा वालस्ट्रीट का मेन स्ट्रीट कहा जाने लगा है।

सितंबर 2008 में लीमन ब्रदर्स सहित वालस्ट्रीट के अन्य दिग्गज आर्थिक और वित्तीय संस्थाओं के धराशायी होते ही घटाटोप आर्थिक मंदी का दौर शुरू हो गया। इसके सर्वग्रासी प्रभाव से दुनिया का कोई देश बच नहीं पाया है। पहले इसकी गिरफ्त में अमेरिका, यूरोपीय संघ तथा जापान आए। दरअसल इस आर्थिक मंदी की पैथालॉजी में जो बीमारी सामने आई थी वह अमेरिका के हाउसिंग मार्केट में हुए बड़े पैमाने पर डिफाल्ट के जीवाणु संक्रमण का दुष्परिणाम थी। वहां के इनवेस्टमेंट बैंक जोखिम को नजरअंदाज कर उधारकर्ताओं से पर्याप्त जमानत लिए बिना और कर्ज चुकाने की उनकी हैसियत देखे बिना उन्हें कर्ज पर कर्ज बांटते गए। स्थावर संपदा सेक्टर इस संकट का मुख्य स्रोत रहा है।

अंत में फूला हुआ गुब्बारा फूट ही गया। वर्तमान आर्थिक संकट ऐसे समय में पैदा हुआ जब दुनिया के तमाम ऐसे आर्थिक चिंतकों को काफी मान-सम्मान दिया जा रहा था जो सक्षम बाजार के लिए उसे नियंत्रणमुक्त करने की जोरदार वकालत कर रहे थे और बाजार की कमजोरियों और बाकी समाज पर पड़ने वाले उसके प्रभाव को नजरअंदाज कर रहे थे। यह अपने आप में उन्मुक्त बाजार के नाम पर चलायी जा रही रुढ़िवादिता (free market fundamentalism) का जबरदस्त खंडन है जिसे एक पिटा हुआ दर्शन (failed philosophy) तक कहा जाने लगा है। ट्रबल्ड असेट्स रिलीफ प्रोग्राम (TARP) पर अमेरिकी कांग्रेस के ओवरसाइट पैनल ने भी विनियामक सुधार पर अपनी रिपोर्ट के अंत में उल्लेख किया है - 'संकट की जड़ में विनियमन की भूलें रही हैं जो संरचना से ज्यादा दर्शन से जुड़ी हैं।'

टू बिग टू फेल
लीमन ब्रदर्स जैसी नामचीन संस्थाओं के खंडहरों से आर्थिक जगत को एक नई विचारधारा या कह लीजिए चर्चा के लिए एक नया मुहावरा हाथ लग गया है। यह है - Too Big to Fail. इसका सरल अर्थ है कि बहुत बड़ी वित्तीय संस्था होगी तो सरकार या नीति-निर्माता उसे बर्बाद नहीं होने देंगे क्यों कि उसका असर वित्तीय बाजारों और क्षेत्रों के अलावा पूरी अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा। इसी सुरक्षा कवच के भीतर ऐसी बड़ी-बड़ी संस्थाएं निजी लाभ के लिए निडर होकर बड़े जोखिम उठाती हैं।

अमेरिका के संदर्भ में यह कहा जाता है कि वहां के पूंजी बाजारों तथा डेरिवेटिव बाजार ऋणों की राशि नगण्य है। इसलिए विशाल वित्तीय संस्थाओं के बारे में यह कहा जा सकता है कि वे न केवल इतनी विशाल हैं कि फेल नहीं हो सकतीं बल्कि बोस्टन कॉलेज के एडवर्ड केन के शब्दों में "वे इतनी दुष्कर भी हैं कि फेल नहीं हो सकतीं और न ही उन्हें बंद किया जा सकता है।" They are not only Too Big to Fail but Too Difficult to Fail and Unwind. इसी को ग्रेशम का वित्तीय संरचना का नियम भी कहा जाता है। इस नियम के अनुसार माना जाता है कि The large and the bad can drive out the good.

आखिर इस दर्द की दवा क्या है
वर्तमान आर्थिक संकट के बाद छिड़ी बहस में व्यष्टि केंद्रित विवेकपूर्ण विनियमन को इसका समाधान माना जा रहा है क्यों कि अति-उत्साही संस्थाओं, जटिल उत्पादों तथा उनके भ्रामक व्यवहार को वित्तीय बाजारों से छाँटकर बाहर निकालने के लिए वह जरूरी है। साथ ही, समष्टि केंद्रित विवेकपूर्ण मानदंड का समावेश भी आवश्यक है जो अर्थव्यवस्था में बूम के दौरान होने वाले जोखिमों की तोड़ पेश कर सके।

एक खस्ताहाल विशाल वित्तीय संस्था की स्थिति सुधारकर उसे पटरी पर तभी लाया जा सकता है जब डेरिवेटिव एक्सपोजर ब्यौरे का पूरा नक्शा सामने हो, अलग से वास्तव में मार्जिन/पूंजी रखी गई हो, कीमतों का निर्धारण नियमित रूप से किया जाता हो तथा डेरिवेटिवों की खरीद-फरोख्त के लिए बाजारों को उस सीमा तक पूंजीकृत किया गया हो जिससे कि उनके चलते अर्थव्यवस्था खतरे में न पड़े। वित्तीय सुधारों पर संयुक्त राष्ट्र के आयोग की रिपोर्ट में इसके समाधान के कुछ उपाय सुझाए गए हैं। इसके अलावा हाल ही में पॉल वोल्कर की अध्यक्षता में जी-3 की रिपोर्ट से भी ऐसे कुछ प्रस्तावों के संकेत मिले हैं जिनमें सुरक्षा कवच के भीतर महफूज विशाल वित्तीय संस्थाओं को जटिल डेरिवेटिव व्यवसाय तथा सट्टेबाजी पर चलने वाले कारोबार से अलग करने की संस्तुति की गई है। इसके पक्ष में दलील यह दी जा रही है कि 'क्रोनी कैपिटलिज्म' की बुराइयों को तभी कम किया जा सकता है और तभी 'टू बिग टू फेल' की छवि वाली विशालकाय वित्तीय संस्थाओं की यह सोचने की आदत छुड़ाई जा सकती है कि फच्चर फंसने पर उन्हें सरकारी इमदाद के रूप में बेल-आउट मिल जाएगा। अर्थात उनका यह भरोसा तोड़ना जरूरी है कि उनके हर दुर्दिन में उनके लिए 'लेमन सोशलिज्म' का पैकेज जारी कर दिया जाएगा। अभी तक तो वे यही समझकर बहुत फूले नहीं समाते होंगे कि चलो चित भी मेरी पट भी मेरी। मुनाफा हुआ तो वह व्यक्तिगत और घाटा हुआ तो उसका समाजीकरण। वाह क्या खुदगर्ज चिंतन है-मार्केट का।

वैश्विक आर्थिक मंदी ने नीति-निर्माताओं, रेगुलेटरों और आर्थिक विशेषज्ञों पर लोगों के भरोसे को हिलाकर रख दिया है। इस मंदी ने समाज और अर्थव्यवस्था को भारी क्षति पहुँचाई है। लेकिन विडंबना है कि आर्थिक मंदी से पहले बूम के समय 'ऋण लेकर घी पीने की संस्कृति' का प्रचार करने वालों और दोनों हाथों से फायदे बटोरने वालों के चलते ही यह आर्थिक संकट पैदा भी हुआ और फिर उन्हीं हाथों को 'लेमन सोशलिज्म' के तहत भारी-भरकम बेल-आउट का आकर्षक उपहार भी थमाया गया। स्मिथ से लगाय रिकार्डो तथा मिल तक शास्त्रीय उदारवाद इस अर्थ में एक क्रांतिकारी विचारधारा रहा है कि उसने बड़े जमीदारों तथा व्यापारिक हितों करारा प्रहार किया था। इसके विपरीत आज हमें एक भद्दा उदारवाद नजर आता है जो 'मुक्त बाजार' के विमर्श को विकृत रूप में विशाल 'कार्पोरेशन' जैसी एक समकालीन संस्था के पक्ष में इस्तेमाल कर रहा है। गौर करने की बात है कि यह कार्पोरेशन अपनी ताकत और कायदे-क़ानूनों में पुराने समय के स्थापित कुलीन-तंत्र तथा सामंती व्यवस्था की याद दिलाता है।

मुक्त बाजार का मुक्त कंठ से गुणगान करने वाले मिल्टन फ्रिडमैन तथा फ्रेडरिक हाएक जैसे अर्थशास्त्री मानते हैं कि मनुष्य की नागरिक तथा राजनीतिक स्वतंत्रता एक आवश्यक शर्त है जिसे केवल मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था में ही हासिल किया जा सकता है।

दरअसल, फ्रेडरिक हाएक का बाजार अर्थव्यवस्था के प्रति नजरिया शुद्ध स्वाधीनतावादी था। वह मानता था कि सामाजिक संसाधनों का बेहतरीन समायोजन या एक स्वत: स्फूर्त व्यवस्था केवल बाजार आधारित अर्थव्यवस्थाओं के भीतर ही पनप हो सकती है। हाएक 'स्वत: स्फूर्त व्यवस्था' (Spontaneous Order) के अपने विचार के लिए इसी से मिलती-जुलती एडम स्मिथ के 'अदृश्य प्रेरणा' (Invisible Hand) की अवधारणा का ऋणी है।

दोनों का मूल स्वर एक है। दोनों की मान्यता एक है कि वैयक्तिक आर्थिक कारोबार के अनुक्रम में एक स्वत: स्फूर्त व्यवस्था स्थापित हो जाती है। इसी से सामाजिक भलाई का मार्ग भी प्रशस्त होता है। हाएक के यहां जो Spontaneous Order एडम स्मिथ के यहां वही Invisible Hand है। 'वेल्थ ऑफ नेशन्स' के निम्नलिखित उद्धरण पर ग़ौर करने पर साफ जाहिर हो जाता है कि एडम स्मिथ महोदय के विचारों में मुक्त बाजार या मुक्त अर्थव्यवस्था के बीज छिपे थे: "केवल अपना ही हित साधने वाला व्यक्ति भी एक 'अदृश्य प्रेरणा' से किसी ऐसे लक्ष्य के लिए काम कर जाता है जो उसकी योजना का हिस्सा नहीं रहा था। उसका यह कृत्य उसकी मूल योजना का हिस्सा न होने के बावजूद व्यापक समाज के लिए हानिकर नहीं होता। इस प्रकार व्यक्ति अपने हित के लिए काम करते हुए प्राय: सामाजिक हित का लक्ष्य ज्यादा बेहतर ढंग से पूरा कर रहा होता है जितना अगर वह वास्तव में करना चाहता तो शायद न कर पाता। मुझे ऐसा वाकया कभी नहीं दिखा जब सार्वजनिक हित की भावना से किसी व्यापार में लगे व्यक्तियों द्वारा बहुत अच्छे काम हुए हों।"

साभार संदर्भ
1. दि इकोनॉमिस्ट
2. इकोनॉमिक एण्ड पोलिटिकल वीकली
3. मेनस्ट्रीम
4. विकीपिडिया पोर्टल
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अनुवाद

अनुवाद का मैदान: दो पाठों का टकराव: इतिहास और संस्कृति

अभी हाल ही में मैं अपने तमाम मित्रों के साथ चेन्नै में आयोजित राजभाषा सम्मेलन में भाग लेकर वापस आ रहा था। फ्लाइट में समय काटने के लिए सामने की कुर्सी की पीठ पर लगे मनोरंजन के चौखटे से जुड़े हेडफोन को कानों में खोंसकर अपनी पसंद के फिल्मी गाने सुनता रहा। जब मन भर गया तो 'कार्तिक कालिंग कार्तिक' फिल्म शुरू किया। फिल्म पूरी नहीं हो पायी क्योंकि तब तक कैप्टन ने लैंडिंग के संकेत दे दिए थे। हिन्दी संवादों के अंग्रेजी सब टायटल्स (रनिंग अनुवाद) ने मेरे अंदर के अनुवादक को छेड़कर जगा दिया। अब तो हिन्दी में बोले जा रहे संवादों को मेरे कानों ने सुनना ही बंद कर दिया। मेरा दिमाग तो केवल स्क्रीन पर नीचे के भाग में तड़ातड़ अंग्रेजी में आ रहे सब टायटल्स (अनुवाद) को पढ़ने और समझने में ही डूबा रहा। मित्रों। मैं इस सहज घटना का ज़िक्र इसलिए आपसे कर रहा हूँ क्योंकि मेरा मानना हैं कि भाषाएं तो खुद ही बड़ी मायावी होती हैं। उनके साथ होना साँप की आँखों में देखना और फिर मोहाविष्ट हो जाना है। ऊपर से यदि दो भाषाएं एक साथ आपके सामने हों तो कल्पना करिए उनके इंटरप्ले से कितना बड़ा सम्मोहन पैदा होगा। और भाषाओं के परस्पर अभिसार और आलिंगन से यह सम्मोहन अनुवाद की धरती पर ही पैदा होता है। मैं चेन्नै जाते समय और वहां पहुंचकर तीन दिन चेक लेखक कारेल चापेक की कहानियों के हिन्दी अनुवाद पढ़ता रहा। कहानियां तो ख़ैर सुंदर हैं ही; लेकिन वे महासुंदर बन पड़ी हैं - हिन्दी में अनूदित होकर। अब आप जानना चाहेंगे कि वह अनुवादक कौन हो सकता है? सिर्फ़ और सिर्फ़ निर्मल वर्मा। निर्मल के बारे में बहुत प्रसिद्ध कथन है - वे गद्य में कविता लिखते हैं। कहीं से लगता ही नहीं है कि कहानियां अनुवाद हैं। इसका एक कारण तो यह कि निर्मल वर्मा ने सीधे चेक भाषा से इन कहानियों का हिंदी में अनुवाद किया है। दूसरे, वे 1959 से 1968 तक प्राग में ही रहे थे। वहां की पहाड़ी, ब्रिज, चर्च, रेस्तरां कहां हैं; किन-किन रास्तों से उन जगहों पर जाया जा सकता है - इन सबकी तफसील हैं निर्मल के उपन्यास और कहानियां। उनके लिए अनुवाद दो भाषाओं के बीच फैले जंगल में अकेले निर्लिप्त और सब खतरों से मुक्त घूमना है।

आखिर यह अनुवाद किस बला का नाम है। आप भी अपने कार्यालय में हिंदी अनुवाद के फेर में आए दिन पड़ते ही होंगे। लेकिन अनुवाद के साथ असली नूराकुश्ती तो फिर भी आपको नहीं करनी पड़ती है। उसके लिए बैंक ने हर कार्यालय में राजभाषा अधिकारी जो बिठा रखा है। नयी-नयी बैंकिंग अवधारणाओं की थाह लेना और तुर्रा यह कि अंग्रेजी भी पोस्ट-विक्टोरियन मिज़ाज की। लंबे-लंबे परिपत्र और भारी-भरकम रिपोर्टें देखकर दिमाग में सूनामी तरंगें उठने लगती हैं। वो क्या भीषण अंग्रेजी की रुह भी थर्रा जाए। लेकिन हम मैदान में उतरते हैं-निष्कवच और निर्भय। हम जानते हैं कि हमारे काम को लोग मौलिक नहीं मानेंगे। हमारी कृतियाँ हिंदी में हैं इसलिए दोयम दर्जे की हैं। इस दंश को हम दशकों से झेलते आए हैं। अंग्रेजी में की गयी नकल भी सहजता से मान्य हो जाती है। बल्कि जिसकी अंग्रेजी जितनी दुरुह उसकी उतनी पूछ। हिंदी अनुवाद को सहज-सरल बनाने की भरसक कोशिश की जाती है। लेकिन अंग्रेजी पाठ यदि भयंकर हो तो उसका हिंदी पाठ पंचतंत्र की कथा कभी नहीं हो सकता। अभी पूंजी पर्याप्तता का बासल-2 फ्रेमवर्क बैंकिंग के केंद्र में है। लेकिन उसकी अंग्रेजी देखिए। एक निपट सांध्य भाषा। यह अंग्रेजी पर कोई आरोप नहीं है। ख़ैर मेरे जैसे नाचीज की औकात ही क्या कि इतनी क्लासिकल और रूमानी भाषा पर गंदा आरोप लगाए। इसके पैरोकार तख्त और ताज से ताल्लुक रखते हैं। इसलिए अभिजन की भाषा की निंदा कैसे की जा सकती है। अभिजन जिधर जाते हैं वही पंथ बन जाता है। लेकिन भाषा हमेशा पंथों और ग्रंथों की विरोधी रही है। उसकी मिसाल उसके जनवादी तेवरों के लिए दी जाती है। भाषा जनमन के भीतर ही अपनी जिजीविषा से मिल पाती है। उसका स्पंदन लोकसंसार में धड़कता है। जो भाषा जितना आभिजात्य संस्कारों वाली रही है वह उतना ही प्रयोग से बाहर होती चली गयी है। हिंदी इसी जनमन की भाषा है।

आइए चलिए देखें - अपने कार्यालय के उस कक्ष में जहाँ राजभाषा अधिकारी अंग्रेजी में लिखे ढेर सारे कागजात, रिपोर्टों, परिपत्रों के बीच घिरा कुछ लिखता चला जा रहा है। जनाब! उसे कम मत समझिए - वह अनुवाद कर रहा है। बात-बात में भूमिका लंबी-चौड़ी होती जा रही है। अब सीधे अनुवाद रूपी कला और बला की नकेल पड़ते हैं।

अनुवाद का अपना हजारों साल पुराना इतिहास है। अरब खास तौर से इराक में इस विधा को एक पुख्ता जमीन मिली। पुरातत्वविदों को जिल्गामेश के महाकाव्य तथा हमूराबी की संहिता के कई भाषाओं में अनुवाद प्राप्त हुए हैं। पंद्रहवीं सदी तक आते-आते अरब देशों में अनुवाद की कला बाजाफ्ता एक लोकप्रिय और स्थापित विधा बन चुका था। उन्होंने अनुवाद की दो विधियाँ अपनायी। पहली विधि प्रथम अनुवादक इब्न नयमा अल-हिम्शी के नाम से जानी जाती है। यह शाब्दिक अनुवाद की धारा है। अनुवाद की दूसरी धारा के प्रवर्तक अपने जमाने के दो उम्दा अनुवादक अल-बतरीक तथा उसका बेटा याह्या थे जिन्होंने पाठ के अर्थ के अनुवाद को महत्वपूर्ण माना। पिता-पुत्र की इस जोड़ी ने यूनानी दर्शन और चिकित्सा पद्धति के महान ग्रंथों का अरबी में अनुवाद किया।

यदि इससे आगे बढ़कर देखा जाए तो अनुवाद की एक तीसरी धारा के लिए भी गुंजाइश बनती है। इस तीसरी धारा में खास बात उसकी रचनात्मक शक्ति है। इस अनुवाद में पाठ की वस्तु और उसके अर्थ दोनों का अनुवाद कलात्मक प्रतिभा के ऐसे सूक्ष्म स्तर पर किया जाता है जहाँ पाठ के सतह पर दिखने वाले रूप और अर्थ के पार का संज्ञान उभरकर सामने आ जाता है। इसका अधिवास संपूर्ण पाठ की शैली में कहीं खोजा जा सकता है। इसका एक आत्मीय संबंध लेखक की दृष्टि के साथ भी बनता है। यह एक प्रकार के रहस्य पर से पर्दा उठाने जैसा अनुभव है। इस प्रकार एक अनुवादक दो भाषाओं की भिड़ंत के बीच खतरे में खड़ा रहकर एक नयी रचना का शिलान्यास करता है। उसे मूल पाठ के प्रति ईमानदार रहते हुए एक सर्वथा नया पाठ गढ़ना पड़ता है। यह काम आसान नहीं होता। कुछ विद्वान तो मानते हैं कि अनुवाद इत्र के मानिंद होता है। यदि इत्र को एक शीशी से दूसरी शीशी में ऊड़ेला जाए तो उसकी कुछ खुशबू तो उड़ ही जाती है। इसी प्रकार अनुवाद के बाद पाठ की कुछ खुशबू और उसकी कुछ रुह तो फना हो ही जाती है। बेंजामिन जैसे भाषाविद् मानते हैं कि अनुवाद संस्कृतियों के बीच एक पुल बना देता है। वह सिर्फ लक्ष्य भाषा का साहित्य समृद्ध नहीं करता। वह भाषाओं और संस्कृतियों के मिलाप से विश्वायतन को समझने का एक सांस्कृतिक इंक्यूबेटर बन जाता है।

अनुवाद का इतिहास उतना ही पुराना है जितनी मानव सभ्यता। भाषा की शुरूआत के साथ-साथ अनुवाद का श्रीगणेश भी हो गया था। भारत में 1857 की क्रांति न सिर्फ स्वाधीनता संग्राम की दृष्टि से एक निर्णायक क्षण है बल्कि वह भारतीय मानस को बदल देने वाली एक अभूतपूर्व घटना रही है। इससे निकली चेतना नवजागरण की लिपि बनी। समूचे देश में नवजागरण हर स्तर पर प्रतिरोध और परिवर्तन के स्वर को मुखरित कर रहा था। साहित्य, कला, कविता, भाषा, चिंतन, पत्रकारिता सब कुछ एक प्रतिबद्धता और एक जज्बे से ओतप्रोत थे। वह जज्बा था - आत्मबोध का, भारतीयता की पहचान का। इसी भारतीयता के घनीभूत पुंज थे - भारतेंदु हरिश्चंद्र। वे हिंदी क्षेत्र में नवजागरण की इस चेतना के अग्रदूत थे। उन्होंने नवजागरण की चेतना को साहित्य-संस्कृति के माध्यम से जनजीवन में जगाया। जनजागरण के अपने इस अभियान में भारतेंदु बाबू जिन दो सशक्त साधनों का इस्तेमाल किया वे थे - पत्रकारिता और अनुवाद। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के संपादन में 1901 में सरस्वती पत्रिका निकली। यह मात्र पत्रिका नहीं; अपने समय का प्रामाणिक आख्यान थी। हिंदी में यह भारतीय मानस को पुनराविष्कृत करने वाली अदम्य और निर्भीक पत्रकारिता की शिखर उपलब्धि थी। सरस्वती में द्विवेदी जी ने इसमें मौलिक साहित्य के साथ-साथ अनुवाद को भी उदारता के साथ महत्व दिया था। दुनिया-भर के ज्ञान-विज्ञान से यह पत्रिका अनुवादों के माध्यम से हिंदी संसार को परिचित करा रही थी। दुनिया की जानकारी यहाँ जितनी लेखन से आती थी उससे कम अनुवादों के माध्यम से भी नहीं आती थी। नवजागरण का यह युग एक प्रकार से अनुवाद विधा के लिए भी वरदान साबित हुआ। भारतेंदु हरिश्चचंद्र ने ख़ुद संस्कृत, बांग्ला, अंग्रेजी आदि भाषाओं के कई नाटकों का हिंदी में अनुवाद किए थे। उन्होंने हर्ष के रत्नावली, विशाखदत्त के मुद्राराक्षस का बांग्ला से, कर्पूर मंजरी का प्राकृत से तथा शेक्सपियर के 'मर्चंट ऑफ वेनिस' का 'दुर्लभ बंधु' शीर्षक से हिन्दी अनुवाद किया था। अनुवाद की इस पुख्ता नींव पर आगे अनेक शीर्षस्थ लेखकों ने विश्व साहित्य की तमाम कृतियों के सुंदर अनुवाद प्रस्तुत किए। उस जमाने में आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने जोसफ एडिसन के लेख Pleasures of Imaginations का 'कल्पना का आनंद', हेकेल की पुस्तक The Riddle of the Universe का 'विश्व प्रपंच' तथा एडविन आर्नोल्ड के Light of Asia का अनुवाद 'बुद्धचरित' नाम से और श्रीधर पाठक ने ऑलिवर गोल्डस्मिथ की दो पुस्तकों The Hermit तथा Deserted Village का अनुवाद क्रमश: 'एकांत योगी' और 'ऊजड़ग्राम' नाम से किया था। महाप्राण निराला ने बांग्ला से 'आंनद मठ', 'दुर्गेशनंदिनी', राष्ट्रकवि दिनकर ने 'मेघदूत' तथा रवीन्द्र नाथ टैगोर की चुनिंदा कविताओं का हिन्दी अनुवाद किया। बाद में हिन्दी में विदेशी साहित्य के अनुवाद की एक समृद्ध परम्परा-सी बन गयी। अनुवाद विश्व साहित्य का वातायन बन गया। भीष्म साहनी ने तो बाकायदा 1957 से 1963 के बीच अपने रूस प्रवास के दौरान एक अनुवादक के रूप में कार्य करते हुए लगभग 25 रूसी किताबों का हिन्दी में अनुवाद किया था जिनमें टॉलस्टॉय का Resurrection भी शामिल है। कविवर बच्चन अपनी 'मधुशाला' और 'बसेरे से दूर' के कारण जितना प्रसिद्ध हैं उतना ही वे शेक्सपीयर के नाटकों के हिन्दी अनुवाद के लिए भी जाने जाते हैं। मोहन राकेश ने 'मृच्छकटिकम' तथा 'शाकुंतलम' का संस्कृत से हिन्दी में अनुवाद किया था। इसके अलावा रांघेय राघव, निर्मल वर्मा, कुँवर नारायण, राजेन्द्र यादव, विष्णु खरे, गंगा प्रसाद विमल जैसे बड़े लेखकों ने भी विश्व साहित्य की तमाम महत्वपूर्ण कृतियों के सुंदर अनुवाद से हिन्दी साहित्य को समृद्ध किया है। उदय प्रकाश द्वारा पाब्लो नेरुदा, लोर्का, लुइस बोर्गेस, पॉल एलुआर, एडम जेड्रेवस्की, रोजेविस, मिखाइल सात्रोव के एक नाटक का 'लाल घास पर नीले घोड़े', कन्नड़ लेखक प्रसन्ना के एक नाटक का राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, नई दिल्ली के अभिमंच के लिए 'एक पुरुष डेढ़ पुरुष' नाम से अनुवाद इस विधा को सशक्त बनाने वाले कार्य हैं। इसके अलावा अहलूवालिया,------, सूरज प्रकाश, प्रेमरंजन 'अनिमेष' आदि भी अनुवाद विधा में लगातार काम कर रहे हैं।

अंग्रेजी में लिखने वाले भारतीय लेखकों में से कई सिद्धहस्त अनुवादक भी रहे हैं। इनमें से शुरूआती दौर के लेखकों में श्री अरविन्दो तथा पी.लाल के नाम अग्रगण्य हैं। उनकी स्रोत भाषा मुख्यत: संस्कृत रही। बाद के आधुनिक तेवर वाले दिलीप चित्रे, ए.के.रामानुजन, आर.पार्थसारथी तथा अरुण कोलातकर जैसे द्विभाषिक कवियों की स्रोत भाषा उनकी मातृभाषा रही। इनके अनुवाद का विषय मुख्य रूप से मध्यकाल का भक्ति-साहित्य था। रवीन्द्र नाथ टैगोर द्वारा 'कबीर' तथा श्री अरविन्दो द्वारा 'विद्यापति' का अनुवाद इस प्रकार के अनुवाद के प्रारंभिक उदाहरण हैं। दरअसल उस दौर में अनुवाद इन कवि-लेखकों के लिए अपनी आत्मा उपनिवेशवादी चंगुल से मुक्त करने का एक सांस्कृतक औजार था।

1980 के दशक में अनुवाद को विश्व स्तर पर एक सुव्यवस्थित अनुशासन के रूप में प्रतिष्ठा मिली। 1970 का दशक इसको अपनी पहचान बनाने में बीत गया। 1990 को इलेक्ट्रॉनिक मीडिया क्रांति का दशक माना जाता है। इस दशक में संस्कृतियों की साझेदारी और उनके बीच आवाजाही के नए मार्ग खुल गए। यह सब कुछ इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से संभव हुआ। सरहदें नाकाफी हो गयीं। इस मीडिया की उड़ान के रास्ते में कोई सरहद बीच में नहीं आती। सूचना क्रांति ने वैश्वीकरण को संस्कृतियों के संदर्भ में समझने का अवसर दिया। लेकिन वैश्वीकरण का एक नकारात्मक पहलू भी है। सांस्कृतिक जड़ों को पुनर्परिभाषित करने और राष्ट्रों के बीच हितों के नए समीकरण और टकराव के क्षेत्रों में उभार भी इसी प्रक्रिया की विरासत है। ऐसे में अनुवाद तेजी से नस्ली और एथनिक दीवारों में बँटती जा रही इस उत्तर-वैश्वीकृत दुनिया को समझने का एक ताजादम अनुशासन बन रहा है।

इधर अनुवाद की महत्ता काफी बढ़ी है। विश्व के अनेक दूरस्थ भागों व भाषाओं का साहित्य अब अंतर्राष्ट्रीय पाठक-वर्ग को कहीं अधिक सुलभ है जो अनुवाद के ही माध्यम से संभव हुआ है। आयरलैंड के विद्वान माइकल क्रोनिन ने अनुवादक को एक ऐसा यात्री बताया है जिसकी यात्रा एक स्रोत से दूसरे स्रोत तक होती है। निश्चित रूप से 21वीं सदी न केवल देशों के बीच एक महत्वपूर्ण यात्रा की साक्षी बनेगी बल्कि समय का एक नया वृतांत भी बनेगी।

अनुवादों से मूल भाषा का कम ही बनता-बिगड़ता है पर लक्ष्य भाषा अर्थात् जिसमें अनुवाद होकर आये हैं, उस पर अनुवादों का कैसा और कितना प्रभाव पड़ता है, इस विषय पर अनुवाद शास्त्र के विद्वानों ने पिछले कुछ दशकों में काफि कुछ कहा है। इनमें से केवल दो मुख्य बिन्दुओं का संक्षिप्त संकेत यहां पर्याप्त है। पहली तो इजराइल के अनुवाद विशेषज्ञ इतमार ईवेन जोहार की सैद्धान्तिक स्थापना कि अनुवाद किसी भी भाषा व साहित्य की आंतरिक बहुआयामी प्रणाली में ही बदलाव लाते हैं, जिससे उस भाषा का ढाँचा और मुहावरा बदलता है। एक और सवाल हमेशा हमारे सामने खड़ा रहता है कि अनुवाद सुगम या घर-जैसा होना चाहिए (Domestication) या जान-बूझकर अटपटा और अपेक्षाकृत दुर्गम जिससे वह स्पष्टत: पराया लगे (foreignization)? इस गहन किन्तु असाध्य विषय पर जो बहसें हुई हैं उनके प्रथम प्रवर्तक थे फ्रीडरिख श्लायरमाखर और हमारे समय के अधिकारी विद्वान हैं लारेंस वेन्युटी।

इस प्रकार आप देखेंगे कि हमारी बिरादरी के मजबूत हाथों में साहित्य-संस्कृति का परचम भी लहराता है। अनुवाद एक सर्जना है - यदि आप मानें तो। हाल-फिलहाल अनुवाद को सत्ता-विमर्श से भी जोड़कर गंभीर अध्ययन चल रहा है। अनुवाद, इतिहास, संस्कृति नामक अपनी पुस्तक में आंद्रे लेफेवेरे कहते हैं कि अनुवाद का सीधा संबंध अथॉरिटी, लेजिटीमेसी और अंतत: सत्ता के साथ है। अनुवाद एक दूसरी दुनिया की तरफ खुलने वाली खिड़की मात्र नहीं है। A window opened on another new world. अनुवाद एक ऐसा चैनल भी है जिसके रास्ते बाहरी संस्कृति के प्रभाव स्थानीय संस्कृति पर पड़ते हैं। अनुवाद का इस चैनल के रूप में बहुधा इस्तेमाल किया जाता है। स्थानीय संस्कृति पर ऐसा अनुवाद आघात करता है। उसे कलुषित करता है। परायी वैचारिकी के रंग में रँगना शुरू कर देता है। विक्टर ह्युगो ने अनुवाद की इस छद्म ताकत को पकड़ा था। उन्होंने लिखा है कि जब आप किसी राष्ट्र को कोई अनुवाद पढ़ने के लिए देते हैं तो आप माने चाहे न माने राष्ट्र उसे अपनी अस्मिता पर एक हमले के रूप में लेता है (When you offer a translation to a nation, the nation will almost always look on the translation as an act of violence against itself)

राजभाषा अधिकारी इतने बड़े-बड़े प्रश्नों से तो नहीं जूझता है लेकिन अनुवाद की रणभूमि में जाने-अनजाने शब्द-चरितों और शब्द-संहिताओं की कठिन गुत्थियाँ सुलझाता-सुलझाता वह खुद एक चरित-नायक में ढलता जा रहा है। वह अपने प्रादुर्भाव की हीरक जयंती मना रहा है। वह एक ऐसी भाषा का ऑफिसियल चेहरा है जो हमारे देश की एकता और सांस्कृतिक अस्मिता की भाषा है। यानि हिंदी। हिंदी में सगुण हैं, निर्गुण हैं, राम हैं, कृष्ण हैं, नानक हैं, अल्लाह हैं। हिंदी समन्वय है। हिंदी विरुद्धों का सामंजस्य है।