बोल कि लब़ आज़ाद हैं तेरे........

बोल कि लब़ आज़ाद हैं तेरे........
बोल कि लब़ आज़ाद हैं तेरे........

Tuesday, November 30, 2010

विमर्श

How pious the knowledge is; if unmanufactured
Today, while reading an article on Firaq Sahib, I came to know of a very important advice given by this literary genius. Firaq Sahib used to say very often that "Books are not meant for to always stay engrossed to. The purpose of reading books is to come out of them to test and try the content derived from them in the real world. It means whatever you have read should be reflected through your quest in life. You have to let your knowledge be kissed by the real life experiences. It is sine qunon for us to brood much more over whatever you have read."


Knowledge is an open-ended process. Its stream should be kept flowing in so many directions as it may take during its course towards a better and graduated fulfilment. It shines in many splendours when feather-touched by empirical sweep of mind across the time and space while sailing its voyage through a life. By the way we have ushered into a knoledge city and information society. Through the world wide web we are networked to leverage a vast plethora of knowledge at a click away from each of us. This democracy of informatin is a new avatar to shape the human society to its ideally best form of culture and governance. Information capacitates us. It's a historic juncture in the civilizational progress of human society where possibilities are infinetly infinite and potential boundless. Let this informed society prosper and progress as per the wishes of Gurudev. His unforgettable famous lines are presented hereunder once again for a ready reference:
"Where The Mind Is Without Fear
Where the mind is without fear and the head is held high

Where knowledge is freeWhere the world has not been broken up into fragments

By narrow domestic walls

Where words come out from the depth of truth

Where tireless striving stretches its arms towards perfection

Where the clear stream of reason has not lost its way

Into the dreary desert sand of dead habit

Where the mind is led forward by thee

Into ever-widening thought and action

Into that heaven of freedom, my Father, let my country awake."

Thursday, November 25, 2010

सामयिकी


आर्थिक मंदी
मुक्त बाजार
मलबे का मालिक

बाजार हो या कोई व्यवस्था वह अपने आप में सर्वगुणसंपन्न और चिरस्थायी नहीं हो सकती। उसमें बदलते समय के हिसाब से संशोधन और परिवर्तन अपरिहार्य होता है। मशीन से इस संशोधन और परिष्कार का विवेक नहीं प्राप्त किया जा सकता। इसके पीछे किसी मौलिक विचार की आधारशिला का होना जरूरी है। एक वैज्ञानिक हुए हैं सर जेम्स ज्यां। उन्होंने एक जगह लिखा है कि - 'यह ब्रह्मांड देखने में एक वृहत मशीन से ज्यादा एक महान विचार लगता है।' इसी प्रकार बुद्ध ने भी कहा था कि मनुष्य के विचार से ही वस्तुओं का गुण, उनका आधार और उनका अस्तित्व रूपायित होता है। इसी बात को सबसे सटीक अभिव्यक्ति कालजयी कवि जॉन मिल्टन की इन पंक्तियों में मिली है -
The mind is its own place, and in self
Can make a heaven of hell, a hell of heaven.

इस भूमिका के बाद मुझे यह बात समझाने में सुविधा होगी कि बाजार का विचार भी कहीं न कहीं मनुष्य के दिमाग की उपज होगा। उसकी परिभाषा और उसका स्वरूप किसी विचार से ही आया होगा। यदि बाजार उन्मुक्त होकर मनुष्य के आर्थिक विकास में योगदान करता है तो कभी-कभी अपनी सहजात कमजोरियों के कारण अर्थव्यवस्था पर कहर भी बरपा करता है। बाजार को उसकी सोयी हुई दुष्टात्माओं की याद मनुष्य ही दिलाता है। बाजार में भयंकर उथल-पुथल से पहले भीषण रक्तपात मनुष्य के दिमाग में ही होता है - जॉन मिल्टन की भाषा में कहें तो स्वर्ग पहले मनुष्य के दिमाग में उजड़ता है और नरक बनता है। पिछले साल से आर्थिक मंदी की चपेट में फँसी दुनिया में भीषण बर्बादी का जो आलम है उस पर एक विहंगम दृष्टि हम मनुष्य के भीतर छिपे एक खलनायक के नजरिए से डालेंगे। साथ ही, महान दार्शनिक कांट की एक बात अपनी जहन में रखेंगे कि - Man is made of his defective timbre.

आर्थिक उजाड़ से उभरती आवाजें
आर्थिक मंदी की मार झेलते इस समय का वृतांत किसी ट्रेजडी से कम नहीं है। एक अभूतपूर्व रंगीनी में खोयी दुनिया पूंजी की समृद्ध सिंफनी डूबकर सुन रही थी कि अचानक बूम के टीलों में विस्फोट होने लगे और वाल स्ट्रीट घने धुओं से घिर गया। फिर एक बार कीन्स का अर्थशास्त्र बाजार की समीक्षा बनकर धुँए के इन गुबारों के बीच से झांकने लगा था। ऐसे संकट के समय में मनुष्य की त्रासदी और अर्थव्यवस्था से उसका ज़वाब मांगने के लिए सवाल धुँधुआई स्याही से ही लिखने होंगे।

आपने जी-3 का नाम सुना होगा। दुनिया इस नाम को नमन करती है। यह अमेरिका, यूरोपीय संघ तथा जापान जैसी आर्थिक महाशक्तियों की तिकड़ी है। ज़ाहिर है दौलत के दम पर ये देश हर मामले में अपना रसूख और ताकत रखते हैं। ये मूलत: धंधेबाज देश हैं और धंधे से होने वाली कमाई से ये हर छोटे-मोटे देश को दबाना चाहते हैं। यानि बिजनस-व्यापार में माहिर और बाद में नवीनतम तकनीक के आविष्कर्ता होने के कारण इनका बहुत रुतबा है।

आर्थिक मंदी एक प्रकार से बाजार के बे-लगाम भागमभाग और उसके औंधे मुँह गिरने की कहानी है। बाजार की अर्चना-पूजा और उसे अष्ट-सिद्धि-नवनिधि का दाता मानकर उसके आगे नतमस्तक और पुष्पहस्त खड़े आर्थिक चिंतकों के लिए यह बाजार की विखंडित प्रभुसत्ता पर विलाप करने का समय है। दुनिया ने देख लिया कि बाजार समाज को नहीं चला सकता। उससे चंद पूंजीपति और शेयरबाज तो मालामाल हो सकते हैं लेकिन औसत आदमी के मुँह के निवाले का दर्शन वह कतई नहीं हो सकता। आर्थिक मंदी के बहुत घिसे-पिटे और रद्दी हो चुके विमर्श को न दोहराते हुए आइए हम उन खास-खास गर्त और शिखर का स्नैपशाट्स लें जो इस करुण महागाथा का पाठ उसकी पहली बरसी पर एक नए सिरे से खोल सके।

बाजार की सत्ता में विश्वास करने वाले आर्थिक सिद्धांतकार बार-बार यह हिदायत देते हैं कि सामाजिक उद्देश्यों को पूरा करने के लिए बाजार को नियंत्रणमुक्त कर देना चाहिए। दरअसल वर्तमान संकट ने बाजार पर एक अच्छी-खासी बहस ही छेड़ दी है। वे पिछले तीन-चार दशकों में विकसित बाजार के महाकाय स्वरूप और इस क्रम में वित्तीय बाजारों से इस बात की विशेष ख्वाहिश रखते हैं कि वे लोगों की बचत को बेहतरीन ढंग से निवेश कर आर्थिक-सामाजिक कल्याण का मार्ग प्रशस्त करेंगे। वित्तीय सुधारों पर संयुक्त राष्ट्र आयोग की चर्चाओं में बाजार के बारे में उछाले गए ऐसे कई दावों की पड़ताल की गई। मसलन, क्या वित्तीय बाजारों के फैलाव ने वित्त को, जिसकी हैसियत एक सेवक की थी, उसे अर्थव्यवस्था और प्रकारांतर से पूरे समाज का मालिक बना दिया है। बाजार की प्रक्रियाओं के तेवर और उन्हें समझने के लिए अर्थशास्त्रियों द्वारा अपनाए जाने वाले मॉडलों को लेकर बुद्धिजीवियों, नीति-निर्माताओं और बाजार के खिलाड़ियों के बीच तीखी बहस छिड़ी हुई है। ये लोग दबी जुबान से मानने लगे हैं कि वित्त प्रदाताओं के निजी जोखिम तथा जनता के सामाजिक जोखिम के बीच ज़रूर कोई-न-कोई गड़बड़ तालमेल रहा है। अब सब चीजें जगजाहिर हो जाने के बाद मौज़ूदा संकट को वालस्ट्रीट की भाषा में मुक्त बाजार व्यवस्था की कोख से जन्मा एक ड्रैगन भी कहा जाने लगा है। मुक्त बाजार के विचार को एक असफल दर्शन कहा जा रहा है।

मुक्त बाजार : बादशाहत पर लगा बट्टा
मुक्त बाजार व्यवस्था में बाजार सरकारी हस्तक्षेप और नियंत्रण से काफी हद तक मुक्त होता है। कुछ आवश्यक रेगुलेशनों को छोड़कर सरकार की भूमिका अत्यंत सीमित होती है। वह मांग और आपूर्ति के गत्यात्मक संबंधों पर बाजारों को स्वतंत्रतापूर्वक विकसित होने के लिए छोड़ देती है। उसका काम केवल सहायक परिस्थितियों का निर्माण करना होता है। सरकारें स्वयँ बाजार के बीच नहीं खड़ी होतीं। मुक्त बाजार की परिभाषा के अनुसार मुक्त बाजार के खिलाड़ी एक-दूसरे पर न तो किसी प्रकार की धौंस जमाते हैं और न ही एक-दूसरे के संपत्ति अधिकार बलपूर्वक या धोखाधड़ी से छीनते हैं। उनके बीच आर्थिक लेनदेन में कीमत का निर्धारण मांग और आपूर्ति के नियम के आधार पर खरीद-बिक्री के बारे में लिए गए सामूहिक निर्णयों से तय होता है।

प्रकारांतर से इस मंदी में अंतर्राष्ट्रीय बैंकिंग व्यवस्था की असफलता का पाठ भी छिपा है। बैंकिंग असफलताओं की भी इतिहास में एक लंबी फेहरिश्त मौज़ूद है। माना जाता है कि अभी तक दुनिया में 84 बार बैंकिंग व्यवस्था के समक्ष इस तरह के संकट पैदा हो चुके हैं। यह 85वां संकट है। अग़र नीति-निर्माता सिर्फ़ यह कहकर पिंड छुड़ाना चाहते हों कि वर्तमान संकट के पीछे बिलकुल अभूतपूर्व कारक हैं तो यह उनका स्थितियों के प्रति तदर्थ या चलताऊ नज़रिया दर्शाता है। इसके ज़वाब में इस समस्या पर नए ढंग से विचार करने वाले लोग तर्क देते हैं कि पिछले 84 बैंकिंग संकट ऋण चूक स्वैप (Credit Default Swap) या विशेष निवेश व्यवस्थाओं (Special Investment Vehicle) या घातक परिसंपत्तियों (Toxic Assets) के चलते नहीं उपजे थे। उन संकटों से क्रेडिट रेटिंग का कोई लेना-देना नहीं था। यानि हर संकट के पीछे कारक नए ही रहे हैं। इसलिए विश्व के सामने एक यक्षप्रश्न है कि क्या किया जाए कि ऐसे विध्वंशक संकटों की पुनरावृत्ति न हो। क्या इतने रेगुलेशनों के बावज़ूद ऐसे संकट मंडराते रहेंगे। क्या अर्थव्यवस्था के नियामक और नीति-निर्माता सिर्फ हो चुके संकटों की व्याख्याएं ही प्रस्तुत करते रहेंगे या उन्हें रोकने की कोई कारगर प्रणाली भी विकसित करेंगे।

बाजार से हुए हजारों ट्रिलियन डॉलर के नुकसान से उपजे क्रोध एवं खीझ ने बाजार पर नियंत्रण यानि रेगुलेशन के तर्क को पुख्ता किया है। लेकिन यहां भी एक प्रतिप्रश्न उपस्थित हो जाता है कि क्या केवल व्यापक रेगुलेशन की कोई प्रणाली ऐसे संकटों का पक्का ज़वाब हो सकती है। आर्थिक चिंतकों का मानना है कि केवल रेगुलेशन नहीं अपितु समष्टि-विवेकपूर्ण दृष्टिकोण से संपन्न एक बेहतर रेगुलेशन की विशेष आवश्यकता है।

आर्थिक मंदी ने इस तथ्य को उजागर कर दिया है कि वित्तीय संकटों का बहुत बड़ा खामियाजा समाज को भुगतना पड़ता है। उसके सामने वित्तीय संस्थाओं को होने वाले निजी नुकसान कम होते हैं। वित्तीय संस्थाओं के कारण संभावित नुकसान को उसके भीतर ही सीमित करने का काम रेगुलेटर का होता है। 'पूंजी पर्याप्तता का अनुशासन' उसके शस्त्रागार से निकला पहला शस्त्र होता है। लेकिन पूंजी पर्याप्तता के प्रति दुनिया-भर में जो रुझान है वह बड़ी इकहरी सोच पर टिका है। उसकी विवेकपूर्णता व्यष्टिकेंद्रित है। हम समझते हैं कि यदि एक-एक बैंक पूंजी पर्याप्तता के कठोर अनुशासन में रहे तो सारे बैंक सुदृढ़ पायदान पर खड़े रहेंगे और इस तरह समूची व्यवस्था मजबूत बनी रहेगी। लेकिन हुआ इसका उलटा। असल में अर्थव्यवस्था के प्रति इस व्यष्टि-विवेकपूर्ण नज़रिए में ही कहीं खोट है। बैंक या दूसरी वित्तीय संस्थाएं स्वयं को सुरक्षित स्थिति में बनाए रखने के लिए प्रतिस्पर्धा और फायदे के लिए ऐसे धतकरम कर सकती हैं जो संपूर्ण अर्थव्यवस्था की चूलें हिला सकता है। यह वित्तीय व्यवस्था का जोखिम है।
बाज़ार का तिलिस्म
भूमंडलीकरण और उदारीकरण के साथ मुक्त बाजार के आगमन से न केवल दुनिया की अर्थव्यवस्था में आमूल-चूल बदलाव आया बल्कि उसके हाथों उपभोग और स्थूल आनंद की नई परिभाषा भी गढ़ी गई। उपभोक्तावाद एक संस्कृति बनता गया। मुनाफा नैतिकता की नई कसौटी और आवारा पूंजी समस्त विलास-वैभव की अचूक साधन बन गई। उसकी लंबी परियोजना को देखें तो लगेगा कि यदि सब ऐसे ही चलता रहा तो एक दिन यह दुनिया ही एक कारपोरेट में तब्दील हो जाएगी। मुनाफा कमाने वाला कारपोरेट लोगों में बाजार के प्रति ऐसी श्रद्धा जगाने लगा मानो वह अष्ट-सिद्धि-नवनिधि का दाता हो। कारपोरेट एक मंदिर हो और पूंजी उसमें अधिष्ठित देवी।

अगर अमेरिका की मुक्त बाजार आधारित अर्थव्यवस्था और उसके गर्भ से जन्मे बाजारवाद, भोगवाद, मांसल सुख के ऐश्वर्य और उसे युग की प्रवृत्ति के रूप में स्थापित करने वाले अमेरिकी मीडिया की करामात को मनुष्य के सांस्कृतिक पक्षाघात के रूप में देखना हो तो आप एक चर्चित सामाजिक मनोविज्ञानी डेविड मेयर्स की पुस्तक 'अमेरिकन पैराडॉक्स - स्प्रिचुअल हंगर इन एन एज ऑफ प्लेन्टी' पढ़िए। उसका एक अंश यहां उद्धृत करना प्रासंगिक होगा - "हमें पहले से ज्यादा पैसे मिलते हैं, पहले से बेहतर रोटी-कपड़े का इंतजाम हो गया है, बेहतर शिक्षा की व्यवस्था के साथ-साथ काफी मानवाधिकार, संचार और यातायात के तीव्र साधन और सुविधाएं भी उपलब्ध हैं। विडंबना है कि फिर भी 1960 के बाद 30 सालों में.........तलाक की घटनाओं में दोगुनी, आत्महत्याओं में तिगुनी, हिंसा की दर्ज घटनाओं में चौगुनी, जेल में बंद सजायाफ्ता अपराधियों की संख्या में पांच गुनी.........वृद्धि हुई है।"

बाजारवादी प्रलोभन से मानसिक शांति नहीं मिल सकती। पूंजी और बाजार आधारित अर्थव्यवस्थाओं की दुश्चिंताएं इतनी विकराल हैं कि सन् 1970 में ही मशहूर अर्थशास्त्री टिबोर सिटोवस्की ने ऐसी अर्थव्यवस्था को एक "नीरस अर्थव्यवस्था" (Joyless Economy) की संज्ञा दे दी थी। इसी नाम से उनकी एक बहुचर्चित पुस्तक भी निकली थी जिसने इतनी धूम मचाई कि उसे 20 वीं सदी की कुछ चुनिंदा पुस्तकों में शुमार किया जाता है।

बाजार किसी भी कीमत पर सफलता की सीख देता है। बाजार का यह एक अनैतिक आयाम है। वह सक्सेसफुल को फेथफुल से ऊंची चीज मानता है। सोचिए ऐसा बाजार जो हर समय उदारीकरण की मांग करता हो अगर वह अमेरिकी अर्थों में यूँ ही उड़ान भरता रहा तो जो हुआ है वह आखिरी संकट नहीं होगा। ऐसे माहौल में जब कि भूतपूर्व फेड सुप्रीमो ग्रीन्सपैन के माथे पर अभी तक एक भी शिकन न पड़ी हो और वे मुक्त बाजार की खुलकर हिमायत करते हों और यह कहते फिरते हों कि बाजार की फितरत के साथ ये बातें जुड़ी हैं और बाजार की चाल-ढाल से छेड़छाड़ नहीं की जा सकती तो भूमंडलीकरण का यह अर्थ निकाले जाने का खतरा बढ़ता जाएगा कि भूमंडलीकरण माने भू-मंडल को बाजार बनाने की परियोजना। ऐसे में उत्पादों का मोह, विज्ञापनों का मायाजाल, देह की उत्तेजना से मुनाफा कमाना बाजार का नया दर्शन रचते हैं। घर, मोटर, गैजेट, घड़ी, जूते, ड्रेस के प्रसिद्ध ब्रांडों को हासिल करने की बेताब तमन्नाएं ही कंज्यूमर ड्रिवेन सोसायटी के सामूहिक मानस का निर्माण करती हैं। स्किल्ड शॉपिंग भी सफल प्रबंधन का एक अध्याय बन जाता है। सफलता इस बात से तय होने लगती है कि बाहर शो-रूमों में सजी चीजों को खरीदने की आपकी हैसियत कितनी है। बाजार में मनुष्य जीवन की हर चीज को एक वस्तु या उत्पाद की तरह हासिल करने की फिराक में रहता है। एक दार्शनिक एरिक फ्रॉम थे जिन्होंने जीवन में 'प्राप्ति-कामना' (having mode) का सिद्धांत दिया था। यह मनुष्य का एक खास आलम होता है। इस आलम में हम सफलता, सुख, प्रेम आदि को अपने से अलग कोई चीज मानकर उन्हें किसी भी कीमत पर हासिल कर लेना चाहते हैं। यह एक अजीब सनक है जो हमारी जुबान तक को बदलकर रख देती है - हम हर चीज को "प्राप्त करने" के अंदाज में बोलने लगते हैं - मसलन 'achieving' success, 'getting' the girl and 'having' a great life आदि। उसके बाद तो बाजार के इस युग में व्यक्ति की पहचान ही समाप्त हो जाती है और उसकी जगह पैदा होता है - शॉपर, कंज्यूमर, कस्टमर, बारोअर, ब्रोकर और इनवेस्टर के रूप में इस बाजारोन्मादी समाज (Manic Society) का एक नया नागरिक।

इसी अनुक्रम में स्थावर संपदा के बाजार से बहकी आँधी की तरह निकली आर्थिक मंदी के मुख्य कारणों में से एक था ऐरे-गैरे लोगों अर्थात सब-प्राइम उधारकर्ताओं को मार्गेज उधार देना। इस क्षेत्र का संकट गहराने में उधारकर्ताओं की कर्ज चुकाने की हैसियत, सब-प्राइम उधार में सामान्य से दो-तीन प्रतिशतता अंक अधिक ब्याज दर से कर्ज की चुकौती और सब-प्राइम उधारकर्ताओं की चूक करने के इतिहास की विशेष भूमिका रही है। 'सूचनाओं का वैषम्य' (Asymmetry of information) ने अपनी पारी खेली और अमेरिका के हाउसिंग सेक्टर के माथे पर लिख दिया विनाश और सिद्ध हो गया कि Real sector/housing sector was the midwife of all this tragedy. लोकप्रिय शैली में अब तो रियल सेक्टर को मीडिया द्वारा वालस्ट्रीट का मेन स्ट्रीट कहा जाने लगा है।

सितंबर 2008 में लीमन ब्रदर्स सहित वालस्ट्रीट के अन्य दिग्गज आर्थिक और वित्तीय संस्थाओं के धराशायी होते ही घटाटोप आर्थिक मंदी का दौर शुरू हो गया। इसके सर्वग्रासी प्रभाव से दुनिया का कोई देश बच नहीं पाया है। पहले इसकी गिरफ्त में अमेरिका, यूरोपीय संघ तथा जापान आए। दरअसल इस आर्थिक मंदी की पैथालॉजी में जो बीमारी सामने आई थी वह अमेरिका के हाउसिंग मार्केट में हुए बड़े पैमाने पर डिफाल्ट के जीवाणु संक्रमण का दुष्परिणाम थी। वहां के इनवेस्टमेंट बैंक जोखिम को नजरअंदाज कर उधारकर्ताओं से पर्याप्त जमानत लिए बिना और कर्ज चुकाने की उनकी हैसियत देखे बिना उन्हें कर्ज पर कर्ज बांटते गए। स्थावर संपदा सेक्टर इस संकट का मुख्य स्रोत रहा है।

अंत में फूला हुआ गुब्बारा फूट ही गया। वर्तमान आर्थिक संकट ऐसे समय में पैदा हुआ जब दुनिया के तमाम ऐसे आर्थिक चिंतकों को काफी मान-सम्मान दिया जा रहा था जो सक्षम बाजार के लिए उसे नियंत्रणमुक्त करने की जोरदार वकालत कर रहे थे और बाजार की कमजोरियों और बाकी समाज पर पड़ने वाले उसके प्रभाव को नजरअंदाज कर रहे थे। यह अपने आप में उन्मुक्त बाजार के नाम पर चलायी जा रही रुढ़िवादिता (free market fundamentalism) का जबरदस्त खंडन है जिसे एक पिटा हुआ दर्शन (failed philosophy) तक कहा जाने लगा है। ट्रबल्ड असेट्स रिलीफ प्रोग्राम (TARP) पर अमेरिकी कांग्रेस के ओवरसाइट पैनल ने भी विनियामक सुधार पर अपनी रिपोर्ट के अंत में उल्लेख किया है - 'संकट की जड़ में विनियमन की भूलें रही हैं जो संरचना से ज्यादा दर्शन से जुड़ी हैं।'

टू बिग टू फेल
लीमन ब्रदर्स जैसी नामचीन संस्थाओं के खंडहरों से आर्थिक जगत को एक नई विचारधारा या कह लीजिए चर्चा के लिए एक नया मुहावरा हाथ लग गया है। यह है - Too Big to Fail. इसका सरल अर्थ है कि बहुत बड़ी वित्तीय संस्था होगी तो सरकार या नीति-निर्माता उसे बर्बाद नहीं होने देंगे क्यों कि उसका असर वित्तीय बाजारों और क्षेत्रों के अलावा पूरी अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा। इसी सुरक्षा कवच के भीतर ऐसी बड़ी-बड़ी संस्थाएं निजी लाभ के लिए निडर होकर बड़े जोखिम उठाती हैं।

अमेरिका के संदर्भ में यह कहा जाता है कि वहां के पूंजी बाजारों तथा डेरिवेटिव बाजार ऋणों की राशि नगण्य है। इसलिए विशाल वित्तीय संस्थाओं के बारे में यह कहा जा सकता है कि वे न केवल इतनी विशाल हैं कि फेल नहीं हो सकतीं बल्कि बोस्टन कॉलेज के एडवर्ड केन के शब्दों में "वे इतनी दुष्कर भी हैं कि फेल नहीं हो सकतीं और न ही उन्हें बंद किया जा सकता है।" They are not only Too Big to Fail but Too Difficult to Fail and Unwind. इसी को ग्रेशम का वित्तीय संरचना का नियम भी कहा जाता है। इस नियम के अनुसार माना जाता है कि The large and the bad can drive out the good.

आखिर इस दर्द की दवा क्या है
वर्तमान आर्थिक संकट के बाद छिड़ी बहस में व्यष्टि केंद्रित विवेकपूर्ण विनियमन को इसका समाधान माना जा रहा है क्यों कि अति-उत्साही संस्थाओं, जटिल उत्पादों तथा उनके भ्रामक व्यवहार को वित्तीय बाजारों से छाँटकर बाहर निकालने के लिए वह जरूरी है। साथ ही, समष्टि केंद्रित विवेकपूर्ण मानदंड का समावेश भी आवश्यक है जो अर्थव्यवस्था में बूम के दौरान होने वाले जोखिमों की तोड़ पेश कर सके।

एक खस्ताहाल विशाल वित्तीय संस्था की स्थिति सुधारकर उसे पटरी पर तभी लाया जा सकता है जब डेरिवेटिव एक्सपोजर ब्यौरे का पूरा नक्शा सामने हो, अलग से वास्तव में मार्जिन/पूंजी रखी गई हो, कीमतों का निर्धारण नियमित रूप से किया जाता हो तथा डेरिवेटिवों की खरीद-फरोख्त के लिए बाजारों को उस सीमा तक पूंजीकृत किया गया हो जिससे कि उनके चलते अर्थव्यवस्था खतरे में न पड़े। वित्तीय सुधारों पर संयुक्त राष्ट्र के आयोग की रिपोर्ट में इसके समाधान के कुछ उपाय सुझाए गए हैं। इसके अलावा हाल ही में पॉल वोल्कर की अध्यक्षता में जी-3 की रिपोर्ट से भी ऐसे कुछ प्रस्तावों के संकेत मिले हैं जिनमें सुरक्षा कवच के भीतर महफूज विशाल वित्तीय संस्थाओं को जटिल डेरिवेटिव व्यवसाय तथा सट्टेबाजी पर चलने वाले कारोबार से अलग करने की संस्तुति की गई है। इसके पक्ष में दलील यह दी जा रही है कि 'क्रोनी कैपिटलिज्म' की बुराइयों को तभी कम किया जा सकता है और तभी 'टू बिग टू फेल' की छवि वाली विशालकाय वित्तीय संस्थाओं की यह सोचने की आदत छुड़ाई जा सकती है कि फच्चर फंसने पर उन्हें सरकारी इमदाद के रूप में बेल-आउट मिल जाएगा। अर्थात उनका यह भरोसा तोड़ना जरूरी है कि उनके हर दुर्दिन में उनके लिए 'लेमन सोशलिज्म' का पैकेज जारी कर दिया जाएगा। अभी तक तो वे यही समझकर बहुत फूले नहीं समाते होंगे कि चलो चित भी मेरी पट भी मेरी। मुनाफा हुआ तो वह व्यक्तिगत और घाटा हुआ तो उसका समाजीकरण। वाह क्या खुदगर्ज चिंतन है-मार्केट का।

वैश्विक आर्थिक मंदी ने नीति-निर्माताओं, रेगुलेटरों और आर्थिक विशेषज्ञों पर लोगों के भरोसे को हिलाकर रख दिया है। इस मंदी ने समाज और अर्थव्यवस्था को भारी क्षति पहुँचाई है। लेकिन विडंबना है कि आर्थिक मंदी से पहले बूम के समय 'ऋण लेकर घी पीने की संस्कृति' का प्रचार करने वालों और दोनों हाथों से फायदे बटोरने वालों के चलते ही यह आर्थिक संकट पैदा भी हुआ और फिर उन्हीं हाथों को 'लेमन सोशलिज्म' के तहत भारी-भरकम बेल-आउट का आकर्षक उपहार भी थमाया गया। स्मिथ से लगाय रिकार्डो तथा मिल तक शास्त्रीय उदारवाद इस अर्थ में एक क्रांतिकारी विचारधारा रहा है कि उसने बड़े जमीदारों तथा व्यापारिक हितों करारा प्रहार किया था। इसके विपरीत आज हमें एक भद्दा उदारवाद नजर आता है जो 'मुक्त बाजार' के विमर्श को विकृत रूप में विशाल 'कार्पोरेशन' जैसी एक समकालीन संस्था के पक्ष में इस्तेमाल कर रहा है। गौर करने की बात है कि यह कार्पोरेशन अपनी ताकत और कायदे-क़ानूनों में पुराने समय के स्थापित कुलीन-तंत्र तथा सामंती व्यवस्था की याद दिलाता है।

मुक्त बाजार का मुक्त कंठ से गुणगान करने वाले मिल्टन फ्रिडमैन तथा फ्रेडरिक हाएक जैसे अर्थशास्त्री मानते हैं कि मनुष्य की नागरिक तथा राजनीतिक स्वतंत्रता एक आवश्यक शर्त है जिसे केवल मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था में ही हासिल किया जा सकता है।

दरअसल, फ्रेडरिक हाएक का बाजार अर्थव्यवस्था के प्रति नजरिया शुद्ध स्वाधीनतावादी था। वह मानता था कि सामाजिक संसाधनों का बेहतरीन समायोजन या एक स्वत: स्फूर्त व्यवस्था केवल बाजार आधारित अर्थव्यवस्थाओं के भीतर ही पनप हो सकती है। हाएक 'स्वत: स्फूर्त व्यवस्था' (Spontaneous Order) के अपने विचार के लिए इसी से मिलती-जुलती एडम स्मिथ के 'अदृश्य प्रेरणा' (Invisible Hand) की अवधारणा का ऋणी है।

दोनों का मूल स्वर एक है। दोनों की मान्यता एक है कि वैयक्तिक आर्थिक कारोबार के अनुक्रम में एक स्वत: स्फूर्त व्यवस्था स्थापित हो जाती है। इसी से सामाजिक भलाई का मार्ग भी प्रशस्त होता है। हाएक के यहां जो Spontaneous Order एडम स्मिथ के यहां वही Invisible Hand है। 'वेल्थ ऑफ नेशन्स' के निम्नलिखित उद्धरण पर ग़ौर करने पर साफ जाहिर हो जाता है कि एडम स्मिथ महोदय के विचारों में मुक्त बाजार या मुक्त अर्थव्यवस्था के बीज छिपे थे: "केवल अपना ही हित साधने वाला व्यक्ति भी एक 'अदृश्य प्रेरणा' से किसी ऐसे लक्ष्य के लिए काम कर जाता है जो उसकी योजना का हिस्सा नहीं रहा था। उसका यह कृत्य उसकी मूल योजना का हिस्सा न होने के बावजूद व्यापक समाज के लिए हानिकर नहीं होता। इस प्रकार व्यक्ति अपने हित के लिए काम करते हुए प्राय: सामाजिक हित का लक्ष्य ज्यादा बेहतर ढंग से पूरा कर रहा होता है जितना अगर वह वास्तव में करना चाहता तो शायद न कर पाता। मुझे ऐसा वाकया कभी नहीं दिखा जब सार्वजनिक हित की भावना से किसी व्यापार में लगे व्यक्तियों द्वारा बहुत अच्छे काम हुए हों।"

साभार संदर्भ
1. दि इकोनॉमिस्ट
2. इकोनॉमिक एण्ड पोलिटिकल वीकली
3. मेनस्ट्रीम
4. विकीपिडिया पोर्टल
5. तथ्यभारती
6. दि इकोनॉमिक टाइम्स
7. नवभारत टाइम्स
8. 'सक्सेज इंटेलिजेंस' - रॉबर्ट हॉल्डेन
9. 'इंडिया अनबाउंड' - गुरचरन दास
10. 'फ्री टू चूज : ए पर्सनल स्टेटमेंट' - मिल्टन फ्रीडमैन
11. 'दि फैटल कन्सिट : दि एरर्स ऑफ सोशलिज्म' - फ्रेडरिक हाएक
12. 'अमेरिकन पैराडॉक्स- स्प्रिचुअल हंगर इन एन एज ऑफ प्लेन्टी' - डेविड मेयर्स

अनुवाद

अनुवाद का मैदान: दो पाठों का टकराव: इतिहास और संस्कृति

अभी हाल ही में मैं अपने तमाम मित्रों के साथ चेन्नै में आयोजित राजभाषा सम्मेलन में भाग लेकर वापस आ रहा था। फ्लाइट में समय काटने के लिए सामने की कुर्सी की पीठ पर लगे मनोरंजन के चौखटे से जुड़े हेडफोन को कानों में खोंसकर अपनी पसंद के फिल्मी गाने सुनता रहा। जब मन भर गया तो 'कार्तिक कालिंग कार्तिक' फिल्म शुरू किया। फिल्म पूरी नहीं हो पायी क्योंकि तब तक कैप्टन ने लैंडिंग के संकेत दे दिए थे। हिन्दी संवादों के अंग्रेजी सब टायटल्स (रनिंग अनुवाद) ने मेरे अंदर के अनुवादक को छेड़कर जगा दिया। अब तो हिन्दी में बोले जा रहे संवादों को मेरे कानों ने सुनना ही बंद कर दिया। मेरा दिमाग तो केवल स्क्रीन पर नीचे के भाग में तड़ातड़ अंग्रेजी में आ रहे सब टायटल्स (अनुवाद) को पढ़ने और समझने में ही डूबा रहा। मित्रों। मैं इस सहज घटना का ज़िक्र इसलिए आपसे कर रहा हूँ क्योंकि मेरा मानना हैं कि भाषाएं तो खुद ही बड़ी मायावी होती हैं। उनके साथ होना साँप की आँखों में देखना और फिर मोहाविष्ट हो जाना है। ऊपर से यदि दो भाषाएं एक साथ आपके सामने हों तो कल्पना करिए उनके इंटरप्ले से कितना बड़ा सम्मोहन पैदा होगा। और भाषाओं के परस्पर अभिसार और आलिंगन से यह सम्मोहन अनुवाद की धरती पर ही पैदा होता है। मैं चेन्नै जाते समय और वहां पहुंचकर तीन दिन चेक लेखक कारेल चापेक की कहानियों के हिन्दी अनुवाद पढ़ता रहा। कहानियां तो ख़ैर सुंदर हैं ही; लेकिन वे महासुंदर बन पड़ी हैं - हिन्दी में अनूदित होकर। अब आप जानना चाहेंगे कि वह अनुवादक कौन हो सकता है? सिर्फ़ और सिर्फ़ निर्मल वर्मा। निर्मल के बारे में बहुत प्रसिद्ध कथन है - वे गद्य में कविता लिखते हैं। कहीं से लगता ही नहीं है कि कहानियां अनुवाद हैं। इसका एक कारण तो यह कि निर्मल वर्मा ने सीधे चेक भाषा से इन कहानियों का हिंदी में अनुवाद किया है। दूसरे, वे 1959 से 1968 तक प्राग में ही रहे थे। वहां की पहाड़ी, ब्रिज, चर्च, रेस्तरां कहां हैं; किन-किन रास्तों से उन जगहों पर जाया जा सकता है - इन सबकी तफसील हैं निर्मल के उपन्यास और कहानियां। उनके लिए अनुवाद दो भाषाओं के बीच फैले जंगल में अकेले निर्लिप्त और सब खतरों से मुक्त घूमना है।

आखिर यह अनुवाद किस बला का नाम है। आप भी अपने कार्यालय में हिंदी अनुवाद के फेर में आए दिन पड़ते ही होंगे। लेकिन अनुवाद के साथ असली नूराकुश्ती तो फिर भी आपको नहीं करनी पड़ती है। उसके लिए बैंक ने हर कार्यालय में राजभाषा अधिकारी जो बिठा रखा है। नयी-नयी बैंकिंग अवधारणाओं की थाह लेना और तुर्रा यह कि अंग्रेजी भी पोस्ट-विक्टोरियन मिज़ाज की। लंबे-लंबे परिपत्र और भारी-भरकम रिपोर्टें देखकर दिमाग में सूनामी तरंगें उठने लगती हैं। वो क्या भीषण अंग्रेजी की रुह भी थर्रा जाए। लेकिन हम मैदान में उतरते हैं-निष्कवच और निर्भय। हम जानते हैं कि हमारे काम को लोग मौलिक नहीं मानेंगे। हमारी कृतियाँ हिंदी में हैं इसलिए दोयम दर्जे की हैं। इस दंश को हम दशकों से झेलते आए हैं। अंग्रेजी में की गयी नकल भी सहजता से मान्य हो जाती है। बल्कि जिसकी अंग्रेजी जितनी दुरुह उसकी उतनी पूछ। हिंदी अनुवाद को सहज-सरल बनाने की भरसक कोशिश की जाती है। लेकिन अंग्रेजी पाठ यदि भयंकर हो तो उसका हिंदी पाठ पंचतंत्र की कथा कभी नहीं हो सकता। अभी पूंजी पर्याप्तता का बासल-2 फ्रेमवर्क बैंकिंग के केंद्र में है। लेकिन उसकी अंग्रेजी देखिए। एक निपट सांध्य भाषा। यह अंग्रेजी पर कोई आरोप नहीं है। ख़ैर मेरे जैसे नाचीज की औकात ही क्या कि इतनी क्लासिकल और रूमानी भाषा पर गंदा आरोप लगाए। इसके पैरोकार तख्त और ताज से ताल्लुक रखते हैं। इसलिए अभिजन की भाषा की निंदा कैसे की जा सकती है। अभिजन जिधर जाते हैं वही पंथ बन जाता है। लेकिन भाषा हमेशा पंथों और ग्रंथों की विरोधी रही है। उसकी मिसाल उसके जनवादी तेवरों के लिए दी जाती है। भाषा जनमन के भीतर ही अपनी जिजीविषा से मिल पाती है। उसका स्पंदन लोकसंसार में धड़कता है। जो भाषा जितना आभिजात्य संस्कारों वाली रही है वह उतना ही प्रयोग से बाहर होती चली गयी है। हिंदी इसी जनमन की भाषा है।

आइए चलिए देखें - अपने कार्यालय के उस कक्ष में जहाँ राजभाषा अधिकारी अंग्रेजी में लिखे ढेर सारे कागजात, रिपोर्टों, परिपत्रों के बीच घिरा कुछ लिखता चला जा रहा है। जनाब! उसे कम मत समझिए - वह अनुवाद कर रहा है। बात-बात में भूमिका लंबी-चौड़ी होती जा रही है। अब सीधे अनुवाद रूपी कला और बला की नकेल पड़ते हैं।

अनुवाद का अपना हजारों साल पुराना इतिहास है। अरब खास तौर से इराक में इस विधा को एक पुख्ता जमीन मिली। पुरातत्वविदों को जिल्गामेश के महाकाव्य तथा हमूराबी की संहिता के कई भाषाओं में अनुवाद प्राप्त हुए हैं। पंद्रहवीं सदी तक आते-आते अरब देशों में अनुवाद की कला बाजाफ्ता एक लोकप्रिय और स्थापित विधा बन चुका था। उन्होंने अनुवाद की दो विधियाँ अपनायी। पहली विधि प्रथम अनुवादक इब्न नयमा अल-हिम्शी के नाम से जानी जाती है। यह शाब्दिक अनुवाद की धारा है। अनुवाद की दूसरी धारा के प्रवर्तक अपने जमाने के दो उम्दा अनुवादक अल-बतरीक तथा उसका बेटा याह्या थे जिन्होंने पाठ के अर्थ के अनुवाद को महत्वपूर्ण माना। पिता-पुत्र की इस जोड़ी ने यूनानी दर्शन और चिकित्सा पद्धति के महान ग्रंथों का अरबी में अनुवाद किया।

यदि इससे आगे बढ़कर देखा जाए तो अनुवाद की एक तीसरी धारा के लिए भी गुंजाइश बनती है। इस तीसरी धारा में खास बात उसकी रचनात्मक शक्ति है। इस अनुवाद में पाठ की वस्तु और उसके अर्थ दोनों का अनुवाद कलात्मक प्रतिभा के ऐसे सूक्ष्म स्तर पर किया जाता है जहाँ पाठ के सतह पर दिखने वाले रूप और अर्थ के पार का संज्ञान उभरकर सामने आ जाता है। इसका अधिवास संपूर्ण पाठ की शैली में कहीं खोजा जा सकता है। इसका एक आत्मीय संबंध लेखक की दृष्टि के साथ भी बनता है। यह एक प्रकार के रहस्य पर से पर्दा उठाने जैसा अनुभव है। इस प्रकार एक अनुवादक दो भाषाओं की भिड़ंत के बीच खतरे में खड़ा रहकर एक नयी रचना का शिलान्यास करता है। उसे मूल पाठ के प्रति ईमानदार रहते हुए एक सर्वथा नया पाठ गढ़ना पड़ता है। यह काम आसान नहीं होता। कुछ विद्वान तो मानते हैं कि अनुवाद इत्र के मानिंद होता है। यदि इत्र को एक शीशी से दूसरी शीशी में ऊड़ेला जाए तो उसकी कुछ खुशबू तो उड़ ही जाती है। इसी प्रकार अनुवाद के बाद पाठ की कुछ खुशबू और उसकी कुछ रुह तो फना हो ही जाती है। बेंजामिन जैसे भाषाविद् मानते हैं कि अनुवाद संस्कृतियों के बीच एक पुल बना देता है। वह सिर्फ लक्ष्य भाषा का साहित्य समृद्ध नहीं करता। वह भाषाओं और संस्कृतियों के मिलाप से विश्वायतन को समझने का एक सांस्कृतिक इंक्यूबेटर बन जाता है।

अनुवाद का इतिहास उतना ही पुराना है जितनी मानव सभ्यता। भाषा की शुरूआत के साथ-साथ अनुवाद का श्रीगणेश भी हो गया था। भारत में 1857 की क्रांति न सिर्फ स्वाधीनता संग्राम की दृष्टि से एक निर्णायक क्षण है बल्कि वह भारतीय मानस को बदल देने वाली एक अभूतपूर्व घटना रही है। इससे निकली चेतना नवजागरण की लिपि बनी। समूचे देश में नवजागरण हर स्तर पर प्रतिरोध और परिवर्तन के स्वर को मुखरित कर रहा था। साहित्य, कला, कविता, भाषा, चिंतन, पत्रकारिता सब कुछ एक प्रतिबद्धता और एक जज्बे से ओतप्रोत थे। वह जज्बा था - आत्मबोध का, भारतीयता की पहचान का। इसी भारतीयता के घनीभूत पुंज थे - भारतेंदु हरिश्चंद्र। वे हिंदी क्षेत्र में नवजागरण की इस चेतना के अग्रदूत थे। उन्होंने नवजागरण की चेतना को साहित्य-संस्कृति के माध्यम से जनजीवन में जगाया। जनजागरण के अपने इस अभियान में भारतेंदु बाबू जिन दो सशक्त साधनों का इस्तेमाल किया वे थे - पत्रकारिता और अनुवाद। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के संपादन में 1901 में सरस्वती पत्रिका निकली। यह मात्र पत्रिका नहीं; अपने समय का प्रामाणिक आख्यान थी। हिंदी में यह भारतीय मानस को पुनराविष्कृत करने वाली अदम्य और निर्भीक पत्रकारिता की शिखर उपलब्धि थी। सरस्वती में द्विवेदी जी ने इसमें मौलिक साहित्य के साथ-साथ अनुवाद को भी उदारता के साथ महत्व दिया था। दुनिया-भर के ज्ञान-विज्ञान से यह पत्रिका अनुवादों के माध्यम से हिंदी संसार को परिचित करा रही थी। दुनिया की जानकारी यहाँ जितनी लेखन से आती थी उससे कम अनुवादों के माध्यम से भी नहीं आती थी। नवजागरण का यह युग एक प्रकार से अनुवाद विधा के लिए भी वरदान साबित हुआ। भारतेंदु हरिश्चचंद्र ने ख़ुद संस्कृत, बांग्ला, अंग्रेजी आदि भाषाओं के कई नाटकों का हिंदी में अनुवाद किए थे। उन्होंने हर्ष के रत्नावली, विशाखदत्त के मुद्राराक्षस का बांग्ला से, कर्पूर मंजरी का प्राकृत से तथा शेक्सपियर के 'मर्चंट ऑफ वेनिस' का 'दुर्लभ बंधु' शीर्षक से हिन्दी अनुवाद किया था। अनुवाद की इस पुख्ता नींव पर आगे अनेक शीर्षस्थ लेखकों ने विश्व साहित्य की तमाम कृतियों के सुंदर अनुवाद प्रस्तुत किए। उस जमाने में आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने जोसफ एडिसन के लेख Pleasures of Imaginations का 'कल्पना का आनंद', हेकेल की पुस्तक The Riddle of the Universe का 'विश्व प्रपंच' तथा एडविन आर्नोल्ड के Light of Asia का अनुवाद 'बुद्धचरित' नाम से और श्रीधर पाठक ने ऑलिवर गोल्डस्मिथ की दो पुस्तकों The Hermit तथा Deserted Village का अनुवाद क्रमश: 'एकांत योगी' और 'ऊजड़ग्राम' नाम से किया था। महाप्राण निराला ने बांग्ला से 'आंनद मठ', 'दुर्गेशनंदिनी', राष्ट्रकवि दिनकर ने 'मेघदूत' तथा रवीन्द्र नाथ टैगोर की चुनिंदा कविताओं का हिन्दी अनुवाद किया। बाद में हिन्दी में विदेशी साहित्य के अनुवाद की एक समृद्ध परम्परा-सी बन गयी। अनुवाद विश्व साहित्य का वातायन बन गया। भीष्म साहनी ने तो बाकायदा 1957 से 1963 के बीच अपने रूस प्रवास के दौरान एक अनुवादक के रूप में कार्य करते हुए लगभग 25 रूसी किताबों का हिन्दी में अनुवाद किया था जिनमें टॉलस्टॉय का Resurrection भी शामिल है। कविवर बच्चन अपनी 'मधुशाला' और 'बसेरे से दूर' के कारण जितना प्रसिद्ध हैं उतना ही वे शेक्सपीयर के नाटकों के हिन्दी अनुवाद के लिए भी जाने जाते हैं। मोहन राकेश ने 'मृच्छकटिकम' तथा 'शाकुंतलम' का संस्कृत से हिन्दी में अनुवाद किया था। इसके अलावा रांघेय राघव, निर्मल वर्मा, कुँवर नारायण, राजेन्द्र यादव, विष्णु खरे, गंगा प्रसाद विमल जैसे बड़े लेखकों ने भी विश्व साहित्य की तमाम महत्वपूर्ण कृतियों के सुंदर अनुवाद से हिन्दी साहित्य को समृद्ध किया है। उदय प्रकाश द्वारा पाब्लो नेरुदा, लोर्का, लुइस बोर्गेस, पॉल एलुआर, एडम जेड्रेवस्की, रोजेविस, मिखाइल सात्रोव के एक नाटक का 'लाल घास पर नीले घोड़े', कन्नड़ लेखक प्रसन्ना के एक नाटक का राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, नई दिल्ली के अभिमंच के लिए 'एक पुरुष डेढ़ पुरुष' नाम से अनुवाद इस विधा को सशक्त बनाने वाले कार्य हैं। इसके अलावा अहलूवालिया,------, सूरज प्रकाश, प्रेमरंजन 'अनिमेष' आदि भी अनुवाद विधा में लगातार काम कर रहे हैं।

अंग्रेजी में लिखने वाले भारतीय लेखकों में से कई सिद्धहस्त अनुवादक भी रहे हैं। इनमें से शुरूआती दौर के लेखकों में श्री अरविन्दो तथा पी.लाल के नाम अग्रगण्य हैं। उनकी स्रोत भाषा मुख्यत: संस्कृत रही। बाद के आधुनिक तेवर वाले दिलीप चित्रे, ए.के.रामानुजन, आर.पार्थसारथी तथा अरुण कोलातकर जैसे द्विभाषिक कवियों की स्रोत भाषा उनकी मातृभाषा रही। इनके अनुवाद का विषय मुख्य रूप से मध्यकाल का भक्ति-साहित्य था। रवीन्द्र नाथ टैगोर द्वारा 'कबीर' तथा श्री अरविन्दो द्वारा 'विद्यापति' का अनुवाद इस प्रकार के अनुवाद के प्रारंभिक उदाहरण हैं। दरअसल उस दौर में अनुवाद इन कवि-लेखकों के लिए अपनी आत्मा उपनिवेशवादी चंगुल से मुक्त करने का एक सांस्कृतक औजार था।

1980 के दशक में अनुवाद को विश्व स्तर पर एक सुव्यवस्थित अनुशासन के रूप में प्रतिष्ठा मिली। 1970 का दशक इसको अपनी पहचान बनाने में बीत गया। 1990 को इलेक्ट्रॉनिक मीडिया क्रांति का दशक माना जाता है। इस दशक में संस्कृतियों की साझेदारी और उनके बीच आवाजाही के नए मार्ग खुल गए। यह सब कुछ इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से संभव हुआ। सरहदें नाकाफी हो गयीं। इस मीडिया की उड़ान के रास्ते में कोई सरहद बीच में नहीं आती। सूचना क्रांति ने वैश्वीकरण को संस्कृतियों के संदर्भ में समझने का अवसर दिया। लेकिन वैश्वीकरण का एक नकारात्मक पहलू भी है। सांस्कृतिक जड़ों को पुनर्परिभाषित करने और राष्ट्रों के बीच हितों के नए समीकरण और टकराव के क्षेत्रों में उभार भी इसी प्रक्रिया की विरासत है। ऐसे में अनुवाद तेजी से नस्ली और एथनिक दीवारों में बँटती जा रही इस उत्तर-वैश्वीकृत दुनिया को समझने का एक ताजादम अनुशासन बन रहा है।

इधर अनुवाद की महत्ता काफी बढ़ी है। विश्व के अनेक दूरस्थ भागों व भाषाओं का साहित्य अब अंतर्राष्ट्रीय पाठक-वर्ग को कहीं अधिक सुलभ है जो अनुवाद के ही माध्यम से संभव हुआ है। आयरलैंड के विद्वान माइकल क्रोनिन ने अनुवादक को एक ऐसा यात्री बताया है जिसकी यात्रा एक स्रोत से दूसरे स्रोत तक होती है। निश्चित रूप से 21वीं सदी न केवल देशों के बीच एक महत्वपूर्ण यात्रा की साक्षी बनेगी बल्कि समय का एक नया वृतांत भी बनेगी।

अनुवादों से मूल भाषा का कम ही बनता-बिगड़ता है पर लक्ष्य भाषा अर्थात् जिसमें अनुवाद होकर आये हैं, उस पर अनुवादों का कैसा और कितना प्रभाव पड़ता है, इस विषय पर अनुवाद शास्त्र के विद्वानों ने पिछले कुछ दशकों में काफि कुछ कहा है। इनमें से केवल दो मुख्य बिन्दुओं का संक्षिप्त संकेत यहां पर्याप्त है। पहली तो इजराइल के अनुवाद विशेषज्ञ इतमार ईवेन जोहार की सैद्धान्तिक स्थापना कि अनुवाद किसी भी भाषा व साहित्य की आंतरिक बहुआयामी प्रणाली में ही बदलाव लाते हैं, जिससे उस भाषा का ढाँचा और मुहावरा बदलता है। एक और सवाल हमेशा हमारे सामने खड़ा रहता है कि अनुवाद सुगम या घर-जैसा होना चाहिए (Domestication) या जान-बूझकर अटपटा और अपेक्षाकृत दुर्गम जिससे वह स्पष्टत: पराया लगे (foreignization)? इस गहन किन्तु असाध्य विषय पर जो बहसें हुई हैं उनके प्रथम प्रवर्तक थे फ्रीडरिख श्लायरमाखर और हमारे समय के अधिकारी विद्वान हैं लारेंस वेन्युटी।

इस प्रकार आप देखेंगे कि हमारी बिरादरी के मजबूत हाथों में साहित्य-संस्कृति का परचम भी लहराता है। अनुवाद एक सर्जना है - यदि आप मानें तो। हाल-फिलहाल अनुवाद को सत्ता-विमर्श से भी जोड़कर गंभीर अध्ययन चल रहा है। अनुवाद, इतिहास, संस्कृति नामक अपनी पुस्तक में आंद्रे लेफेवेरे कहते हैं कि अनुवाद का सीधा संबंध अथॉरिटी, लेजिटीमेसी और अंतत: सत्ता के साथ है। अनुवाद एक दूसरी दुनिया की तरफ खुलने वाली खिड़की मात्र नहीं है। A window opened on another new world. अनुवाद एक ऐसा चैनल भी है जिसके रास्ते बाहरी संस्कृति के प्रभाव स्थानीय संस्कृति पर पड़ते हैं। अनुवाद का इस चैनल के रूप में बहुधा इस्तेमाल किया जाता है। स्थानीय संस्कृति पर ऐसा अनुवाद आघात करता है। उसे कलुषित करता है। परायी वैचारिकी के रंग में रँगना शुरू कर देता है। विक्टर ह्युगो ने अनुवाद की इस छद्म ताकत को पकड़ा था। उन्होंने लिखा है कि जब आप किसी राष्ट्र को कोई अनुवाद पढ़ने के लिए देते हैं तो आप माने चाहे न माने राष्ट्र उसे अपनी अस्मिता पर एक हमले के रूप में लेता है (When you offer a translation to a nation, the nation will almost always look on the translation as an act of violence against itself)

राजभाषा अधिकारी इतने बड़े-बड़े प्रश्नों से तो नहीं जूझता है लेकिन अनुवाद की रणभूमि में जाने-अनजाने शब्द-चरितों और शब्द-संहिताओं की कठिन गुत्थियाँ सुलझाता-सुलझाता वह खुद एक चरित-नायक में ढलता जा रहा है। वह अपने प्रादुर्भाव की हीरक जयंती मना रहा है। वह एक ऐसी भाषा का ऑफिसियल चेहरा है जो हमारे देश की एकता और सांस्कृतिक अस्मिता की भाषा है। यानि हिंदी। हिंदी में सगुण हैं, निर्गुण हैं, राम हैं, कृष्ण हैं, नानक हैं, अल्लाह हैं। हिंदी समन्वय है। हिंदी विरुद्धों का सामंजस्य है।